जागरण संपादकीय: उनकी भी सुनें, जिनकी सुनवाई नहीं; SC-ST आरक्षण में उपवर्गीकरण लागू करने की मांग करने वालों की अनदेखी उचित नहीं
विडंबना यह है कि एससी-एसटी आरक्षण में उपवर्गीकरण के फैसले का विरोध करने वाले वे भी हैं जो यह नारा लगाते हैं कि जिसकी जितनी संख्या भारी-उसकी उतनी हिस्सेदारी। भले ही ऐसे लोग एससी-एसटी वर्ग की एकता की कितनी भी दुहाई दें सच यह है कि इन दोनों वर्गों में अनेक ऐसी जातियां हैं जो आरक्षण के लाभ से वंचित हैं।
राजीव सचान। इससे सभी भली तरह परिचित हैं कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का कई दलों और संगठनों की ओर से विरोध किया जा रहा है कि एससी-एसटी आरक्षण में उपवर्गीकरण को लागू करना संविधानसम्मत है, लेकिन आखिर इससे कितने लोग अवगत हैं कि इस फैसले का स्वागत करने वाले भी हैं। इनमें मुख्यतः एससी-एसटी समाज की वंचित जातियों के संगठन हैं।
वंचित जातियों के ये संगठन एससी-एसटी आरक्षण में उपवर्गीकरण के फैसले का स्वागत करने के साथ ही उसे लागू करने की मांग भी कर रहे हैं, लेकिन उनकी आवाज कठिनाई से ही सुनी जा रही है, क्योंकि कोई प्रमुख दल या संगठन उनके पक्ष में खड़ा होने के लिए तैयार नहीं। उत्तर भारत में ले-देकर जीतनराम मांझी का दल ही एससी-एसटी आरक्षण में उपवर्गीकरण का समर्थन कर रहा है।
मायावती, चिराग पासवान और चंद्रशेखर जैसे नेताओं की ओर से सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध ही नहीं किया गया, बल्कि भारत बंद के जरिये सड़कों पर उतरकर नाराजगी भी जताई गई। वैसे तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के समर्थन में भी कई संगठन सड़कों पर उतर रहे हैं, लेकिन उनकी सक्रियता मीडिया के एक बड़े हिस्से में दर्ज ही नहीं हो पा रही है।
इसी 10 सितंबर को वाल्मीकि समाज के लोगों ने अशोक अज्ञानी की पहल पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करने को लेकर दिल्ली में जंतर-मंतर पर सत्याग्रह किया, लेकिन इसकी जानकारी शायद ही किसी को हुई हो। इसी तरह झालावाड़ में राजस्थान समग्र भील वर्ग ने एससी-एसटी आरक्षण में उपवर्गीकरण लागू करने की मांग को लेकर अरविंद भील के संयोजन में एक बड़ा जुलूस निकाला। इसमें करीब 25 हजार लोग शामिल हुए, लेकिन वह स्थानीय मीडिया में ही दर्ज होकर रह गया।
यही स्थिति अन्य अनेक शहरों में हुए आयोजनों को लेकर रही। एससी-एसटी समाज की वंचित जातियों के छोटे-बड़े संगठन ऐसे आयोजन अब भी कर रहे हैं, लेकिन उनकी ओर न तो जनता का ध्यान जा रहा है और न ही सरकारों का। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जो राजनीतिक दल पहले कभी एससी-एसटी आरक्षण में उपवर्गीकरण का समर्थन किया करते थे, उन्होंने या तो चुप्पी साध ली है या फिर अपने रुख को स्पष्ट करने से इन्कार कर रहे हैं।
कांग्रेस कह रही है कि इस पर हम मंत्रणा कर रहे हैं, जबकि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद तेलंगाना के कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने उसका स्वागत किया था। इस फैसले का स्वागत करने वालों में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी हैं, लेकिन चिराग पासवान इस फैसले के विरोध में उतर आए हैं।
एक-दो क्षेत्रीय दलों को छोड़कर अधिकांश क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय दल इस फैसले का विरोध कर रहे हैं या मौन धारण किए हैं। विरोध करने वाले यह तर्क दे रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला एससी-एसटी समाज की एकता खत्म करने वाला है। आखिर यह कैसी एकता है, जिसमें एससी-एसटी समाज के हितों की चिंता करने वाले ही यह देखने को तैयार नहीं कि उनके बीच आरक्षण के लाभ से वंचित जातियां भी हैं।
इन दोनों वर्गों की वंचित जातियों के कई संगठन एससी-एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर की व्यवस्था लागू करने के भी पक्षधर हैं, लेकिन ऐसा होने के आसार कम ही हैं, क्योंकि एक तो सुप्रीम कोर्ट ने इसकी आवश्यकता भर जताई है और दूसरे राजनीतिक कारणों से कोई भी और यहां तक कि केंद्र सरकार भी इस पर अमल करने को तैयार नहीं। अधिकांश दल यह कहते हुए इसके विरोध में आ गए हैं कि संविधान में क्रीमी लेयर के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। यदि ऐसा है तो ओबीसी आरक्षण में क्रीमी लेयर कैसे लागू है?
एससी-एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर सिद्धांत लागू करने के विरोध में यह भी कहा जा रहा है कि उच्च पदों पर पहुंच गए एससी-एसटी समाज के लोगों से भी भेदभाव होता है। इससे इन्कार नहीं, लेकिन इसका अर्थ है कि आरक्षण पिछड़े तबकों के उत्थान का जरिया भले हो, उनके साथ होने वाले भेदभाव को दूर करने का कारगर उपाय नहीं।
स्पष्ट है कि भेदभाव को दूर करने के लिए केवल आरक्षण पर आश्रित नहीं रहा जा सकता। इसे दूर करने के लिए सरकारों और समाज को कुछ और करना होगा। इसके लिए एससी-एसटी समाज की अपेक्षाकृत समर्थ जातियां और इस समाज के हितों की बातें करने वालों को भी सक्रिय होना होगा, क्योंकि यह एक सच्चाई है कि एससी-एसटी समाज की वंचित जातियों से इन वर्गों की वे जातियां भी दूरी बनाकर रखती हैं, जिनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर है और जो राजनीतिक रूप से भी प्रभावी हैं।
इसका एक प्रमाण यह है कि जब एससी-एसटी समुदाय की वंचित जातियों के संगठन आरक्षण में उपवर्गीकरण लागू करने पर बल देने के लिए अपने कार्यक्रमों में ज्यादा से ज्यादा संख्या में लोगों के आने की अपील कर रहे थे तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करने वाले दलों और संगठनों के समर्थक एक्स, फेसबुक आदि प्लेटफार्म पर उन पर तंज कस रहे थे और उन्हें इनका या उनका एजेंट बता रहे थे।
विडंबना यह है कि एससी-एसटी आरक्षण में उपवर्गीकरण के फैसले का विरोध करने वाले वे भी हैं, जो यह नारा लगाते हैं कि जिसकी जितनी संख्या भारी-उसकी उतनी हिस्सेदारी। भले ही ऐसे लोग एससी-एसटी वर्ग की एकता की कितनी भी दुहाई दें, सच यह है कि इन दोनों वर्गों में अनेक ऐसी जातियां हैं, जो आरक्षण के लाभ से वंचित हैं या फिर जिन्हें आरक्षण का न के बराबर लाभ मिला है। यदि एससी-एसटी आरक्षण में उपवर्गीकरण की दिशा में आगे नहीं बढ़ा जाता तो यह इन समुदायों की दर्जनों वंचित जातियों के साथ जानबूझकर किया जाने वाला अन्याय होगा।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)