जागरण संपादकीय: एक साथ चुनाव की तैयारी, 1967 तक एक साथ होते थे लोकसभा और विधानसभा चुनाव
एक साथ चुनाव केवल इसलिए नहीं होने चाहिए कि देश को बार-बार होने वाले चुनावों से मुक्ति मिलेगी। ये इसलिए भी होने चाहिए ताकि संसाधनों की बचत के साथ चुनावी माहौल के कारण पैदा होने वाली अनावश्यक राजनीतिक कटुता से बचा जा सके। बार-बार चुनाव होते रहने से सरकारों को अपनी प्राथमिकताओं में फेरबदल करने के लिए भी बाध्य होना पड़ता है।
मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल के सौ दिन पूरे होने पर गृहमंत्री अमित शाह ने जिस तरह यह स्पष्ट किया कि 2029 के पहले एक साथ चुनाव कराने की व्यवस्था कर दी जाएगी, उससे यह स्पष्ट है कि सरकार अपने इस महत्वाकांक्षी वादे को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध है। इस प्रतिबद्धता का परिचय एक साथ चुनाव कराने को लेकर पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द की अध्यक्षता में गठित समिति से भी मिला था। इस समिति ने व्यापक विचार-विमर्श के बाद अपनी रिपोर्ट में उन बाधाओं को दूर करने के उपाय सुझाए हैं, जो एक साथ चुनाव कराने में आड़े आ सकती हैं।
यह रिपोर्ट यही बताती है कि एक साथ चुनाव के विरोध में दिए जा रहे तर्क खोखले ही अधिक हैं। ये तर्क इसलिए भी खोखले साबित होते हैं कि 1967 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही होते थे। आखिर इस तथ्य के आलोक में यह कैसे कहा जा सकता है कि एक साथ चुनाव कराना संविधानसम्मत नहीं? क्या जब एक साथ चुनाव होते थे तो वे संविधान की उपेक्षा करके होते थे? इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अब भी लोकसभा के साथ कुछ विधानसभाओं के चुनाव होते हैं। इस बार लोकसभा के साथ ओडिशा, आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम विधानसभा के चुनाव हुए। आखिर जब लोकसभा के साथ चार राज्यों के विधानसभा चुनाव हो सकते हैं तो शेष राज्यों के क्यों नहीं हो सकते? वास्तव में यह दलील विरोध के लिए विरोध वाली राजनीति का ही परिचायक है कि एक साथ चुनाव कराना व्यावहारिक नहीं।
एक साथ चुनाव केवल इसलिए नहीं होने चाहिए कि देश को बार-बार होने वाले चुनावों से मुक्ति मिलेगी। ये इसलिए भी होने चाहिए, ताकि संसाधनों की बचत के साथ चुनावी माहौल के कारण पैदा होने वाली अनावश्यक राजनीतिक कटुता से बचा जा सके। बार-बार चुनाव होते रहने से सरकारों को अपनी प्राथमिकताओं में फेरबदल करने के लिए भी बाध्य होना पड़ता है। इससे विकास एवं जनकल्याण के काम प्रभावित होते हैं। एक साथ चुनाव में यदि कुछ बाधक है, तो वह है राजनीतिक संकीर्णता। राष्ट्रहित में इस संकीर्णता का परित्याग किया जाना चाहिए।
क्या ऐसे देशों को कम लोकतांत्रिक कहा जा सकता है, जहां संसद के साथ विधानसभाओं के भी चुनाव होते हैं? यह ठीक नहीं कि एक साथ चुनाव का विरोध कर रहे राजनीतिक दल अन्य राजनीतिक एवं चुनावी सुधारों को अपनाने से भी बच रहे हैं। समय की मांग तो यह है कि उन्हें न केवल एक साथ चुनाव पर सहमत होना चाहिए, बल्कि ऐसी कोई व्यवस्था बनाने पर भी राजी होना चाहिए, जिसमें प्रत्याशियों के चयन में कार्यकर्ताओं और साथ ही जनता की भी भागीदारी हो। अभी तो प्रत्याशी चयन में मनमानी ही होती है। हालांकि इसके दुष्परिणाम राजनीतिक दल ही भोगते हैं, लेकिन कोई नहीं जानता कि वे प्रत्याशी चयन की लोकतांत्रिक प्रक्रिया क्यों नहीं अपनाना चाहते?