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उत्‍तराखंड चुनाव: स्थाई राजधानी, एक अनसुलझा सवाल

उत्‍तराखंड विधानसभा चुनाव 2017 के लिए 15 फरवरी को मतदान होने हैं। विधानसभा चुनाव भी सूबे की जनता देख चुकी है, मगर स्थाई राजधानी के सवाल के समाधान की ओर किसी की तवज्जो नहीं।

By Sunil NegiEdited By: Published: Sun, 05 Feb 2017 10:36 AM (IST)Updated: Mon, 06 Feb 2017 02:30 AM (IST)
उत्‍तराखंड चुनाव: स्थाई राजधानी, एक अनसुलझा सवाल

देहरादून, [विकास धूलिया]: उत्तराखंड को वजूद में आए सोलह साल हो गए हैं, इस वक्फे में तीन लोकसभा और तीन ही उत्तराखंड विधानसभा चुनाव भी सूबे की जनता देख चुकी है, मगर स्थाई राजधानी के सवाल के समाधान की ओर किसी की तवज्जो नहीं। राज्य की पहली अंतरिम सरकार ने स्थाई राजधानी चयन के लिए एकल सदस्यीय आयोग बनाया जरूर, मगर ग्यारह एक्सटेंशन के बाद मिली आयोग की रिपोर्ट सरकारी फाइलों में अब भी धूल खा रही है।

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विडंबना तो यह है कि उत्तराखंड में सत्ता में रही दोनों राष्ट्रीय पार्टियों, भाजपा और कांग्रेस का रवैया स्थाई राजधानी के मामले में एक जैसा टालमटोल वाला रहा है। मुद्दा सियासत से जुड़ा है तो दोनों पार्टियों ने इसे अपनी सुविधा के मुताबिक इस्तेमाल किया है। पिछले सोलह सालों में गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाए जाने को लेकर सियासत तो जमकर हुई मगर कोई भी पार्टी इसे लेकर किसी नतीजे पर पहुंचने का साहस नहीं जुटा पाईं। महत्वपूर्ण बात यह कि राज्य के चौथे विधानसभा चुनाव में भी स्थाई राजधानी का सवाल भाजपा और कांग्रेस के एजेंडे का हिस्सा नहीं है। अगर यह कहा जाए कि गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने का मुद्दा अब केवल जन मुद्दा बनकर रह गया है तो गलत नहीं होगा।

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शुरुआत से ही स्टैंड साफ नहीं

उत्तराखंड अलग राज्य के रूप में नौ नवंबर 2000 को अस्तित्व में आया। उस समय केंद्र में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपानीत राजग सरकार थी और उत्तराखंड के लिए गठित पहली अंतरिम विधानसभा में भाजपा का बहुमत होने के कारण अंतरिम सरकार बनाने का मौका भी भाजपा को ही मिला। तब देहरादून को अस्थाई राजधानी बनाने का निर्णय लिया गया। दरअसल, पहले ही दिन से स्थाई राजधानी को लेकर जिस तरह स्टैंड साफ नहीं किया गया, उसका ही नतीजा है कि अब सोलह साल बाद भी राज्य इस मामले में दोराहे पर खड़ा नजर आ रहा है।

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इन सोलह सालों में गैरसैंण के नाम पर सियासी पार्टियों ने जन भावनाओं का जमकर दोहन तो किया मगर इस सवाल का जवाब देने को कोई तैयार नहीं कि क्या गैरसैंण को उत्तराखंड की स्थाई राजधानी बनाया जाएगा। स्थाई नहीं, तो क्या फिर ग्रीष्मकालीन राजधानी का दर्जा गैरसैंण को दिया जाएगा। या फिर कभी कैबिनेट बैठक का शिगूफा छोड़ और फिर औपचारिकता के लिए विधानसभा सत्र का आयोजन कर गैरसैंण के नाम पर पहाड़ की जनता को छला जाता रहेगा। सोलह सालों में उत्तरांचल जरूर उत्तराखंड हो गया मगर न तो गैरसैंण स्थाई राजधानी बनी और न देहरादून से अस्थाई का ठप्पा हटा।

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थमाया विधानसभा भवन का झुनझुना

