नई दिल्ली (बद्री नारायण)। नायकों एवं महापुरुषों की प्रतिमाएं स्थापित करने की प्रवृति भारतीय समाज में सर्वत्र देखी जा सकती है। प्रतिमाएं स्थापित करने की यह प्रक्रिया प्राय: सामाजिक समूहों के अस्मिता बोध को जागृत करने एवं आत्म सम्मान बढ़ाने का जरिया मानी जाती है। प्रतिमा स्थलों पर महापुरुषों के जन्म दिन और अन्य स्मृति दिवसों के अवसर पर पूजापाठ, सभा-सम्मेलन आदि आयोजन होते हैं, लेकिन डॉ. भीमराव आंबेडकर सरीखे सामाजिक समता के नायकों की प्रतिमा स्थापना की प्रक्रिया का मात्र यही एक अर्थ नहीं होता। इस प्रक्रिया में अन्य कई अर्थ भी समाहित होते हैं। जो समुदाय महापुरुष अथवा नायक से जुड़े होते हैं या उनसे प्रेरणा पाते हैं वे प्रतिमास्थल को अपने सामाजिक स्पेस के विस्तार के रूप में भी देखते हैं। संबंधित समुदायों के लोग अनेक बार प्रतिमा स्थलों के इर्द-गिर्द बातचीत, गप्प से लेकर सामुदायिक विवादों के समझौते भी करते हैं।

कई बार अपना पक्ष मजबूती से रखने के लिए वहां जाकर शपथ भी खाई जाती है। कई बार किसी बड़े काम को सफलतापूर्वक संपन्न करने के प्रण भी ऐसे स्थलों पर ही लिए जाते हैं। इस तरह प्रतिमा स्थल सामाजिक समूहों के विकसित हो रहे पब्लिक फोरम का हिस्सा हो जाते हैं। डॉ. आंबेडकर के तमाम प्रतिमा स्थल इसी रूप में विकसित हुए हैं। मायावती ने जब उत्तर प्रदेश में अपने शासन के दौरान लखनऊ में दलित महानायकों की मूर्तियां स्थापित कीं और विशेष पार्क बनवाए तो राजनीतिक जगत में इसकी व्यापक आलोचना हुई। इस आलोचना का तापमान इस हद तक बढ़ा कि यह उनके विधानसभा चुनावों में हार के महत्वपूर्ण कारणों में से एक कारण बन कर उभरा। जब ये मूर्तियां स्थापित हुईं तो हम लोगों ने वहां आने-जाने वालों की राय का एक सर्वे किया। उस वक्त उत्तर प्रदेश के दूर देहातों से इन पार्कों में आने वाले दलित समाज के लोग अत्यंत खुश होते थे। उनका कहना था कि राज्य की राजधानी के बीच अपने नायकों की मूर्तियां देख हमारा सीना चौड़ा हो जाता है।

हम यहां आराम से कुछ समय बिताते हैं और थोड़ी चैन की सांस लेते हैं। यहां आकर हमें सुकून तो मिलता ही है, अपने और अपने समाज पर गर्व भी होता है। प्रतिमा स्थलों के सामाजिक स्पेस होने की क्षमता कई बार सामाजिक समूहों में विभाजन भी पैदा करती है। बनारस के पास एक गांव है जयापुर, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गोद लिया है। इस गांव में एक जाटव पट्टी है। जाटव पट्टी की आबादी लगभग 200-250 के आस-पास है। इसी पट्टी में मोदी जी के सहयोग से डॉ. आंबेडकर की एक आदमकद प्रतिमा स्थापित की गई है। इस प्रतिमा की स्थापना के तमाम सकारात्मक परिणाम तो हैं ही, इसके कारण जाटव समाज में कुछ विवाद भी उत्पन्न हुआ। जाटव पट्टी इस प्रतिमा को लेकर दो भागों में विभाजित है। एक पक्ष का कहना है कि प्रतिमा के पास की खाली जगह का फायदा उसके आसपास के परिवारों को ही मिल रहा है और वे लोग उस सामूहिक भूमि के इस्तेमाल से वंचित होते जा रहे हैं। यह जानना रोचक है कि इसी गांव में मुसहर बस्ती को अटल नगर नाम से विकसित किया गया है। इस अटल नगर में मुसहर जाति के जो लोग पहले झोपड़ियों में रहते थे, अब फ्लैट में रह रहे हैं, जो सोलर लाइट एवं पानी की आपूर्ति व्यवस्था से लैस हैं।

