जागरण संपादकीय: सिकुड़ता गरीबी का दायरा, आर्थिक प्रगति के सकारात्मक संकेत
मौजूदा व्यवस्था में गेहूं और धान जैसी फसलों के लिए कायम न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी और खरीदारी से जुड़ा तंत्र इनकी मांग घटने के बावजूद उनके उत्पादकों को असंगत रूप से लाभ पहुंचाने वाला है। ऐसे में बागवानी डेरी और मवेशियों पर जोर देना टिकाऊ एवं सतत विकास की ओर अग्रसर करने के साथ ही कृषि उत्पादकता एवं पोषण के मोर्चे को भी मजबूत करेगा।
विवेक देवराय आदित्य सिन्हा। गरीबी के मुद्दे पर लंबे समय से गंभीर बहस होती आई है। इस बहस का एक बिंदु यह भी होता है कि आर्थिक वृद्धि का गरीबी पर क्या असर पड़ता है। अमूमन यही माना जाता है कि आर्थिक वृद्धि के विस्तार के साथ ही गरीबी का दायरा सिकुड़ता है। भारत में गरीबी का आकलन गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों की संख्या से किया जाता है। जीवन निर्वाह के लिए वस्तुओं और सेवाओं की एक न्यूनतम कसौटी को गरीबी रेखा के तौर पर मान्यता दी गई है। चूंकि घरेलू सर्वेक्षणों से प्राप्त आमदनी के आंकड़े पूरी तरह विश्वसनीय नहीं तो भारत में गरीबी रेखा को निर्धारित करने के लिए प्रति व्यक्ति मासिक खपत को पैमाना माना गया है। पिछली सदी के छठे दशक में विकसित हुई इस पद्धति को आठवें दशक में संशोधित किया गया।
गरीबी के आकलन में सटीक डाटा जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही अहम गरीबी रेखा को भलीभांति रूप से परिभाषित करना भी है। इस कड़ी में घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण यानी एचसीईएस अहम भूमिका निभाता है। इस सर्वे में खानपान, परिधान, शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़ी 350 श्रेणियों पर होने वाले खर्च को शामिल किया जाता है। एचसीईएस के हालिया आंकड़ों में गरीबी के परिदृश्य की एक अलग कहानी दिखाई पड़ती है। इसके आंकड़े गरीबी की मौजूदा और संभावित दशा-दिशा को दिखाते हैं। इससे जुड़े आंकड़ों के दूसरे चरण की जमीनी पड़ताल की प्रक्रिया अभी जारी है। उनके सामने आने के बाद हमें कुछ और ठोस आधार मिलेंगे, लेकिन जो आंकड़े सामने आए हैं, उनके व्यापक विश्लेषण से देश में उपभोग के रुझान को लेकर व्यापक परिवर्तन देखने को मिले हैं।
इससे स्पष्ट है कि लोग अब केवल अनाज पर ही केंद्रित न होकर अपने भोजन में दूध, मांस, फल और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादों को भी तरजीह दे रहे हैं। खानपान के रुझान में इस परिवर्तन का कृषि नीति, पोषण, स्वास्थ्य और जनकल्याण जैसे पहलुओं से गहरा सरोकार है। इस रुझान के प्रमुख निष्कर्षों की पड़ताल करें तो प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय में भारी बढ़ोतरी हुई है। ग्रामीण उपभोग में 164 प्रतिशत तो शहरी उपभोग में 146 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी गई। इसमें बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने जबरदस्त तेजी दिखाई। ग्रामीण सिक्किम 394 प्रतिशत की बढ़ोतरी के साथ शीर्ष पर काबिज रहा। इसका दूसरा पहलू तो और भी महत्वपूर्ण है और वह यह कि स्वतंत्रता के बाद पहली बार ऐसा देखने को मिला है कि भोजन सामग्री पर घरेलू खर्च का हिस्सा 50 प्रतिशत से भी कम हो गया है।