गैरसैंण को उत्तराखंड की राजधानी बनाने की मांग राज्य गठन से पहले ही 1992 में उत्तराखंड क्रांति दल ने उठाई थी। अलग राज्य के वजूद में आने के बारह साल बाद जब कांग्रेस 2012 में दूसरी बार सत्ता में आई तो गैरसैंण को लेकर सरकार ने खासी तेजी दिखाई। लगा कि इस बार शायद स्थाई राजधानी पर कोई अंतिम फैसला सामने आ ही जाएगा। पहली बार किसी सरकार ने गैरसैंण का महत्व प्रदर्शित करने के लिए यहां कैबिनेट बैठक की। यही नहीं, लगातार तीन साल, जून 2014, नवंबर 2015 और नवंबर 2016 में गैरसैंण में विधानसभा का संक्षिप्त सत्र आयोजित किया गया। नवंबर 2015 के विधानसभा सत्र से पहले कांग्रेस ने बकायदा घोषणा की कि गैरसैंण में पार्टी के सम्मेलन में स्थाई राजधानी बनाने का प्रस्ताव पारित किया जाएगा, लेकिन जब मौका आया तो पार्टी ने इससे किनारा कर लिया।

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उधर, भाजपा को लगा कि कांग्रेस गैरसैंण मुद्दे पर बढ़त ले सकती है तो उसने सत्र के दौरान गैरसैंण पर चर्चा के लिए प्रस्ताव लाने की रणनीति अपनाई लेकिन जिस तरह यह प्रस्ताव लाया गया, उससे भाजपा की मंशा ही सवालों में घिर गई। साफ हो गया कि कांग्रेस या भाजपा, दोनों के पास गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने के लिए कोई नीति नहीं है। अलबत्ता, कांग्रेस की मौजूदा सरकार ने गैरसैंण में विधानसभा व सचिवालय की इमारत तैयार करवा जनता को झुनझुना जरूर थमा दिया। उस पर गैरसैंण में निर्मित विधायक हॉस्टल को राज्य अतिथि गृह बनाने का आदेश जारी कर सरकार ने खुद ही अपनी मंशा जाहिर कर दी। हालांकि विपक्ष द्वारा मुद्दा लपके जाने पर यह फैसला वापस ले लिया गया।

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विधानसभा सीटों के गणित का भय

दरअसल, सियासी पार्टियों के लिए गैरसैंण को स्थाई राजधानी न बनाए जाने के मूल में विधानसभा सीटों का गणित सबसे बड़ी बाधा है। 2007-08 में हुए विधानसभा सीटों के नए परिसीमन के बाद सूबे की कुल 70 में से अधिकांश सीटें मैदानी इलाकों में चली गईं। इनमें देहरादून की 10, हरिद्वार की 11 ऊधमसिंह नगर जिले की नौ सीटें तो हैं ही, इनके अलावा पौड़ी गढ़वाल की एक, नैनीताल की चार विधानसभा सीटें भी मैदानी भूगोल की हैं। यानी कुल विधानसभा सीटों की ठीक आधी, 35 सीटें मैदानी क्षेत्र में हैं और यही वह वजह है, जिससे कांग्रेस और भाजपा गैरसैंण की हिमायत खुलकर करने से बचती रही हैं।

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दोनों पार्टियों को लगता है कि अगर उन्होंने गैरसैंण जैसे पर्वतीय क्षेत्र में स्थाई राजधानी को लेकर सकारात्मक रुख प्रदर्शित कर दिया तो राज्य की मैदानी क्षेत्र में स्थित 35 विधानसभा सीटों पर मतदाता उनसे विमुख हो सकता है। जहां तक पर्वतीय क्षेत्र की 35 विधानसभा सीटों का सवाल है, यहां तो पिछले सोलह सालों से ये दोनों पार्टियां मतदाता को टहलाते आ ही रहे हैं। दोनों इसलिए भी निश्चिंत हैं क्योंकि स्थानीय जनमानस ने अब तक के तीन विधानसभा व तीन लोकसभा, कुल छह चुनावों में तो इस पर अपनी कोई प्रतिक्रिया झलकने नहीं दी।