यहां भी एक छोटा मंदिर है, जिसमें अन्य देवताओं के साथ-साथ शबरी की भी एक छोटी मूर्ति लगी है। कहते हैं कि भगवान राम ने इन्हीं शबरी की भक्ति से प्रभावित होकर उनके जूठे बेर खाए थे। इस मंदिर के आस-पास सघन वृक्ष लगाए गए हैं। प्राय: शाम को समुदाय के लोग यहां बैठकर अपना दुख-सुख बतियाते हैं। मुसहर जाति शबरी को अपनी कुलदेवी मानता है, किंतु एक नया परिवर्तन यह देखने को मिल रहा है कि अब रामनवमी के दिन अन्य जातियों के लोग भी यहां आकर शबरी की पूजा करने लगे हैं। वे इसे एक सिद्ध मंदिर मानते हैं। इस मंदिर का कोई पुजारी नहीं है। मंदिर में जो थोड़े-बहुत पैसे एवं प्रसाद चढ़ाया जाता है उसे मुसहर जाति के लोग आपस में वितरित कर लेते हैं। इस प्रकार प्रतिमाओं के आस-पास बने स्थल सामाजिक अर्थ में कुछ नया भी जोड़ते हैं। यह जुड़ाव सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही प्रकार का होता है। यह किसी से छिपा नहीं कि प्राय: प्रतिमाओं के आस-पास की जमीन के अतिक्रमण को लेकर विवाद खड़े हो जाते हैं। गांवों और कस्बों में स्थापित आंबेडकर की प्रतिमाओं को लेकर उभरने वाले जमीन के विवाद नए नहीं हैं, लेकिन कभी-कभी उनमें तेजी भी देखने को मिलती है।

जब हम लोगों ने आंबेडकर की प्रतिमाएं बनाने-बेचने वालों से बात की तो पता चला कि इन प्रतिमाओं की खरीद पुलिस भी करती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि जब कभी किसी विवाद के कारण कहीं पर आंबेडकर की प्रतिमा को नुकसान पहुंचाया जाता है तो पुलिस क्षतिग्रस्त प्रतिमा हटाकर आनन-फानन नई प्रतिमा स्थापित कर देती है। ध्यान रहे कि दलितों में लगातार विकसित हो रही चेतना और उनकी प्रतिरोधी प्रवृति के प्रतीकात्मक दमन के लिए भी कई बार आंबेडकर की प्रतिमाओं को नुकसान पहुंचाया जाता है। इन प्रतिमाओं को नुकसान पहुंचाने का एक कारण समाज के अन्य वर्गों के लोगों का वैमनस्य भी होता है। जहां भी नायकों की प्रतिमाएं होती हैं वहां सामाजिक स्पेस का सृजन होने के साथ सामाजिक जीवन में जीवंतता भी आती है। कांशीराम कहा करते थे कि मैंने महाराष्ट्र से सीखा कि आंबेडकरवादी आंदोलन कैसे नहीं चलाया जाना चाहिए। महाराष्ट्र में आंबेडकर प्रतिमा स्थलों पर कुछ आयोजन तो होते हैं, पर वहां दलित समुदाय के दैनंदिन जीवन का जुड़ाव कम होता है।

नायकों एवं महापुरुषों के प्रतिमा स्थल समुदायों के दैनंदिन विमर्श के स्थल के रूप में विकसित होने चाहिए। वे विभिन्न सामाजिक समूहों के साझा विमर्श के केंद्र बन सकें तो और भी बेहतर। महापुरुषों की प्रतिमाओं के स्थल ही नहीं, विभिन्न देवी-देवताओं के स्थान-स्थान पर बने मंदिरों के आसपास की जगहों का भी एक सामाजिक महत्व है। ऐसे समुदायों के लिए ऐसे स्थलों का खास अर्थ है जो भूमिहीन हैं अथवा जिनके घर छोटे हैं या फिर जिनके पास चौपाल या बैठक का स्थान नहीं है। ऐसे सामाजिक समूहों के लिए प्रतिमा स्थल ही खुली हवा में सांस लेने की एक ऐसी जगह हैं जहां वे दुनिया-जहान की बातें अथवा विभिन्न समस्याओं पर चर्चा कर सकते हैं। बिहार के मिथिला में अनेक जगहों पर पीपल के पेड़ के नीचे बने दुसाध जाति के नायक सहलेस के स्थान हैं, जिन्हें गहवर कहा जाता है। ये स्थान भी एक तरह के सामाजिक केंद्र हैं। बिहार के मगध क्षेत्र में बने चूहड़मल के मंदिर दीना-भद्री के आसपास के स्थान सीमांत पर बसे सामाजिक समूहों के लिए आस्था, सामाजिक अस्मिता बोध के केंद्रों के साथ सामुदायिक केंद्र भी हैं। इन्हें मात्र अस्मिता की राजनीति के चश्मे से देखने से इनमें निहित कई सामाजिक अर्थ कहीं खो जाएंगे। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि ऐसे अर्थ बचे रहें। ऐसे अर्थों से ही सामाजिक समूहों को प्रेरणा और शक्ति मिलती है।

 

(लेखक समाजशास्त्री एवं गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक हैं)