सोनिया गांधी। 7 अक्टूबर, 2023 को इजरायल में निर्दोष पुरुषों, महिलाओं और बच्चों पर हमास द्वारा किए गए बर्बर हमलों या उसके बाद इजरायली लोगों को लगातार बंधक बनाए रखने को कोई भी उचित नहीं ठहरा सकता। इसकी बार-बार और बिना किसी शर्त निंदा की जानी चाहिए, लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सदस्य और उससे भी बढ़कर एक इंसान होने के नाते यह स्वीकारना हमारी जिम्मेदारी है कि गाजा की जनता पर इजरायली सरकार की प्रतिक्रिया और प्रतिशोध न केवल उग्र रहा है, बल्कि यह पूरी तरह आपराधिक भी है।

पिछले लगभग दो वर्षों में 55,000 से अधिक फलस्तीनी नागरिक मारे जा चुके हैं, जिनमें 17,000 बच्चे शामिल हैं। गाजा में अधिकांश आवासीय इमारतों को जानबूझकर लगातार हवाई बमबारी के जरिये पूरी तरह जमींदोज कर दिया गया है। इनमें अस्पताल भी शामिल हैं। वहां का सामाजिक ढांचा पूरी तरह बिखर चुका है। अक्टूबर 2023 से अब तक की घटनाएं परेशान करने वाली रही हैं। हाल के महीनों में स्थिति और हृदयविदारक हो गई है। हमने देखा है कि किस तरह मानवीय सहायता को भी एक नृशंस रणनीति के तहत हथियार बना दिया गया है।

इजरायली रक्षा बलों ने गाजा की सैन्य नाकेबंदी कर वहां दवाओं, भोजन और ईंधन की आपूर्ति को क्रूर नीयत से बाधित किया है। वहां के बुनियादी ढांचे का अंधाधुंध विनाश और आम नागरिकों का बेरोकटोक नरसंहार एक मानव निर्मित त्रासदी को जन्म दे चुका है। नाकेबंदी ने इसे और भी भयावह बना दिया है। भूख से मरने को मजबूर करने की रणनीति निःसंदेह मानवता के खिलाफ अपराध है।

इस तबाही के बीच इजरायल ने संयुक्त राष्ट्र और अन्य वैश्विक संगठनों से आने वाली मानवीय सहायता या तो सिरे से ठुकरा दी है या उसे रोक दिया है। इंसानियत के हर विचार को विकृत करते हुए इजरायली सैनिकों ने उन तमाम लोगों पर बेरहमी से गोलियां बरसाईं, जो परिवारों के लिए भोजन जुटाने की कोशिश कर रहे थे। खुद संयुक्त राष्ट्र ने इस पर गंभीर चिंता जताई है। इजरायली रक्षा बलों को भी इस भयावह सच्चाई को स्वीकार करना पड़ा है।

गाजा में इजरायल के सैन्य कब्जे को लेकर विशेषज्ञों के लगभग सभी आकलनों के अनुसार यह एक ऐसा अभियान है, जिसका प्रभाव जनसंहार जैसा है और जिसका उद्देश्य गाजा पट्टी से फलस्तीनियों का नस्लीय सफाया करना है। इसका पैमाना और परिणाम 1948 की ‘नकबा’ त्रासदी की याद दिलाता है, जिसमें फलस्तीनियों को उनके घरों से बेदखल किया गया। यह क्रूरता कुछ सबसे घिनौने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए की जा रही है। इनमें औपनिवेशिक मानसिकता से लेकर कुछ लालची रियल एस्टेट कारोबारियों के स्वार्थ भी शामिल हैं।

दुर्भाग्य से गाजा संकट ने वैश्विक व्यवस्था की सबसे गंभीर कमजोरियों को उजागर कर दिया है। गाजा में तत्काल, बिना शर्त और स्थायी युद्धविराम की मांग करने वाले यूएन महासभा के प्रस्तावों को पूरी तरह उपेक्षित कर दिया गया। सुरक्षा परिषद गाजा में आम नागरिकों पर किए जा रहे हमलों और उनके बुनियादी ढांचे के बड़े पैमाने पर विनाश के लिए इजरायली सरकार पर प्रतिबंध लगाने में विफल रही है। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने 26 जनवरी, 2024 को इजरायल को जनसंहार जैसे कृत्य रोकने और नागरिकों तक आवश्यक सेवाएं तथा मानवीय सहायता पहुंचाने के निर्देश दिए थे।

