प्राचीन भारतीय ज्ञान की महत्ता, पुरातन दर्शन और खगोल विज्ञान के सूत्रों पर अनुसंधान का यही श्रेष्ठ अवसर
आकाश और तमाम ग्रह ज्योतिर्विज्ञानियों की जिज्ञासा रहे हैं। आर्यभट ने आर्यभट्टीयम लिखा। भास्कराचार्य द्वितीय ने सिद्धांत शिरोमणि में बताया ‘पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति है।’ वराहमिहिर की पंचसिद्धांतिका में सूर्य और चंद्रग्रहण का उल्लेख है। ग्रह गति के अध्ययन से सैकड़ों वर्ष पहले पंचांग बन जाते थे। तिथि वार (दिन) नक्षत्र योग और करण पंचांग के पांच अंग हैं। ब्रह्मगुप्त ने ‘ब्रह्मस्फुट सिद्धांत’ में पृथ्वी को गोल बताया।
हृदयनारायण दीक्षित: चंद्रयान-3 की सफलता से भारत के मन में धरती से आकाश तक उल्लास है। भारत चंद्रमा पर पहुंचने वाला दुनिया का चौथा देश बन गया है और उसके दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचने वाला पहला राष्ट्र। प्रधानमंत्री मोदी ब्रिक्स सम्मेलन से सीधे इसरो मुख्यालय पहुंचे। उन्होंने इसरो के विज्ञानियों और इंजीनियरों को बधाई देते हुए कहा, ‘भारत ने हजारों वर्ष पहले अंतरिक्ष की ओर देखना शुरू कर दिया था। यहां सदियों पहले अनुसंधान परंपरा थी।’
उन्होंने आर्यभट, वराहमिहिर और भास्कराचार्य जैसे विद्वानों का उल्लेख किया। हमारे प्राचीन विद्वान चंद्र और सूर्यग्रहण की पूर्व घोषणा करते रहे हैं। इसके अलावा वे अन्य आकाशीय ग्रहों की गतिशीलता की जानकारी भी देते रहे हैं। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा, ‘भारतीय ज्ञान परंपरा के खगोलीय सूत्रों को वैज्ञानिक दृष्टि से सिद्ध करने के लिए गहन अध्ययन की आवश्यकता है।’ उन्होंने अंतरिक्ष विज्ञान की प्राचीन परंपरा को और आगे ले जाने की अपील की।
ऋग्वेद लगभग 10 हजार वर्ष पुराना है। ऋग्वेद में प्रकृति की शक्तियों को देवता कहा गया है। वैदिककालीन समाज का दृष्टिकोण वैज्ञानिक था। उपकरणों का प्रयोग ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं है। आइंस्टीन ने स्पष्ट किया है, ‘उपकरणों और उनकी तकनीक के प्रयोग वैज्ञानिक जान पड़ते हैं। मैं इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं मानूंगा। मैं उन व्यक्तियों की बात कर रहा हूं, जिनमें वैज्ञानिक मानसिकता है।’
ऋग्वेद में प्रश्न है, ‘सूर्य रात्रि में कहां चले जाते हैं?’ ऋग्वेद में यह जिज्ञासा भी है, ‘वह किस शक्ति से गतिशील हैं?’ एक प्रश्न यह भी है कि सूर्य को तत्वतः किसने देखा और ब्रह्मांड का केंद्र कहां है? हमारे यहां सदियों से अनुसंधान की परंपरा है। पुराणों के अनुसार नैमिषारण्य में लगभग साठ हजार विद्वान कई माह तक लोकमंगलकारी विषयों पर विमर्श करते रहे। चरक संहिता में भी आयुर्विज्ञानियों की गोष्ठियों के उल्लेख हैं। राजा जनक की गोष्ठी में याज्ञवल्क्य और गार्गी का प्रश्नोत्तर हुआ।
आकाश और तमाम ग्रह ज्योतिर्विज्ञानियों की जिज्ञासा रहे हैं। आर्यभट ने आर्यभट्टीयम लिखा। भास्कराचार्य द्वितीय ने सिद्धांत शिरोमणि में बताया, ‘पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति है।’ वराहमिहिर की पंचसिद्धांतिका में सूर्य और चंद्रग्रहण का उल्लेख है। ग्रह गति के अध्ययन से सैकड़ों वर्ष पहले पंचांग बन जाते थे। तिथि, वार (दिन), नक्षत्र, योग और करण पंचांग के पांच अंग हैं। ब्रह्मगुप्त ने ‘ब्रह्मस्फुट सिद्धांत’ में पृथ्वी को गोल बताया।
