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Loksabha Election 2019: राजशाही छूटी, लेकिन लोकशाही में बरकरार रही बादशाहत

आजादी के बाद रियासतें तो नहीं रहीं। मगर इनके शाही परिवारों की खनक आज भी सियासत में खूब गूंजती है। टिहरी संसदीय क्षेत्र इसका उदाहरण है।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Mon, 18 Mar 2019 12:35 PM (IST)Updated: Mon, 18 Mar 2019 12:35 PM (IST)
Loksabha Election 2019: राजशाही छूटी, लेकिन लोकशाही में बरकरार रही बादशाहत
Loksabha Election 2019: राजशाही छूटी, लेकिन लोकशाही में बरकरार रही बादशाहत

टिहरी, शैलेंद्र गोदियाल। भारत में रियासतों का लंबा इतिहास रहा है। आजादी के बाद रियासतें तो नहीं रहीं, मगर इनके शाही परिवारों की खनक आज भी सियासत में खूब गूंजती है। उत्तराखंड की टिहरी रियासत में भी कभी राजशाही की तूती बोलती थी, लेकिन रियासत के विलय के बाद वहां के राज परिवार ने लोकतंत्र में भी बादशाहत कायम की है। वोट की ताकत के बूते रियासत के बाद सियासत में टिहरी राज परिवार का मजबूत दखल चला रहा है। टिहरी संसदीय सीट पर अब तक हुए चुनावों की तस्वीर इसकी बानगी है। वर्ष 2014 तक 16 बार हुए आम चुनाव में इस सीट से 10 मर्तबा राज परिवार के सदस्य ही सांसद चुने गए। यही नहीं, दो बार यहां हुए उपचुनाव में भी एक बार यह सीट राज परिवार के पाले में ही गई।

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अतीत के आइने में झांके तो आजादी से पहले टिहरी रियासत (उत्तरकाशी रवाईं) राजशाही के अधीन थी। स्वतंत्रता के बाद तमाम रियासतों का विलय देश में हुआ, मगर टिहरी रियासत स्वतंत्र बनी रही। लंबे इंतजार के पश्चात एक अगस्त 1949 को इस रियासत का भारत में विलय हुआ और वहां तिरंगा फहराया गया। राजशाही का अंत होने पर राज परिवार ने लोकतंत्र में इतनी जबर्दस्त सियासी पैंठ बनाई कि राजा और प्रजा का संबंध अभी दृष्टिगोचर हो रहा है।

टिहरी संसदीय क्षेत्र का हिस्सा बनी इस रियासत के राज परिवार का सियासत में जोरदार दखल बरकरार है। सियासी आंकड़े इसकी तस्दीक कर रहे हैं। 1952 में हुए पहले आम चुनाव में टिहरी सीट से महाराजा नरेंद्रशाह की पत्नी राजमाता कमलेंदुमति शाह निर्दल प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतरी और सांसद बनीं। 1957 के चुनाव में कमलेंदुमति शाह ने सियासत की बागडोर अपने बेटे एवं टिहरी के अंतरिम शासक रहे मानवेंद्र शाह को सौंपी। 1957 में कांग्रेस के टिकट पर मानवेंद्र शाह सांसद चुने गए। इसके बाद मानवेंद्र शाह ने कांग्रेस के टिकट पर 1962 और 1967 में भी लगातार जीत हासिल की।

1971 में मानवेंद्र शाह को सिंडिकेट कांग्रेस से टिकट मिला, मगर कांग्रेस के परिपूर्णानंद पैन्यूली के सामने उन्हें पराजय झेलनी पड़ी। 1971 से 1991 तक राज परिवार सियासत से दूर रहा, मगर लोकतंत्र के जरिये सियासत में बादशाहत कायम रखने की लालसा उसे दूर नहीं रख पाई। 1991 में मानवेंद्र शाह को प्रत्याशी बनाया और उनकी जीत के साथ ही इस सीट पर पहली बार कमल खिला। इसके बाद 1996, 1998, 1999 और 2004 में भी भाजपा के मानवेंद्र शाह ने लगातार जीत हासिल की।

मानवेंद्र शाह के निधन के बाद 2007 में इस सीट पर उपचुनाव हुआ। तब उनके पुत्र मनुजेंद्र शाह मैदान में उतरे, लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा। 2012 में इस सीट पर फिर उप चुनाव हुआ तो भाजपा ने मनुजेंद्र शाह की पत्नी माला राज्य लक्ष्मी को टिकट दिया। 2014 में भी माला राज्य लक्ष्मी शाह ने सियासत में वापसी करते हुए चुनाव जीता।

दलों का खेवनहार, राज परिवार

टिहरी संसदीय सीट पर टिहरी रियासत का राजपरिवार सियासी दलों का खेवनहार भी रहा है। पहले लोकसभा चुनाव में ही राज परिवार को बगैर किसी दल की बैसाखी के मिली सफलता को देखते हुए इसके बाद सियासी दलों ने भी राज परिवार को ही तवज्जो दी। कांग्रेस और भाजपा की ओर से राज परिवार के सदस्यों पर ही भरोसा जताए जाने से इसकी तस्दीक भी होती है।

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