सिर्फ सजावट नहीं, गुजरात की सदियों पुरानी विरासत है Lippan Art, पढ़ें किस मकसद से हुई थी इसकी शुरुआत
भारत की सांस्कृतिक विविधता में गुजरात का कच्छ इलाका एक अनूठा रत्न है जहां की दीवारों पर उकेरी जाती है एक ऐसी कला जो मिट्टी और शीशे से न केवल घरों को सजाती है बल्कि एक पूरी जीवनशैली को दर्शाती है। जी हां इस पारंपरिक हस्तकला को लिप्पन आर्ट या चित्तर कला के नाम से जाना जाता है।

लाइफस्टाइल डेस्क, नई दिल्ली। Lippan Art गुजरात के कच्छ क्षेत्र की एक बहुत पुरानी पारंपरिक लोक कला है। बता दें, 'लिपपन' शब्द गुजराती शब्द 'लिप' से आया है, जिसका अर्थ है 'लेप करना' या 'मिट्टी लगाना'। सदियों पहले, कच्छ के ग्रामीण समुदायों, खासकर रबारी, मुतवा और मेघवाल जनजातियों के लोग अपने मिट्टी के घरों की दीवारों को सजाने के लिए इस कला का इस्तेमाल करते थे।
आपको जानकर हैरानी होगी कि यह सिर्फ सजावट के लिए ही नहीं थी, बल्कि इसका एक व्यावहारिक उद्देश्य भी था। दरअसल, इस आर्ट में इस्तेमाल होने वाला मिट्टी और गोबर का मिश्रण, घरों को गर्मियों में ठंडा और सर्दियों में गर्म रखने में मदद करता था।
माना जाता है कि यह कला 700 से 800 साल पहले सिंध के कुम्हार/कुनभर समुदाय से शुरू हुई थी, जो मिट्टी के बर्तन बनाते थे। धीरे-धीरे, उन्होंने इस आर्ट को अपने घरों की दीवारों तक फैलाया। खास बात यह है कि इस कला को मुख्य रूप से महिलाएं ही करती थीं, जिससे यह न केवल कला का रूप थी, बल्कि महिलाओं के बीच मेलजोल और रचनात्मकता को बढ़ावा देने का एक तरीका भी बन गई। आइए विस्तार से जानें इसके बारे में (Lippan Art History)।
क्या है लिप्पन आर्ट?
लिप्पन आर्ट को स्थानीय भाषा में ‘लेपन कला’ भी कहा जाता है। यह मिट्टी, ऊंट या गधे के गोबर और छोटे-छोटे शीशों (जिसे "आभला" कहा जाता है) के मिश्रण से बनाई जाती है। परंपरागत रूप से यह कला “भुंगा” नामक गोलाकार मिट्टी के घरों की दीवारों पर उकेरी जाती है, जो कच्छ क्षेत्र की कठिन जलवायु को सहन करने में मददगार होते हैं।
किन समुदायों से जुड़ी है यह कला?
यह कला कच्छ के विभिन्न समुदायों की सांझी धरोहर है। रबारी, कुम्हार, मारवाड़ा हरिजन और मूतवा जैसे समुदायों ने पीढ़ियों से इस कला को जीवित रखा है। इनमें से रबारी और मूतवा समुदाय पाकिस्तान के सिंध क्षेत्र से सैकड़ों साल पहले कच्छ में आकर बसे थे, जबकि हरिजन समुदाय राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र से आया था।
बता दें, रबारी महिलाएं इस कला की पारंगत शिल्पकार होती हैं और बिना किसी खाके के सीधे दीवारों पर सुंदर डिजाइन बना देती हैं। वहीं, मूतवा समुदाय के पुरुष इस कार्य को करते हैं, खासकर मिरर वर्क में।
केवल सजावट नहीं, काम की चीज भी है
लिप्पन आर्ट केवल देखने में सुंदर नहीं होती, बल्कि इसका व्यावहारिक उपयोग भी है। दीवारों पर मिट्टी और गोबर का यह मिश्रण गर्मियों में घर को ठंडा और सर्दियों में गर्म बनाए रखता है। इसके अलावा, छोटे-छोटे शीशे जब दीयों या रोशनी में चमकते हैं तो घर का आंतरिक भाग एकदम जीवंत और चमकदार दिखता है।
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धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
इस कला में धार्मिक और सांस्कृतिक भावनाएं भी जुड़ी हुई हैं। हिंदू समुदाय के लोग इसमें पक्षी, जानवर, पेड़-पौधे और दैनिक जीवन की झलकियां दर्शाते हैं जैसे- मोर, ऊंट, हाथी, औरतें पानी लाते हुए या मट्ठा बिलोती हुई। वहीं, मुस्लिम समुदाय इस कला में केवल ज्यामितीय आकृतियों का इस्तेमाल करते हैं क्योंकि उनके धर्म में मानव या पशु आकृति दर्शाना उचित नहीं माना जाता।
बदलते समय के साथ बदलती लिप्पन कला
आज लिप्पन कला गांवों से निकलकर शहरों के ड्रॉइंग रूम और दीवारों की शोभा बनने लगी है। परंपरागत मिट्टी और गोबर की जगह अब क्ले, ग्लू और रंगों का यूज किया जा रहा है जिससे यह कला और टिकाऊ और आकर्षक हो गई है। इसके अलावा, वॉटरप्रूफ तकनीक के कारण अब यह लंबे समय तक वैसी की वैसी बनी रहती है।
पीढ़ियों से चली आ रही विरासत
लिप्पन कला कोई सीखी हुई शैक्षणिक चीज नहीं है, यह तो परंपराओं और संस्कारों में रची-बसी कला है। जैसे गनी मारा जैसे कलाकार, जिन्होंने इस कला को अपने पूर्वजों से सीखा और अब नई पीढ़ी को भी सिखा रहे हैं, चाहे वो पढ़ाई कर रहे हों या किसी और पेशे में हों, वे इस परंपरा से जुड़ाव महसूस करते हैं।
लिप्पन आर्ट सिर्फ एक दीवार सजाने की तकनीक नहीं, बल्कि यह सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ी हुई जीवनशैली है। यह हमें बताती है कि कैसे जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी मनुष्य सुंदरता और रचनात्मकता को जन्म देता है। मिट्टी, गोबर और आइनों से बनी यह कला एक सादगी में छिपा सौंदर्य है, जो सदियों से कच्छ के लोगों की पहचान रही है।

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