छह दिसंबर को डॉ. बीआर अंबेडकर का महापरिनिर्वाण दिवस है। अंबेडकर का राजनीति, धर्म, सामाजिक सुधार और राष्ट्र निर्माण में योगदान सर्वविदित है। इसके अलावा वह एक अकादमीशियन भी थे, जिन्होंने राजनीति शास्त्र, सामाजिक शास्त्र, दर्शन, धर्म, एंथ्रोपोलॉजी और न्यायशास्त्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया, परंतु उनके एक पहलू का जिक्र बहुत ही कम होता है कि वह एक अर्थशास्त्री भी थे। 1907 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात वह बॉम्बे विश्वविद्यालय के एलफिंस्टोन कॉलेज में दाखिला लेने वाले दलित समाज के पहले छात्र बने। वहां से उन्होंने अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद वह 22 साल की आयु में बड़ौदा के महाराज द्वारा प्रदत्त छात्रवृत्ति से अमेरिका के प्रतिष्ठित कोलंबिया विश्वविद्यालय में एमए की पढ़ाई करने गए। वहां पर उन्होंने 1915 में अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर किया और 1917 में अर्थशास्त्र में ही पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए कोलंबिया विश्वविद्यालय में बिताए तीन वर्षों में उन्होंने अर्थशास्त्र के 29, इतिहास के 11, सामाजिक शास्त्र के छह, दर्शन के 55, एंथ्रोपोलॉजी के चार और राजनीति शास्त्र के तीन पाठ्यक्रम संपूर्ण किए। इसके अलावा उन्होंने फ्रेंच और जर्मन का प्राथमिक पाठ्यक्रम भी किया। कोलंबिया विश्वविद्यालय से पीएचडी के पश्चात उन्होंने लंदन स्कूल आफ इकोनॉमिक्स से 1923 में अर्थशास्त्र में पुन: डॉक्टरेट की डिग्री अर्जित की। दरअसल अंबेडकर अर्थशास्त्र में पीएचडी करने वाले पहले भारतीय थे।
भारतीय अर्थव्यवस्था की समस्या, वित्तीय प्रणाली और रुपये पर उनके कई महतवपूर्ण काम हैं। उनके द्वारा तीन बड़े काम हैं-‘ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रशासन और वित्तीय प्रबंध’, ‘ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त व्यवस्था का विकास’ और ‘रुपये की समस्या-उद्भव और समाधान’। लोग दादा भाई नौरोजी की 1901 में प्रकाशित प्रसिद्ध पावर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया से परिचित हैं, जो विश्व में साम्राज्यवाद के आर्थिक आधार का पहला खंडन था और वह भी एक ऐसे समय जब यह तर्क होता था कि साम्राज्यवाद भारत जैसे देशों की आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यक हैं। परंतु कम ही ज्ञात है कि अंबेडकर द्वारा लिखा गया ‘ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रशासन और वित्तीय प्रबंध’ भी भारत में ब्रिटिश शासन की विस्तृत आर्थिक आलोचना है। इसमें तथ्यों और आंकड़ों के आधार पर उन्होंने यह साबित किया कि ब्रिटिश शासन भारत की जनता की बर्बादी और गरीबी का वाहक है। इसकी सारी नीति भारत से धन संपदा को बाहर ले जाने वाली रही है। भारत के औद्योगिक ढांचे को बर्बाद करना और इसे ब्रिटेन को कच्ची सामग्री देने वाला देश बनाना इसका लक्ष्य रहा है। यही नहीं ब्रिटेन के अन्य उपनिवेशों की तुलना में भी भारत के साथ भेदभाव किया जाता था। भारत में मूलभूत आधारिक संरचना, शिक्षा, स्वास्थ्य इत्यादि पर खर्च कम करके ब्रिटेन के साम्राज्यवादी युद्धों के लिए सेना पर संसाधन लगाना एक प्रमुख नीति थी।
