गिरीश्वर मिश्र। स्वस्थ रहना हमारी स्वाभाविक स्थिति होनी चाहिए, पर समकालीन परिवेश में अधिकांश लोगों के लिए यह संभव नहीं हो पा रहा है। शारीरिक रोगों को तो आसानी से पहचान लिया जाता है, परंतु मानसिक रोगों की पहचान और इलाज के लिए विशेष प्रशिक्षण और अध्ययन की आवश्यकता होती है। मनोचिकित्सा को विषय के रूप में मेडिकल कालेजों में साइकियाट्री के अंतर्गत रखा जाता है। इसी से जुड़े विषय क्लिनिकल साइकोलाजी और काउंसिलिंग भी हैं, जो मनोविज्ञान विषय के अंग हैं। भारत में मानसिक स्वास्थ्य सुविधाएं जनसंख्या की दृष्टि से बहुत कम और अपर्याप्त हैं।

क्लिनिकल साइकोलाजी के अध्ययन की कुछ चुनिंदा संस्थाएं हैं, जहां जरूरी और प्रामाणिक प्रशिक्षण दिया जाता है। इस दृष्टि से एमए करने के बाद क्लिनिकल साइकोलाजी में एमफिल की एक प्रोफेशनल डिग्री का प्रविधान किया गया है। इसके अंतर्गत मानसिक स्वास्थ्य और उपचार के लिए छात्रों को गहन सैद्धांतिक और व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके द्वारा मानसिक रोगियों के उपचार के लिए प्रशिक्षुओं को थेरेपी देने के लिए योग्य बनाया जाता है।

नई शिक्षा नीति में एमफिल की डिग्री को बंद करने का फैसला लिया गया है। इसके फलस्वरूप अन्य विषयों की तर्ज पर क्लिनिकल साइकोलोजी में भी एमफिल डिग्री को बंद करना होगा। इस एमफिल डिग्री की उपादेयता को अन्य विषयों में एमफिल के बराबर रख कर देखना घातक है। इसे बंद करने से मानसिक स्वास्थ्य की देख-रेख के लिए जो भी थोड़े बहुत मानव संसाधन तैयार हो रहे थे, वह क्रम रुक जाएगा। यह समाज के लिए बड़ा घातक होगा। सरकार इस पर पुनर्विचार करे।

मानसिक परेशानी के चलते शारीरिक बीमारियां भी होती हैं। इसी तरह शारीरिक रोग से मानसिक रुग्णता पैदा होती है। शरीर और मन को अलग रखना गलत है, क्योंकि स्वास्थ्य और बीमारी, दोनों ही स्थितियों में ये एक संयुक्त इकाई के रूप में ही काम करते हैं। आज बेरोजगारी, सामाजिक अन्याय, पारिवारिक विघटन, जीवन-हानि और गरीबी जैसी स्थितियां आम आदमी के मानसिक स्वास्थ्य के लिए चुनौती बनती जा रही हैं। कंप्यूटर, इंटरनेट और कृत्रिम बुद्धि जैसे तकनीकी हस्तक्षेपों के चलते कामकाज अधिकाधिक स्वचालित होते जा रहे हैं। स्मार्टफोन जैसे उपकरणों के नए-नए माडल शान-शौकत के प्रतीक बनते जा रहे हैं। ऐसे उपकरणों के न होने पर आदमी की हैसियत कम आंकी जाती है, जो मानसिक रोग का एक कारण बन रही है।

वैश्विक स्तर पर हुए स्वास्थ्य-सर्वेक्षणों में दुश्चिंता यानी एंग्जाइटी, फोबिया, बाई-पोलर डिसआर्डर आदि मनोरोगों से ग्रस्त लोगों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। इसके चलते लोग मादक द्रव्य, तंबाकू, मद्यपान और विभिन्न ड्रग्स का सेवन भी तेजी से कर रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रपटें इक्कीसवीं सदी में स्वास्थ्य का भयावह चित्रण कर रही हैं। प्रौढ़ जनसंख्या में एक तिहाई लोग अनिद्रा से ग्रस्त हैं। 1999 के बाद आत्महत्या के मामलों में 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। भारत में 2017 में हुए एक सर्वेक्षण में हर सात में से एक व्यक्ति को किसी न किसी मनोरोग से ग्रस्त पाया गया था।

आज अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं और आर्थिक संसाधन बढ़ने से शरीर की आयु तो बढ़ गई, पर आदमी का मन कमजोर होने लगा है। अल्जाइमर और डिमेंशिया के रोग लोगों में तेजी से बढ़ रहे हैं। अवसाद, शराब की लत, बाई पोलर डिसआर्डर और सिजोफ्रेनिया आज एक महामारी के रूप में उभर रही है। स्थिति की भयावहता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि अकेले उत्तरी अमेरिका में 2022 में 326 अरब डालर अवसाद के उपचार में खर्च हुआ था। वर्ष 2010 में यह खर्च 210.5 अरब डालर था। इस सदी के तीसरे दशक में वैश्विक स्तर पर 16 लाख करोड़ डालर मनोरोगों से जूझने पर खर्च करने होंगे।

सांसारिक सुख-भोग करना सबको प्रिय है। बाजार और विज्ञापन ने सुख को उपभोग से जोड़कर आग में घी डालने का काम किया है। अब हम अपनी ‘सफलता’, विकास और सुख अधिकाधिक उपभोग में देखने के आदी हो गए हैं, परंतु उपभोग की वस्तुओं को एकत्र करते रहने के बावजूद हम तनाव, चिंता, दबाव, अकेलापन, व्यसन या लत, असंतुष्टि, कुंठा जैसी समस्याओं से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। तो फिर स्वस्थ्य रहने के लिए जरूरी क्या है? इस सवाल के जबाव में समुचित आहार (भोजन), विहार (आचरण), निद्रा और चेष्टा (कार्य) को आवश्यक बताया गया है। पांच महाभूत-पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश ही तो हैं, जो हमें रचते हैं और रचना के बाद आकार पाकर हम भी उन्हें प्रभावित करते हैं। इनके साथ संगति और विसंगति से स्वास्थ्य प्रभावित होता है।

हमारा शरीर साध्य भी है और मानसिक अस्तित्व का साधन भी। इसी तरह महात्मा बुद्ध अधिक और कम के बीच का मार्ग अपनाने को कहते हैं। लोक-व्यवहार में भी ‘अति’ वाला आचरण वर्जित माना जाता है। बड़े-बूढ़े अब भी संतुलित जीवन की हिदायत देते हैं। स्वस्थ रहने के लिए जीवनशैली में बदलाव और रोग की स्थिति में उसकी उपेक्षा न कर उसका समाधान करना आवश्यक है। आशा है देश की आवश्यकता को देखते हुए मानसिक स्वास्थ्य के लिए लोक जागरण के साथ उसके अध्ययन की सुविधाओं का विस्तार करने पर भी ध्यान दिया जाएगा।

(लेखक दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर एवं कुलपति रहे हैं)