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    तहकीकात: एकतरफा प्यार में सनक, हैवानियत और इंसाफ के लिए लंबी जंग ...

    Updated: Thu, 19 Jun 2025 03:26 PM (IST)

    1996 की जनवरी की एक सर्द सुबह दिल्ली में एक ऐसा गु्नाह हुआ जिसने झकझोर कर रख दिया। लॉ की एक होनहार छात्रा की जिंदगी एकतरफा प्यार और सनक की भेंट चढ़ गई। शुरुआत में आरोपित को अदालत से राहत मिली लेकिन एक पिता ने हार नहीं मानी। क्या उसे इंसाफ मिला? जानिए प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड की कहानी।

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    प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड:1996 की एक सुबह, जिसने देश को झकझोर दिया।

    कुशाग्र मिश्रा, नई दिल्ली: 23 जनवरी 1996 की सर्द सुबह, दिल्ली के वसंत कुंज इलाके में एक घर की दीवारों ने एक ऐसी हैवानियत देखी, जिसे याद कर आज भी रूह कांप उठती है।

    यह कहानी है एकतरफा प्यार में पागलपन की, जिसमें दिल्ली यूनिवर्सिटी की कानून की छात्रा, 25 वर्षीय प्रियदर्शिनी मट्टू, वहशीपन की भेंट चढ़ गईं।

    बिजली के तार से तब तक उनका गला घोंटा गया जब तक शरीर ढीला न पड़ गया। इसके बाद, उनके चेहरे पर बार-बार हेलमेट से वार किए गए, इतना कि चेहरा पहचानना भी मुश्किल हो गया।

    दैनिक जागरण की ‘तहकीकात’ सीरीज में आज बात एक ऐसी सनक की, जो नाकाम मोहब्बत से जन्मी और इंसानियत की तमाम हदें पार कर गई। दिल्ली यूनिवर्सिटी में लॉ की पढ़ाई कर रही प्रियदर्शिनी मट्टू को महज इसलिए बेरहमी से मार डाला गया, क्योंकि उसने एकतरफा प्यार को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। आज की कहानी में हम बात करेंगे दिल्ली के 'प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड' की और ताकतवर के सामने न झुकने और बेटी को इंसाफ दिलाने के लिए एक पिता की लंबी लड़ाई की।

    अन्याय के खिलाफ लड़ने का जज्बा लिए दिल्ली आई थीं प्रियदर्शिनी

    प्रियदर्शिनी मट्टू, कश्मीरी पंडित समुदाय से थीं। उग्रवाद के चलते उनका परिवार कश्मीर छोड़कर जम्मू आ गया। श्रीनगर के प्रेजेंटेशन कॉन्वेंट स्कूल से शिक्षा प्राप्त करने के बाद, उन्होंने जम्मू से बी.कॉम किया और फिर दिल्ली यूनिवर्सिटी से लॉ की पढ़ाई शुरू की।

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    दिल्ली में उनका सीनियर संतोष कुमार सिंह उनसे एकतरफा प्रेम करने लगा। जुनून और सनक में उसने प्रियदर्शिनी का पीछा करना शुरू कर दिया, उन्हें धमकाया और परेशान किया।

    तंग आकर प्रियदर्शिनी मट्टू और उनके परिवार ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई। हालांकि, संतोष कुमार सिंह का पीछा करना जारी रहा।

    1995 में ही फिर प्रियदर्शिनी ने एक और एफआईआर दर्ज कराई, जिसके जवाब में संतोष ने दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रियदर्शिनी के खिलाफ ही शिकायत कर दी कि वह एक साथ दो डिग्रियां कर रही हैं, जबकि हकीकत में, उन्होंने एम.कॉम 1991 में ही पूरा कर लिया था।

    हत्या का भयावह दिन: जो हुआ, वो हैवानियत की हद थी

    उस दिन संतोष कुमार सिंह को प्रियदर्शिनी के घर के बाहर देखा गया। घर में काम करने वाले घरेलू सहायक ने उसे भीतर जाते देखा। इस दौरान उसने घरेलू सहायक को बताया कि समझौता करने आया है।

    इसके बाद जो हुआ, वह रोंगटे खड़े कर देने वाला था, संतोष ने प्रियदर्शिनी के साथ दुष्कर्म किया, फिर गला घोंटकर हत्या कर दी और चेहरा बुरी तरह कुचल दिया।

    ताकत का प्रभाव और न्याय की राह में रोड़े

    संतोष प्रभावशाली परिवार से था। उसके पिता जेपी सिंह उस समय पुदुचेरी में पुलिस महानिरीक्षक थे और मुकदमे के दौरान दिल्ली में संयुक्त पुलिस आयुक्त बन गए।

    दिल्ली पुलिस पर मामले को कमजोर करने के आरोप लगे और अंततः जांच सीबीआई को सौंप दी गई।

    निचली अदालत के फैसले से देश स्तब्ध रह गया

    1999 में अदालत ने संतोष को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया। 450 पन्नों के फैसले में न्यायाधीश ने कहा कि उन्हें यकीन है कि अपराध संतोष ने ही किया, लेकिन पुलिस और जांच एजेंसियों की लापरवाही के कारण पर्याप्त साक्ष्य प्रस्तुत नहीं हो पाए।

    ऐसे में आरोपित को संदेह का लाभ देना पड़ा। दिल्ली पुलिस पर गवाहों को प्रभावित करने, झूठे सबूत बनाने और मामले को कमजोर करने का आरोप लगा।

    सीबीआई पर भी आरोप लगे कि उसने ठीक से जांच नहीं की और प्रमुख गवाह घरेलू सहायक वीरेंद्र प्रसाद को जानबूझकर पेश नहीं किया गया।

    न्याय की तलाश में एक पिता और बेटी की अनकही लड़ाई

    देशभर में निचली अदालत के फैसले को लेकर भारी आक्रोश फैल गया। ‘जस्टिस फॉर प्रिया’ जैसा अभियान शुरू हुआ और प्रियदर्शिनी के पिता चमन लाल मट्टू की लड़ाई ने एक जन आंदोलन का रूप ले लिया।

    CBI ने 29 फरवरी 2000 को दिल्ली हाई कोर्ट में अपील की। शुरू में सुनवाई धीमी रही, लेकिन जनता के दबाव के चलते 2006 में रोज सुनवाई का फैसला लिया गया और मात्र 42 दिनों में फैसला आ गया।

    उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय, दोषी करार दिया

    17 अक्टूबर 2006 को दिल्ली हाई कोर्ट ने संतोष कुमार सिंह को हत्या और दुष्कर्म का दोषी पाया। न्यायालय ने डीएनए और अन्य वैज्ञानिक साक्ष्यों को निर्णायक मानते हुए, पहले के फैसले को पलट दिया।

    आरोपित संतोष कुमार सिंह की अब तक शादी हो चुकी थी और वह एक वकील बन चुका था। वकालत की प्रैक्टिस भी कर रहा था।

    मौत की सजा और सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप

    CBI की सिफारिश पर संतोष को मौत की सजा सुनाई गई, लेकिन उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की। सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में उसे दोषी बरकरार रखा।

    हालांकि मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया, यह कहते हुए कि मामला दुर्लभतम से दुर्लभ की श्रेणी में नहीं आता। प्रियदर्शिनी के पिता ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सीबीआई की ओर से अपील न करने पर निराशा व्यक्त की थी।

    संतोष कुमार सिंह 2011 और 2012 में पैरोल पर बाहर भी आया और बाद में एलएलएम की पढ़ाई के लिए भी पैरोल प्राप्त की, लेकिन प्रियदर्शिनी मट्टू की कहानी देश के न्यायिक इतिहास में एक ऐसी मिसाल बन गई, जहां एक पिता की लंबी और साहासिक लड़ाई के बाद बेटी को न्याय मिला।

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