जागरण संपादकीय: हरियाणा में शह-मात और भितरघात, नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं छोटे दल
कांग्रेस-भाजपा के घोषणापत्रों की बात करें वे आसपास खुली दो दुकानों पर लगे एक-दूसरे से ज्यादा ‘आकर्षक सेल’ के विज्ञापन जैसे नजर आते हैं पर मतदाता दोनों को दस-दस साल देख चुके हैं। इसलिए चुनावी वादों को अनुभव की कसौटी पर भी कसा जाएगा। कुछ धारणाओं की चर्चा अक्सर होती है। मसलन हरियाणा के मतदाता किसी को जिताने के लिए नहीं बल्कि किसी को हराने के लिए वोट करते हैं।
राज कुमार सिंह। हरियाणा को हल्के में लेना अक्सर भारी पड़ जाता है। नामांकन वापसी और घोषणापत्र जारी होने के बाद की तस्वीर बताती है कि चुनाव एकतरफा नहीं होने जा रहा। दलबदल, टिकट वितरण और लोकलुभावन वादों से भी साफ है कि सत्ता के दावेदार चुनावी बिसात पर कोई कसर नहीं छोड़ने वाले। ऐसे में भितरघात के चलते सत्ता कोई भी करवट ले सकती है। कुछ विरोधी टिकट वितरण में निपटा दिए गए तो कुछ को चुनाव में ठिकाने लगाया जा सकता है। बेशक सत्ता के प्रमुख दावेदार भाजपा और कांग्रेस ही हैं, लेकिन मुकाबला बहुकोणीय होगा। अन्य दलों-निर्दलियों की भूमिका इनका खेल बनाने-बिगाड़ने की ज्यादा रहेगी।
यदि कांग्रेस और भाजपा के घोषणापत्रों की बात करें तो वे आसपास खुली दो दुकानों पर लगे एक-दूसरे से ज्यादा ‘आकर्षक सेल’ के विज्ञापन जैसे नजर आते हैं, पर मतदाता दोनों को दस-दस साल देख चुके हैं। इसलिए चुनावी वादों को अनुभव की कसौटी पर भी कसा जाएगा। कुछ धारणाओं की चर्चा अक्सर होती है। मसलन, हरियाणा के मतदाता किसी को जिताने के लिए नहीं, बल्कि किसी को हराने के लिए वोट करते हैं। यह भी कि राज्य के मतदाता अमूमन उसी दल या गठबंधन को वोट करते हैं, जिसकी केंद्र में सरकार होती है या फिर बनने वाली होती है। ऐसे में कुछ स्वाभाविक सवाल हैं। मसलन 2019 के विधानसभा चुनाव में मतदाताओं ने किसे हराने के लिए वोट किया था? कांग्रेस की जीत की संभावनाएं तब भी बताई गई थीं। फिर वह सबसे बड़े दल के रूप में उभरी भाजपा से भी नौ सीटें पीछे कैसे रह गई?
अब केंद्र में राजग सरकार है और अगले लोकसभा चुनाव 2029 में होंगे। ऐसे में हरियाणा के मतदाता किसे चुनेंगे? कई बार साबित हो चुका है कि भारत जैसे विविधतापूर्ण एवं बहुलतावादी देश में मतदाताओं का मन भांपना या उसे किन्हीं परंपराओं-धारणाओं में कैद करके देखना चुनावी पंडितों की खामख्याली भर है। क्या किसी ने 2019 में भविष्यवाणी की थी कि नवगठित जजपा ‘किंग मेकर’ साबित होगी? तब भाजपा ने ‘अब की बार, 75 पार’ का नारा दिया था। जजपा ने जवाब में भाजपा को ‘यमुना पार भेजने’ का नारा दिया था, लेकिन त्रिशंकु विधानसभा बनी तो दोनों ने गठबंधन कर लिया। साढ़े चार साल गठबंधन सरकार चलाने के बाद रास्ते अलग हो गए तो अब फिर एक दूसरे के विरुद्ध ताल ठोकी जा रही है।