भोजन पर होने वाले खर्च में कमी जीवन स्तर में सुधार के साथ ही एंगेल के नियम के अनुरूप भी है कि आय बढ़ने के साथ ही भोजन पर होने वाले खर्च का अनुपात घटता जाता है। तीसरा पहलू, अनाज की खपत में गिरावट को दर्शाता है। विशेष रूप से आर्थिक तलहटी पर मौजूद 20 प्रतिशत लोगों के स्तर पर यह देखने को मिला है। इसमें प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना जैसी खाद्य सुरक्षा पहल की भी भूमिका हो सकती है, जिससे करोड़ों लोगों को मुफ्त अनाज मिल रहा है। इसके चलते लोग अपने भोजन में फल, सब्जियां, डेरी उत्पाद और एनिमल प्रोटीन शामिल कर रहे हैं। यह परिवर्तन भारत की कृषि एवं पोषण नीतियों के पुनर्मूल्यांकन की मांग करता है, जो नीतियां अनाज उत्पादन की ओर उन्मुख रही हैं। यह रिपोर्ट इस बात को साफ तौर पर रेखांकित करती है कि हमारी कृषि नीतियों की दिशा फसल विविधीकरण को प्रोत्साहन देने पर केंद्रित होनी चाहिए।
मौजूदा व्यवस्था में गेहूं और धान जैसी फसलों के लिए कायम न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी और खरीदारी से जुड़ा तंत्र इनकी मांग घटने के बावजूद उनके उत्पादकों को असंगत रूप से लाभ पहुंचाने वाला है। ऐसे में बागवानी, डेरी और मवेशियों पर जोर देना टिकाऊ एवं सतत विकास की ओर अग्रसर करने के साथ ही कृषि उत्पादकता एवं पोषण के मोर्चे को भी मजबूत करेगा। यह रिपोर्ट कुछ चिंताजनक पहलुओं की ओर संकेत करती है। ऐसा ही एक पहलू प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादों के बेतहाशा बढ़ते उपभोग का है। खासतौर से शीर्ष 20 प्रतिशत अमीर आबादी में यह खपत खासी बढ़ी है, जिससे जनस्वास्थ्य के समक्ष एक संकट आकार ले रहा है। तमाम शोध-अनुसंधान निरंतर रूप से यह दर्शाते हैं कि अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य उत्पादों और मोटापा, मधुमेह एवं हृदय संबंधी बीमारियों जैसे गैर-संचारी रोगों के बीच सीधा संबंध है।
ऐसे में, सरकार को इन प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों को लेकर पोषण से जुड़े पहलुओं के विनियमन का कोई उपाय करना चाहिए। साथ ही, इन खाद्य सामग्रियों के अतिशय उपभोग को लेकर जनजागरूकता का प्रसार भी उतना ही आवश्यक है। विशेष रूप से शहरी इलाकों में ऐसा किया जाना जरूरी है। रिपोर्ट कुछ और महत्वपूर्ण मुद्दों की ओर भी संकेत करती है। जैसे एनीमिया के बढ़ते मामले। इस लिहाज से महिलाओं और बच्चों की संवेदनशीलता उजागर होती है। सरकार द्वारा आयरन युक्त खाद्य उत्पादों को प्रोत्साहन देने के बावजूद एनीमिया की समस्या बनी हुई है। ऐसे में केवल आयरन युक्त खाद्य सामग्री ही नहीं, बल्कि खानपान में विविधता भी एनीमिया की चुनौती से निपटने में उतनी ही महत्वपूर्ण है। ऐसे में उन नीतियों को अपनाने की आवश्यकता महसूस होती है, जो विविधतापूर्ण, पोषण से परिपूर्ण भोजन तक पहुंच को सुगम बना सकें। विशेष रूप से गरीब परिवारों के लिए ऐसी कोई पहल और भी आवश्यक है। अगर इस रिपोर्ट के सारांश को देखें तो उपभोग का यह बदला हुआ रुझान उपभोक्ता मूल्य सूचकांक यानी सीपीआइ में समयानुकूल परिवर्तन की आवश्यकता को भी रेखांकित करता है।
यदि उपभोक्ता के व्यवहार में परिवर्तन आ रहा है तो मुद्रास्फीति के आकलन की प्रक्रिया भी उसी अनुसार संशोधित की जाए। तभी महंगाई की सही तस्वीर सामने आ पाएगी। कुल मिलाकर, भोजन में आ रही विविधता, बढ़ती आमदनी और अनाजों का घटता उपभोग आर्थिक प्रगति के सकारात्मक संकेतकों को दर्शाता है। हमें अपनी नीतियों को भी बदलते समय के अनुसार बदलना चाहिए, क्योंकि भारत जिस प्रकार प्रगति के पथ पर अग्रसर है तो हमें स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा और जनकल्याण के मोर्चे पर चुनौतियों का भी तोड़ निकालना होगा।
(देवराय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख और सिन्हा परिषद में ओएसडी-अनुसंधान हैं)