डा. वर्तिका नंदा: भारतीय जेलों के लिए एक अच्छी खबर आई है। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस बार आम बजट में देश के गरीब कैदियों के लिए विशेष एलान किया है। उन्होंने जेलों में बंद गरीब कैदियों पर लगाए गए जुर्माने और जमानत पर आने वाली लागत का पैसा सरकार की तरफ से दिए जाने की घोषणा की है। वित्त मंत्री के अनुसार, जेलों में बंद गरीब कैदियों को जमानत लेने के लिए जो भी खर्च करना होगा, उसे सरकार वहन करेगी। यह महत्वपूर्ण है कि देर से ही सही, सरकार ने जेलों में बड़ी संख्या में बंद गरीब कैदियों का खास ध्यान रखा। स्मरण रहे कि देश भर की जेलों में ऐसे हजारों कैदी बंद हैं, जिनके पास जमानत लेने के लिए या उन पर लगाए गए जुर्माने की राशि चुकाने के लिए पैसे नहीं हैं, जबकि उनकी कैद की अवधि या तो पूरी हो चुकी है या फिर वे विचाराधीन हैं। इससे बेहतर और कुछ नहीं कि ऐसे कैदियों के लिए भारत सरकार ने मदद का हाथ बढ़ाया।

यह भी उल्लेखनीय है कि बजट के ठीक पहले दिल्ली में संपन्न हुई सभी राज्यों के पुलिस और अर्धसैनिक संगठनों के प्रमुखों की वार्षिक सुरक्षा बैठक में भी जेलों की स्थिति चर्चा में रही। हालांकि इस बात पर भी जोर रहा कि पुलिस छोटे अपराधों पर भी उतना ही ध्यान दे, जितना कि बड़े अपराधों पर, लेकिन साथ ही जेल में पहुंच चुके लोगों के लिए जेलों का मजबूत और मानवीय, दोनों ही बने रहना जरूरी है। बाद में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी जेलों के अच्छे कामों को बाहरी दुनिया से साझा करने पर जोर दिया। भारत की करीब 1,400 जेलों में संगठनात्मक और व्यावहारिक बदलाव की चर्चाओं के बीच नार्वे की राजधानी ओस्लो की जेल का जिक्र प्रासंगिक लगता है। इससे कई बातें सीखी जा सकती हैं।

ओस्लो की यह जेल शहर के बीचों-बीच होते हुए भी कहीं से जेल का कोई आभास नहीं होने देती। जेल के मुख्य द्वार के सामने से रोजाना की तरह गाड़ियां आती-जाती हैं और लोग भी। जेल के मुख्य दरवाजे में काफी खुलापन है, भारतीय जेलों से बिल्कुल अलग। वहां की जेल में इस समय कुल 125 बंदी हैं और 108 का जेल स्टाफ यानी कि अनुपात तकरीबन बराबर। मुझे नहीं लगता कि भारत की किसी भी जेल में अमूमन ऐसा होता होगा। जेल के रिसेप्शन तक जाने के रास्ते में चार अलग-अलग रंगों की धारियां दिखाई देती हैं। जमीन पर रंगों के अलग-अलग संयोजन को देखकर यह समझ में आता है कि इसके पीछे कोई वजह है। जेल अधिकारी बताते हैं कि ये आपातकालीन धारियां हैं। पुलिस जिन लोगों को जेल तक लाती है और जो लोग जेल से रिहा हो जाते हैं, वे दोनों ही इसी हिस्से से गुजरते हैं। वहीं की जेल में कुल 11 यूनिट्स हैं। इनमें से एक यूनिट ड्रग्स से जुड़े हुए मामलों की है।

नार्वे में जेल को फिंगल कहा जाता है। ओस्लो की वह जेल 1852 में बनी थी। इस समय वहां करीब 70 प्रतिशत बंदी ऐसे हैं, जो जेल में अपनी सजा भुगत रहे हैं और 30 प्रतिशत ऐसे हैं जो जेल के बाहर हैं और अपनी सजा का इंतजार कर रहे हैं। वे जेल के अंदर तब आएंगे, जब जेल के अंदर जगह होगी। इसे उनका ‘वेटिंग पीरियड’ कहा जाता है। यानी जेल में क्षमता से अधिक कैदियों की कोई समस्या वहां देखने को नहीं मिलती। इतना ही नहीं, आदतन अपराधियों को रिहा करने के समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि खुफिया एजेंसियां उन पर नजर रखें। ऐसे अपराधी को दो-तिहाई सजा पूरी कर लेने के बाद ही जेल से बाहर निकलने का मौका मिलता है, लेकिन अगर वे फिर से अपराध करते हैं तो उन्हें फिर से सजा हो जाती है। जेल में बंदियों के लिए यूनिफार्म का कोई प्रविधान नहीं है।

आमतौर पर जेल में बंदी 140 दिन गुजारते हैं। विदेशी बंदियों के लिए कई बार मियाद बढ़ जाती है और वह तीन साल तक हो जाती है। किशोर अपराधी आमतौर पर एक दिन से ज्यादा समय के लिए जेल में नहीं रखे जाते। नार्वे की किसी भी जेल में महिलाओं और पुरुषों के साथ बच्चों के रहने की अनुमति नहीं है। ऐसा भारत में नहीं होता, भारत में मां और पिता अपने साथ चाहें तो छह साल की उम्र तक बच्चे को जेल में रख सकते हैं। इसी तरह नार्वे में फांसी का भी प्रविधान नहीं है। यही वजह है कि किसी भी जेल में फांसी घर नहीं पाया जाता। बंदियों द्वारा बनाए गए विभिन्न सामानों को बिक्री के लिए बाहर रखा जाता है। उससे जो संसाधन जुटते हैं, उन्हें जेल पर ही खर्च करके वहां सुविधाओं को बढ़ाने में मदद मिलती है।

भारतीय जेलों के लिए विदेश की कई जेलों से सीखने के लिए अपार संभावनाएं हैं और वे भी हमसे कुछ सीख सकते हैं। यह सभी पक्षों के लिए लाभदायक होगा कि वे परस्पर अनुभवों पर गौर करें। नार्वे जैसे छोटे देश में लोगों में कानून के प्रति सम्मान है। वे सजा को गंभीरता से लेते हैं। उनकी जेलें भीड़ से बची हुई हैं, लेकिन जेल में खुली हवा में सांस लेने के लिए भी नियम और कायदे का पालन करना पड़ता है। भारत से विपरीत नार्वे की जेलों में संवाद की सुविधा सीमित है। वैसे अब भारत में जेलों को लेकर चर्चा होने लगी है, लेकिन इनकी गंभीरता और जेल को लेकर संजीदगी-दोनों मामलों में परिपक्वता आने में अभी समय लगेगा। जेलों की सेहत गरीब बंदियों की जमानत और उन पर हो रहे सम्मेलन भर से नहीं, बल्कि नीयत और ईमानदारी के भाव से ही सुधर सकेगी। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि जेलों की दशा सुधारने के लिए बहुत कुछ किया जाना शेष है।

(लेखिका जेल सुधारक एवं जेलों पर एक अनूठी शृंखला तिनका-तिनका की संस्थापक हैं)