इन्हें भी अनदेखा किया गया। अमेरिका से मिले प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन ने न केवल इजरायल को इन कार्रवाइयों के लिए प्रोत्साहित किया, बल्कि उन्हें संभव भी बनाया। जब अंतरराष्ट्रीय कानून और संस्थाएं लगभग निष्क्रिय हो चुकी हैं, तब गाजा के लोगों के हितों की रक्षा की लड़ाई अब अन्य देशों के जिम्मे आ गई है। दक्षिण अफ्रीका साहसिक कदम उठाते हुए इजरायल को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में ले गया और अब ब्राजील भी इसी प्रयास में शामिल हो गया है।

फ्रांस ने फलस्तीनी राज्य को मान्यता देने का फैसला किया है और ब्रिटेन, कनाडा जैसे देशों ने गाजा में आक्रामकता को बढ़ावा देने वाले इजरायली नेताओं पर प्रतिबंध लगाए हैं। खुद इजरायल के भीतर भी विरोध के सुर तेज हो रहे हैं। उसके एक पूर्व पीएम ने गाजा में इजरायली युद्ध अपराधों की वास्तविकता को माना है। इस मानवीय संकट के प्रति दुनिया भर में उभर रही वैश्विक चेतना के बीच यह एक राष्ट्रीय शर्म की बात है कि भारत इस मानवता के अपमान का मूकदर्शक बना हुआ है।

भारत लंबे समय से वैश्विक न्याय का प्रतीक रहा है। उसने उपनिवेशवाद के खिलाफ वैश्विक आंदोलनों को प्रेरित किया, शीत युद्ध के दौर में साम्राज्यवादी प्रभुत्व के खिलाफ आवाज उठाई और रंगभेद-ग्रस्त दक्षिण अफ्रीका के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय संघर्ष का नेतृत्व किया। जब निर्दोष इंसानों का निर्मम संहार हो रहा है, भारत का अपने मूल्यों से विमुख हो जाना राष्ट्रीय विवेक पर कलंक, हमारे ऐतिहासिक योगदान की उपेक्षा और हमारे संवैधानिक मूल्यों के प्रति एक कायरतापूर्ण विश्वासघात भी है।

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत सरकार से अपेक्षा करते हैं कि वह ‘अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देने, राष्ट्रों के बीच न्यायपूर्ण संबंध बनाए रखने और अंतरराष्ट्रीय कानून तथा संधि-कर्तव्यों के प्रति सम्मान’ के लिए प्रभावी कदम उठाए, लेकिन इजरायल द्वारा अंतरराष्ट्रीय कानून, मानवाधिकारों और न्याय की बुनियादी अवधारणाओं की खुलेआम अवहेलना और उसके समक्ष हमारी वर्तमान सरकार की नैतिक कायरता हमारे संवैधानिक मूल्यों के प्रति कर्तव्यों की उपेक्षा के समान है।

भारत सदैव दो-राज्य समाधान और इजरायल तथा फलस्तीन के बीच न्यायसंगत शांति का समर्थक रहा है। 1974 में, इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारत पहला गैर-अरब देश बना, जिसने फलस्तीन मुक्ति संगठन-पीएलओ को फलस्तीनी जनता के एकमात्र और वैध प्रतिनिधि के रूप में मान्यता दी। 1988 में भारत उन शुरुआती देशों में था, जिन्होंने फलस्तीन को आधिकारिक मान्यता प्रदान की।

इजरायल द्वारा गाजा के लोगों पर लगातार जुल्मों के बीच प्रधानमंत्री मोदी की शर्मनाक चुप्पी बेहद निराशाजनक है। यह नैतिक कायरता की पराकाष्ठा है। समय आ गया है कि वे स्पष्ट और साहसिक शब्दों में उस विरासत की ओर से जोरदार आवाज उठाएं, जिसका प्रतिनिधित्व भारत करता आया है। आज समूची मानवता के सामूहिक विवेक को झकझोरने वाले इस मुद्दे पर ग्लोबल साउथ फिर से भारत के नेतृत्व की प्रतीक्षा कर रहा है।

(लेखिका कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष हैं)