विज्ञान के क्रमिक विकास में गणित का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है। दशमलव पद्धति दुनिया को भारत की देन है। शून्य का आविष्कार भारतीय ज्ञान का चमत्कार है। चीनी संस्कृति के विशेषज्ञ नी ढैम के अनुसार शून्य के लिए गोलाकार प्रतीक का व्यवहार चीन में 1247 में मिलता है और यह भारत से प्राप्त किया गया। हमारे यहां यह 879 ईस्वी में भोजदेव अभिलेख में दिखाई पड़ता है। एसएन सेन ने लिखा है, ‘शब्दांक और स्थानगत मूल्य व्यवस्था में उनका व्यवहार अभूतपूर्व भारतीय ज्ञान है। सप्ताह के सात दिन और ग्रह अनुसार उनके नामकरण भारतीय चमत्कार है। सूर्य का रविवार, सोम का सोमवार, मंगल का मंगलवार, बुध का बुधवार, बृहस्पति का बृहस्पतिवार, शुक्र का शुक्रवार और शनि का शनिवार सूर्य सिद्धांत में है। सारी दुनिया इसी क्रम को मानती है।
प्राकृतिक शक्तियों का सांस्कृतिक नामकरण एक प्राचीन परंपरा है। इसी कारण प्रधानमंत्री ने चंद्रयान-3 के लैंडिंग स्थान को शिवशक्ति प्वाइंट नाम दिया। आकाश में सप्तऋषि तारामंडल है। मरीचि, वशिष्ठ, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह और कृतु वैदिक ऋषि हैं। आचार्य वराहमिहिर ने वृहत संहिता में लिखा है, ‘ध्रुव तारा रूपी नायक के आदेश से सात तारों वाले सप्तऋषि मंडल के परिभ्रमण से उत्तर दिशा नृत्य करती दिखाई पड़ती है।’ आधुनिक ज्योतिर्विज्ञान में सात तारों को यूनानी वर्णमाला के अल्फा, बीटा आदि नामों से अभिज्ञात किया है।
हमारे पूर्वजों ने आकाश में तारों के गलियारे को आकाशगंगा कहा। हमारे ऋषियों के मन में नदियों के प्रति श्रद्धा रही है। सरस्वती नदी के साथ वाग्देवी भी हैं, लेकिन कथित सेक्युलर लोग सरस्वती को कल्पना बताते हैं। पतंजलि के योगसूत्र सारी दुनिया तक पहुंचे। लंदन विश्वविद्यालय के प्रो एएल बाशम ने ‘दि वंडर दैट वाज इंडिया’ में भारतीय योग परंपरा का उल्लेख किया है।
शाहजहां के पुत्र दारा शिकोह ने 1657 में अनेक उपनिषदों का अनुवाद संस्कृत से फारसी में कराया। फ्रांसीसी विद्वान आकतील डुपेरो ने फारसी से लैटिन में कराया। जर्मन विद्वान शापेन हावर ने इसे पढ़ा और कहा, ‘यहां हर चीज में भारत का वातावरण और प्रकृति से संलग्न आदिम जीवन स्पंदित हैं। ओहो मानस उन यहूदी अंधविश्वासों से धुल कर साफ हो जाता है, जिन्हें वह अब तक पाले हुआ था।’ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि संस्कृत भाषा को व्याकरणसम्मत रूप देने में पाणिनि का योगदान अतुलनीय है।
मैक्समूलर ने भारतीय चिंतन और संस्कृत की प्रशंसा की। विलियम जोंस ने भी संस्कृत की प्रशंसा की। इसरो प्रमुख एस. सोमनाथ ने यह ठीक ही कहा, ‘भारत वैदिक काल से ही ज्ञानी समाज था और उसमें संस्कृत की भूमिका रही है। गणित, चिकित्सा विज्ञान और खगोल विज्ञान आदि विषय संस्कृत में लिखे गए।’
कुछ समय पहले उज्जैन में महर्षि पाणिनि संस्कृत और वैदिक यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में संबोधन के दौरान इसरो प्रमुख सोमनाथ ने कहा था कि जो लोग कंप्यूटर और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सीखना चाहते हैं, उनके लिए संस्कृत भाषा लाभकारी सिद्ध हो सकती है। उनके अनुसार उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि आठवीं शताब्दी की पुस्तक सूर्य सिद्धांत में सौर ऊर्जा और टाइम स्केल के बारे में बताया गया है। उनका यह भी मानना है कि अरब देशों से होते हुए विज्ञान के हमारे सिद्धांत पश्चिमी देश पहुंचे, जहां उन्होंने इन सिद्धांतों को अलग स्वरूप में पेश कर उन्हें अपना बता दिया। आज जब संस्कृत की महत्ता स्थापित हो गई है तो सभी विश्वविद्यालयों में संस्कृत ज्योतिर्विज्ञान संकाय बनाने की आवश्यकता है। वास्तव में प्राचीन दर्शन और खगोल विज्ञान के सूत्रों पर अनुसंधान का यही श्रेष्ठ अवसर है।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)
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