मद्रास हाई कोर्ट का यह आदेश कि सरकार मंदिरों के हितों की अनदेखी कर उनकी जमीन का उपयोग नहीं कर सकती, अंग्रेजों के बनाए उस कानून के दुरुपयोग की याद दिलाने वाला है, जिसके तहत हिंदुओं के धर्मस्थलों का संचालन सरकारें करती हैं। वास्तव में इस संचालन के नाम पर मंदिरों पर सरकारों का कब्जा है। देश के अधिकतर बड़े मंदिरों का संचालन सरकारों की ओर से किया जाना इसलिए अनैतिक और अनुचित है, क्योंकि मस्जिदों और चर्चों के संचालन में सरकारों की कोई भूमिका नहीं।

मंदिरों का संचालन सरकारों की ओर से किया जाना और अन्य समुदायों के धर्मस्थलों का संचालन संबंधित समुदाय की ओर से किया जाना केवल एक देश-दो विधान वाली स्थिति ही बयान नहीं करता, बल्कि यह भी बताता है कि सेक्युलरिज्म के नाम पर किस तरह भेदभाव करने वाले कानून बने हुए हैं।

यह ठीक है कि मंदिरों पर सरकारी कब्जे वाला कानून अंग्रेजों ने बनाया था, लेकिन आखिर इसका क्या औचित्य कि स्वतंत्र भारत में भी ऐसे कानून बने रहें, जो भेदभाव के परिचायक हों? आखिर धर्मस्थलों के संचालन के मामले में जैसे अधिकार अन्य समुदायों को हासिल हैं, वैसे ही हिंदू समुदाय को क्यों नहीं मिलने चाहिए और वह भी तब, जब साधु-संत अपने धर्मस्थलों का संचालन स्वयं करने की मांग कर रहे हों? किसी को बताना चाहिए कि यह कैसा सेक्युलरिज्म है, जिसके दायरे में केवल मंदिर हैं?

इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि कुछ राज्य सरकारों ने हिंदू समुदाय और साधु संतों की मांग पर मंदिरों पर से सरकारी नियंत्रण खत्म करने की पहल की है, क्योंकि कई राज्य अभी भी मंदिरों को अपने नियंत्रण में लिए हुए हैं। समस्या केवल यह नहीं है कि केवल मंदिरों पर ही सरकारी नियंत्रण है, बल्कि यह भी है कि इसके चलते मंदिरों की संपत्ति का मनमाना उपयोग किया जा रहा है। तमिलनाडु में तो कई मंदिरों की सैकड़ों एकड़ जमीन उनसे छिन चुकी है या फिर उसका इस्तेमाल गैर धार्मिक कार्यों के लिए किया जा रहा है। यही स्थिति कुछ अन्य राज्यों में भी है।

अच्छा यह होगा कि सुप्रीम कोर्ट उन याचिकाओं का निस्तारण यथाशीघ्र करे, जिनमें मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की मांग की गई है। इसी के साथ यह मांग करने वाले संत समाज के लिए भी आवश्यक है कि वह अपने स्वामित्व और संचालन वाले मंदिरों की व्यवस्था आदर्श रूप में करके उदाहरण पेश करे। मंदिर केवल आस्था के साथ ज्ञान और आध्यात्मिकता के ही केंद्र नहीं होने चाहिए। वे समाज सुधार और समरसता के केंद्र भी बनने चाहिए। संत समाज को यह देखना होगा कि मंदिरों में ऐसी प्रथाओं का पालन न होने पाए, जो आज के समय उपयुक्त नहीं और जो पंरपरा के नाम पर प्रगतिशीलता में बाधक हों। मंदिरों को उन कर्मकांडों से छुटकारे की पहल भी करनी चाहिए, जो श्रद्धालुओं की परेशानी का कारण बनते हैं।