1925 में अंबेडकर ने ‘ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त व्यवस्था का विकास’ नामक पुस्तक प्रकाशित की। इसमें उन्होंने केंद्र और प्रांतों के आर्थिक रिश्तों की 1833 से 1921 तक की समीक्षा की, जिसके लिए उन्होंने 1792 से आंकड़ों का संकलन और विश्लेषण किया। आधुनिक भारत की वित्तीय प्रबंधन व्यवस्था, टैक्स के सिद्धांत, प्रांतीय राजस्व की समस्या और केंद्र-राज्य के अधिकार और रिश्तों पर यह महतवपूर्ण कार्य है। और इसमें कोई शक नहीं कि अंबेडकर की इस विशेषज्ञता ने संविधान निर्माण के समय महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यहां पर उन्होंने पुन: दिखाया है कि किस प्रकार से ब्रिटिश शासन की टैक्स प्रणाली सिर्फ गरीब और किसानों पर राजस्व का भार डालती थी और जन कल्याण के बजाय जमींदारों, संभ्रांत तबके की जीवन शैली और ब्रिटिश शासन को पोषित करने के लिए निर्मित थी।
1923 में प्रकाशित ‘रुपये की समस्या- उद्भव और समाधान’ अंबेडकर की एक और महत्वपूर्ण पुस्तक है। इसमें उन्होंने 19वीं शताब्दी से भारतीय मुद्रा प्रणाली के विकास की विवेचना की है और भारत के लिए किस प्रकार की मुद्रा प्रणाली उपयुक्त है, इसका सुझाव रखा है। उन्होंने मुद्रा के मूल्य की स्थिरता को अत्यंत आवश्यक माना है और वित्तीय नीति के आय वितरण एवं विषमता पर होने वाले प्रभाव पर प्रकाश डाला है। उन्होंने तर्क दिया है कि सरकार की नोट छापने की शक्ति सीमित होनी चाहिए नहीं तो सरकारों को नोट छापकर रुपये के मूल्य को बर्बाद करने से रोका नहीं जा सकता है। उनकी यह आशंका स्वतंत्रता के पश्चात और 1991 के आर्थिक सुधारों से पहले के कालखंड में सही साबित हुई जब सरकारी घाटे को पूरा करने के लिए बेलगाम छापे जा रहे नोटों से जनित मुद्रास्फीति से रुपये का मूल्य अस्थिर हो चुका था। हालांकि अंबेडकर ने कृषि की आर्थिक समस्या से संबंधित विषयों पर अधिक शोधपत्र नहीं लिखे थे, परंतु उनका 1918 का शोधपत्र आज भी सार्थक है। इसमें उन्होंने यह दिखाया था कि खेती की उत्पादकता सिर्फ जमीन और खेतों के आकार पर ही नहीं, बल्कि उत्पादन के अनेक कारकों पर निर्भर करती हैं। इसीलिए भारत में कृषि में पूंजी निवेश की सबसे ज्यादा आवश्यकता है, क्योंकि ब्रिटिश राज में इस क्षेत्र में पूंजी निवेश गिरा है। परंतु यह कार्य आजादी के बाद ही हो पाया जब सत्तर के दशक में सरकार द्वारा कृषि में पूंजी निवेश को प्रोत्साहित किया गया, जिसका नतीजा हरित क्रांति के रूप में सामने आया। उन्होंने तर्क दिया कि कृषि में आवश्यकता से अधिक श्रमिक कार्य कर रहे हैं, जिनके होने या न होने से उत्पादकता पर कोई फर्क नहीं पड़ता। यह प्रच्छन्न बेरोजगारी का सिद्धांत है, जिसे अंबेडकर ने तभी चिन्हित कर लिया था, जबकि अर्थशास्त्र की मुख्यधारा में यह करीब तीन दशक बाद प्रचलित हुआ जब नोबेल विजेता आर्थर लुइस ने इसे प्रचारित किया। अंबेडकर के अनुसार इसका एक ही समाधान है-औद्योगीकरण। औद्योगीकरण ही कृषि में लगी अतिरिक्त श्रमिक आबादी को सार्थक रोजगार दे सकता है और उसे गरीबी से निकलने में सहायक होगा।
अंबेडकर का आर्थिक क्षेत्र में योगदान दो भागों में बांटा जा सकता है। पहला अकादमिक जिसका थोड़ा विवरण यहां पर दिया गया है और दूसरा प्रशासक के तौर पर जब उन्होंने भारत की वित्तीय व्यवस्था से लेकर दामोदर, हीराकुंड जैसी नदी घाटी परियोजनाओं को बनाने में महतवपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी शिक्षा और प्रशिक्षण एक अर्थशास्त्री के रूप में हुआ था, परंतु यह आश्चर्य की बात हैं कि उनके इस पहलू को अधिकतर नजरअंदाज किया जाता है, जिसे स्मरण रखने की आवश्यकता हैं।
[ लेखक अभिनव प्रकाश, दिल्ली विवि में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं ]