तहकीकात: एक लिफ्ट, दो हैवान और मासूमों से हैवानियत... रंगा-बिल्ला केस की खौफनाक कहानी
ये वारदात है 1978 की। दो होनहार बच्चे... 16 साल की गीता चोपड़ा और 14 साल के संजय चोपड़ा का अपहरण कर हत्या कर दी गई। दिल्ली को हिलाकर रख देने वाला रंगा-बिल्ला केस सिर्फ गीता और संजय की हत्या की कहानी नहीं है यह उस दौर में पुलिस की सुस्ती सामाजिक चेतना और फांसी जैसी सजा के मानकों को बदल देने वाला मामला था।

कुशाग्र मिश्रा, नई दिल्ली: 26 अगस्त 1978 की शाम 6:00 से 6:30 बजे का वक्त था। नई दिल्ली गोल डाकखाना के पास सड़क पर चहल-पहल थी।
16 साल की गीता और 14 साल का संजय ऑल इंडिया रेडियो के कार्यक्रम में भाग लेने के लिए निकले थे। गोल डाकखाना के पास लिफ्ट लेने का प्रयास कर रहे थे। इसी दौरान उन्हें अगवा कर लिया गया।
कुलजीत सिंह, जिसे 'रंगा' के नाम से जाना जाता था, एक ड्राइवर था। उसके साथी जसबीर सिंह उर्फ 'बिल्ला', का अपराध की दुनिया से पुराना नाता था। वह पहले भी जेल जा चुका था।
दोनों की मुलाकात मुंबई की एक लोकल ट्रेन में हुई थी। जिसने एक कुख्यात जोड़ी को जन्म दिया। जो छोटी-मोटी चोरियों से शुरु होकर अपहरण और हत्या तक पहुंची, फिर फांसी के फंदे पर खत्म हुई।
वारदात अंजाम देने के लिए रंगा और बिल्ला ने एक चोरी की फिएट कार का इस्तेमाल किया। उन्होंने नौसेना अधिकारी एमएम चोपड़ा की बेटी 16 वर्षीय गीता और बेटे 14 वर्षीय संजय चोपड़ा को लिफ्ट देने के बहाने अगवा कर लिया। जिसका मकसद महज फिरौती वसूल करना था।
रंगा बिल्ला ने पार कर दी बर्बरता की हद
अपहरण के दौरान कार के अंदर बच्चों को संघर्ष करते देखा गया था। एक चश्मदीद इंद्रजीत सिंह नाटा ने अपनी स्कूटर से कार का पीछा भी किया था और नंबर नोट करने में कामयाब रहे, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था।
जब रंगा और बिल्ला को पता चला कि बच्चों के पिता नौसेना में अधिकारी हैं, तो उनका इरादा बदल गया। फिरौती वसूलने का मकसद गवाह बन चुके दोनों बच्चों को खत्म करने में बदल गया।
बिल्ला ने संजय को झाड़ियों के पीछे ले जाकर चाकू से एक या दो नहीं बल्कि बेरहमी से 21 बाद गोदा, उसकी तुरंत मौत हो गई। इसी बीच रंगा ने कार में गीता के साथ कथित तौर पर दुष्कर्म किया। बिल्ला पर भी दुष्कर्म का आरोप लगा।
हालांकि, बाद की फॉरेंसिक जांचों में दुष्कर्म की पुष्टि नहीं हो सकी थी। इस मामले में मेडिकल रिपोर्ट किसी निर्णय पर नहीं पहुंची और अदालत ने दुष्कर्म के आरोपों को नहीं माना।
गीता ने अपनी जान बचाने के लिए संघर्ष किया, और यहां तक कि उस चाकू से रंगा पर वार भी किया। आखिरकार दोनों बच्चों को सबूत मिटाने के लिए मार डाला गया।
दो दिन बाद रिज में मिले गीता और संजय के शव
हत्या के दो दिन बाद यानी 28 अगस्त को एक चरवाहे को रिज क्षेत्र में दोनों बच्चों के शव मिले। शव बच्चों के घर से करीब 4 किलोमीटर दूर मिले थे। गीता का शव सड़क से करीब 5 मीटर अंदर जबकि संजय का शव बहन से 50 मीटर दूर मिला था।
पोस्टमार्टम रिपोर्ट ने दोनों बच्चों के साथ क्रूरता की पुष्टि हुई। संजय के शरीर पर 21 और गीता के शरीर पर 5 गहरे घाव थे।
इस जघन्य अपराध ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। मीडिया में खबरें छाईं, जिससे दिल्ली पुलिस पर जल्द से जल्द कार्रवाई करने का दबाव बढ़ने लगा।
तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के इस्तीफे तक की मांग उठने लगी। यहां तक कि यह मामला संसद में गूंजा। इस वारदात ने सार्वजनिक व्यवस्था और शासन पर एक सवालिया निशान लगा दिया था।
कालका मेल में सैनिकों ने रंगा और बिल्ला को पकड़ा
पुलिस ने रंगा और बिल्ला की तस्वीरें पूरे देश में प्रसारित कीं, जिससे जनता की सतर्कता बढ़ गई। 8 सितंबर 1978 को, उनकी तलाश खत्म हुई।
आगरा में वे कालका मेल ट्रेन में एक आरक्षित सेना डिब्बे में चढ़ने की कोशिश कर रहे थे। एक लांस नायक ने अखबारों में छपी उनकी तस्वीरों की वजह से दोनों को पहचान लिया। सेना के जवानों ने उन्हें पकड़ लिया और रस्सियों से बांधकर रेलवे पुलिस को सौंप दिया।
गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने रंगा और बिल्ला से अलग-अलग पूछताछ की। रंगा ने दुष्कर्म और हत्या के लिए बिल्ला को दोषी ठहराया, जबकि बिल्ला ने रंगा पर आरोप लगाया।
उस समय डीएनए परीक्षण भारत में लागू नहीं था, इसलिए मेडिकल और परिस्थितिजन्य साक्ष्यों का ही सहारा लिया गया।
फांसी की सजा को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने रखा बरकरार
सार्वजनिक और राजनीतिक दबाव के कारण इस मामले में कार्रवाई तेजी से आगे बढ़ी। कोर्ट में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने उन्हें दोषी ठहराया और भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या) के तहत मौत की सजा सुनाई।
रंगा और बिल्ला ने मौत की सजा के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट में अपील की। 26 नवंबर 1979 को रंगा और बिल्ला की मौत की सजा को दिल्ली हाई कोर्ट ने बरकरार रखा।
इसके बाद रंगा और बिल्ला ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन वहां से भी उन्हें राहत नहीं मिली। सुप्रीम कोर्ट ने रंगा और बिल्ला की याचिका खारिज करते हुए कहा, "फांसी से कम कोई सजा नहीं होगी"।
अदालतों ने इस अपराध की क्रूरता को देखते हुए इसे मौत की सजा के योग्य माना। सभी कानूनी अपीलों के समाप्त होने के बाद रंगा और बिल्ला ने तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी को दया याचिका भेजी, इसे भी खारिज कर दिया गया।
रंगा और बिल्ला की फांसी का दिन
31 जनवरी 1982 को वारदात के करीब चार साल बाद रंगा और बिल्ला को दिल्ली की तिहाड़ जेल में फांसी दी गई। बिल्ला फांसी से एक रात पहले फूटफूट कर रोया था।
उसे शांत स्वभाव वाला बताया गया। वहीं रंगा, जिसे 'रंगा खुश' के नाम से जाना जाता था, जेल में भी हंसमुख स्वभाव रखा करता था और अपनी फांसी की सजा के प्रति उदासीन रहा।
रंगा और बिल्ला की फांसी के दौरान तिहाड़ जेल में काम करने वाले सुनील गुप्ता और सुनेत्रा चौधरी की पुस्तक "ब्लैक वारंट: कन्फेशंस ऑफ ए तिहाड़ जेलर" में दावा किया गया है कि रंगा और बिल्ला को फंसी लगाने के लिए जल्लाद की ओर से लीवर खींचे जाने के लगभग दो घंटे बाद भी रंगा जिंदा था।
डॉक्टरों ने जांच की तो पाया कि बिल्ला मर चुका था, लेकिन रंगा की नाड़ी चल रही थी। किताब में दावा किया गया है कि कथित तौर पर, एक गार्ड को कुएं में भेजा गया, जिसने रंगा के पैरों को खींचा, तब जाकर उसकी मौत मृत्यु सुनिश्चित हुई।
हालांकि किताब में किए गए इस दावे की पुष्टि नहीं है, लेकिन यह घटना तिहाड़ की प्रक्रियाओं में सुधार के संदर्भ में अक्सर चर्चा में आती है।
रंगा और बिल्ला के शव स्वजन ने नहीं किए स्वीकार
रंगा की फांसी के दौरान हुई इस अप्रत्याशित घटना ने सीधे तौर पर भारत के फांसी नियमों में बदलाव की "सख्त जरूरत महसूस कराई"।
1982 के बाद से, नियमों को और स्पष्ट और मानवीय बनाया गया ताकि ऐसी घटनाएं दोबारा नहीं हों। नियमों में यह बदलाव महज प्रशासनिक स्तर पर हुआ। इसके कोई कानूनी जामा नहीं पहनाया गया है।
इस वारदात ने समाज पर एक छाप छोड़ी। आज भी रंगा और बिल्ला का नाम आतंक के पर्याय के तौर पर लिया जाता है। इस मामले की तुलना अक्सर निर्भया मामले से की जाती है, जो इसकी भयावहता और सामाजिक सदमे की सीमा को दर्शाता है।
रंगा और बिल्ला के शवों को न तो उनके स्वजन ने स्वीकार किया न ही किसी रिश्तेदार ने, जेल प्रशासन ने ही उनका अंतिम संस्कार किया था।
गीता और संजय के नाम पर वीरता पुरस्कारों की घोषणा
इस दुखद घटना के जवाब में 1978 में भारतीय बाल कल्याण परिषद ने 16 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए दो वीरता पुरस्कारों की घोषणा की। संजय चोपड़ा पुरस्कार और गीता चोपड़ा पुरस्कार। ये पुरस्कार हर साल राष्ट्रीय वीरता पुरस्कारों के साथ दिए जाते हैं, जो बच्चों के साहस को पहचानते हैं।
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