सुविधा के मुताबिक तय किया स्टैंड

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उत्तराखंड की स्थाई राजधानी तय करने के मामले में जिस तरह राज्य गठन के वक्त अनमना रुख अपनाया गया, उसका नतीजा यह रहा कि भाजपा और कांग्रेस ने जब चाहा, अपने मान माफिक तरीके से इस मुद्दे का इस्तेमाल किया। राज्य गठन से पहले अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय कौशिक समिति से लेकर कांग्रेस की मौजूदा हरीश रावत सरकार तक ने स्थाई राजधानी के रूप में गैरसैंण के महत्व को रेखांकित तो किया लेकिन उसे वैधानिक रूप से राजधानी के रूप में मान्यता दिलाने की हिम्मत नहीं दिखाई।

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राज्य बनने पर एकल सदस्यीय दीक्षित आयोग स्थाई राजधानी तय करने के लिए बनाया गया मगर जिस तरह की संस्तुतियां इस आयोग ने की, उनसे लगा कि कहीं इसका गठन स्थाई राजधानी के लिए उपयुक्त व सर्वमान्य स्थान चुनने की बजाए गैरसैंण को स्थाई राजधानी की दावेदारी से अलग करने के उद्देश्य से तो नहीं किया गया। सच तो यह है कि जनभावनाओं को उद्वेलित करने के लिए तमाम सियासी पार्टियों ने समय-समय पर गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाए जाने की पैरवी तो की, मगर केवल अपनी सुविधा के लिहाज से। नतीजा यह हुआ कि जब हित सध गए तो फिर गैरसैंण को धीरे से पाश्र्व में सरका दिया गया। पिछले लगभग ढाई दशक से उत्तराखंड की जनता सब कुछ देख रही है मगर इससे फर्क क्या पड़ता है।

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कौशिक समिति ने की गैरसैंण के नाम की सिफारिश

अविभाजित उत्तर प्रदेश के दौरान से ही पर्वतीय क्षेत्र को अलग राज्य बनाने की मांग उठती रही लेकिन 1991 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन भाजपा सरकार ने विधानसभा में पहली बार अलग उत्तरांचल राज्य के गठन का प्रस्ताव पारित किया। वर्ष 1994 में उत्तर प्रदेश की मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी की सरकार ने उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने के लिए कौशिक समिति का गठन किया। इस समिति ने उत्तराखंड को अलग राज्य बनाए जाने की सिफारिश करते हुए पांच मई 1994 को सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी। साथ ही गढ़वाल और कुमाऊं के मध्य स्थित गैरसैंण को नए राज्य की राजधानी के रूप में प्रस्तावित किया गया। कौशिक समिति की रिपोर्ट के बाद ही 24 अगस्त 1994 को उत्तर प्रदेश विधानसभा ने उत्तराखंड राज्य बनाने का प्रस्ताव पारित किया।

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दीक्षित आयोग को 11 एक्सटेंशन, रिपोर्ट ठंडे बस्ते में

उत्तराखंड (तब नाम उत्तरांचल) के वजूद में आने के दो महीने बाद 11 जनवरी 2001 को सेवानिवृत्त जस्टिस वीरेंद्र दीक्षित की अध्यक्षता में एकल सदस्यीय राजधानी चयन आयोग बनाया गया। आयोग ने 11 बार कार्यकाल विस्तार पाने के बाद 17 अगस्त 2008 को अपनी सिफारिशें भाजपा की तत्कालीन खंडूड़ी सरकार को सौंपी, जिसे 13 जुलाई 2009 को विधानसभा में पेश किया गया। दीक्षित आयोग ने स्थाई राजधानी के लिए पांच स्थानों का जिक्र किया। इसमें देहरादून, गैरसैंण के आसपास का क्षेत्र, काशीपुर, रामनगर और ऋषिकेश के नाम शामिल किए गए। इस रिपोर्ट में देहरादून को तमाम मानकों के आधार पर स्थाई राजधानी के लिए उपयुक्त बताया गया जबकि गैरसैंण को अनुपयुक्त करार दिया गया। यही कारण रहा कि आज तक किसी भी सरकार ने इस रिपोर्ट के आधार पर कोई कदम नहीं उठाया।

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