इसमें दो राय नहीं कि भाजपा के विरुद्ध दस साल की सत्ता विरोधी भावना के चलते इस बार कांग्रेस के लिए स्थितियां अपेक्षाकृत अनुकूल हो सकती हैं, लेकिन इस अतीत को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस जीती हुई बाजी हारने में माहिर हो चली है तो भाजपा हारी हुई बाजी जीतने में भी कोई कसर नहीं छोड़ती। दरअसल, भाजपा के लिए कांग्रेस से बड़ी चुनौती किसान आंदोलन, अग्निवीर योजना और महिला पहलवानों के धरना-प्रदर्शन से अपने विरुद्ध बना जनमानस है, क्योंकि सत्ता विरोधी भावना पांच साल से बढ़कर दस साल हो जाने के अलावा तो कांग्रेस के पक्ष में और कुछ नहीं। हां, इस बीच भूपेंद्र सिंह हुड्डा के बढ़ते वर्चस्व के चलते कुलदीप बिश्नोई और किरण चौधरी सरीखे दिग्गज कांग्रेस को अलविदा अवश्य कह गए हैं। अभी भी कांग्रेस में मौजूद दो राष्ट्रीय महासचिव कुमारी सैलजा और रणदीप सिंह सुरजेवाला मुख्यमंत्री पद के लिए ताल ठोक ही रहे हैं।
अंतर्कलह का आलम यह है कि एक दशक से भी ज्यादा समय से कांग्रेस हरियाणा में बिना संगठन चुनाव लड़ रही है। सांसदों को विधानसभा चुनाव न लड़वाने की नीति के नाम पर सैलजा और सुरजेवाला को तो टिकट नहीं ही मिला और उनके समर्थकों को भी टिकट देने में कंजूसी की गई। नतीजतन, चुनाव प्रचार में सैलजा और सुरजेवाला ज्यादा सक्रिय नजर नहीं आ रहे। टिकटों में लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा बताता है कि हुड्डा कांग्रेस के लिए अपरिहार्य हैं। टिकट वितरण के मामले में भाजपा में भी आंतरिक असंतोष-आक्रोश कम नहीं। आप, सपा और माकपा को कुछ सीटें देकर विपक्षी मोर्चे आइएनडीआइए की एकता की तस्वीर पेश करने से जुड़े राहुल गांधी के सोच की अंतिम परिणति यह हुई कि आप और सपा को धता बताकर दशकों से हरियाणा में बेअसर माकपा के लिए एक सीट छोड़ दी गई।
बेशक कुछ सीटों पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ही बागियों को मनाने में सफल रही हैं, लेकिन फिर भी राह निष्कंटक नहीं। ‘अपनों’ से ज्यादा ‘गैरों’ पर भरोसा जताना भी पार्टियों को भारी पड़ सकता है। अंबाला का मामला बेहद दिलचस्प है। पूर्व मंत्री निर्मल सिंह की हुड्डा से निकटता छिपी नहीं है। जब सैलजा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थीं तो निर्मल सिंह ने अपनी बेटी चित्रा सरवारा के साथ पार्टी छोड़कर अलग संगठन बना लिया था। बाद में वह आप में चले गए। आप में उन्हें महत्व भी मिला, लेकिन हुड्डा का वर्चस्व बढ़ता देख पिता-पुत्री कांग्रेस में वापस लौट आए। कांग्रेस ने निर्मल को अंबाला शहर से टिकट भी दे दिया, लेकिन उनकी बेटी चित्रा अंबाला कैंट से निर्दलीय उम्मीदवार बन गई हैं। पिछली बार निर्दलीय लड़कर चित्रा 44 हजार वोट पाने में सफल रही थीं और भाजपा उम्मीदवार अनिल विज 20 हजार वोटों से जीत गए थे। जमानत मिलने और दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद अरविंद केजरीवाल ‘हरियाणा का बेटा’ बनकर जब चुनाव प्रचार करेंगे तो सत्ता विरोधी वोटों का विभाजन बढ़ेगा ही, जिससे कांग्रेस को नुकसान और भाजपा को लाभ होगा। पिछली बार लगभग एक दर्जन सीटों पर हार-जीत का अंतर ज्यादा नहीं था। ऐसे में जीतें भले नहीं, लेकिन आप तथा इनेलो-बसपा-हलोपा और जजपा-असपा गठबंधनों को मिलने वाले वोट नतीजों को प्रभावित तो कर ही सकते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)