और बेटियों ने रच दिया एक और इतिहास, अब तक इस क्षेत्र में नहीं होती थी महिलाओं की तैनाती, पहले बैच ने तोड़े मिथक
First Batch Of 83 Women Soldiers देश के पहले महिला सैनिकों के बैच (83 सैनिक) ने 61 सप्ताह का बेंगलुरू में प्रशिक्षण पूरा कर लिया है। इन महिला सैनिकों (पुलिस सैनिक) ने मिथकों को तोड़ते हुए इतिहास रच दिया है..
प्रियंका दुबे मेहता, मनु त्यागी। First Batch Of 83 Women Soldiers मौका पाने के पीछे नहीं भागती जिंदगी, अवसर खुद चलकर पास आते हैं। ये बात यूं ही नहीं कहतीं, खुद अपनी अहमियत बताना जानती हैं देश की बेटियां। हौसले की नींव हैं तो जज्बे की मिसाल हैं बेटियां। जमीं से चांद तक जहां चाहे भेजकर देख लो, हौसले को इनके कितना भी आजमा कर देख लो। घर संभालने से तिरंगे का मान बढ़ाने तक हर कसौटी पर खरी उतरी हैं बेटियां। इसीलिए अब महिला सैनिक बन एक नया मुकाम हासिल कर रही हैं बेटियां। तिरंगा ओढ़ के जाना है या फिर तिरंगा फहरा के जाना है, हर जज्बा रखती हैं बेटियां। देश के पहले महिला सैनिकों के बैच (83 सैनिक) ने 61 सप्ताह का बेंगलुरू में प्रशिक्षण पूरा कर लिया है। इन महिला सैनिकों (पुलिस सैनिक) ने मिथकों को तोड़ते हुए इतिहास रच दिया है..
मैंने बचपन से एक ही बात सीखी है या तो तिरंगा ओढ़कर देश का मान बढ़ाना है या तिरंगे में लिपटकर... जैसे भी माटी अवसर दे सिर्फ उसके लिए कुछ कर जाना है। हाल ही में सेना में भर्ती हुई महिला सैनिक की यह बात भीतर तक यकीन दिला गई और आत्मा को आश्वस्त कर गई कि भारतीय सेना में परिवर्तन के जो बीज अंकुरित हुए हैं वे देश के गौरव का झंडा आसमान में ऊंचाइयों तक बुलंद करेंगे। पहले बैच में प्रशिक्षण प्राप्त करने वाली महिला सैनिकों में से एक बरेली निवासी लांस नायक मीनाक्षी शर्मा का कहना है कि उनके परिवार में कभी कोई इस क्षेत्र में नहीं रहा। हां, आर्मी की वर्दी से हमेशा लगाव रहा, अपने जीजाजी को आर्मी की यूनिफार्म में देखती थीं तो मेरे अंदर स्वत: ही देशभक्ति का जज्बा भर उठता था। वर्दी को देखकर ही सपने को जीना शुरू कर दिया और खुद को उसी हिसाब से ढालना शुरू कर दिया। एथलेटिक्स में गई जहां से मन में स्पोट्र्स और देश के लिए कुछ करने की चाह रगों में और तेज दौडऩे लगी।
मीनाक्षी शर्मा कहती हैं कि आर्मी में तब तक सैनिक के तौर पर शुरुआत नहीं हुई थी, सो पहले उत्तर प्रदेश पुलिस में खुद को आजमाया। वहां चयन हुआ तो मेरा विश्वास बढ़ा और माता-पिता की खुशी। अब अपने पूरे गांव की महिलाओं की ही नहीं, बल्कि पुरुषों के लिए भी प्रेरणा बन रही हूं। आर्मी का प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद मुझे लगा कि कोई काम ऐसा नहीं है, जो महिलाएं नहीं कर सकतीं। पुलिस में प्रशिक्षण लिया था तो वहां चीजें उतनी कठिन नहीं रहीं, लेकिन आर्मी की फिजिकल ट्रेनिंग अपेक्षाकृत कठिन लगी। कई बार ऐसे मौके भी आए जब लगा कि नहीं कर पाऊंगी, लेकिन फिर हमारे ट्रेनर्स और प्रशिक्षण अधिकारियों ने संबल दिया और प्रेरणा दी, जिससे हम कभी डिगे नहीं और वह कर दिखाया जो इतिहास बन गया।
गर्वीलेपल जीने का अवसर: मेरे गांव से कोई आर्मी में तो दूर पुलिस तक में नहीं जाता और आज मेरा गांव मुझ पर गर्व करता है। छत्तीसगढ़ के रायपुर के तेली बांदा गांव निवासी राजश्री साहू के लिए वह पल बेहद गर्वीले थे जब उन्हें इंडियन आर्मी में आने का मौका मिला। राजश्री पहले साइक्लिंग करती थीं। मैराथन में हिस्सा लेती थीं और एक बार जब उन्होंने देखा कि मैराथन में इंडियन आर्मी की टीम भी आई है तो उनका अनुशासन, उनका जज्बा और उनकी मेहनत देखकर इतना प्रभावित हुईं कि अपने बचपन के सपने को साकार करने को पंख लगा दिए। उनकी टीमभावना तो और भी प्रेरक थी, यही कारण था कि सारे पदक वही लेकर जा रहे थे। फिर क्या था तैयारियों में जुट गईं, परिवार ने दिल खोलकर साथ दिया, प्रेरणा दी कि जब मौका मिल रहा है तो उन्हेंं जरूर जाना चाहिए। राजश्री के पिता वेल्डर और मां गृहिणी हैं, लेकिन बेटी को उन्होंने इस कदर प्रेरित किया कि वह आर्मी का हिस्सा बन गईं।
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राजश्री का कहना है कि मौका मिला तो उन्होंने अपने को साबित किया। इससे निश्चित तौर पर समाज के नजरिए में बदलाव आएगा, क्योंकि वहां साथ प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे पुरुषों ने भी उनके जज्बे, लगन और मेहनत को देखकर अपनी मानसिकता बदली और उनमें सम्मान का भाव दिखा। भारतीय सेना में महिलाओं की नियुक्ति से आधी आबादी के लिए अन्य द्वार भी खुलेंगे, जो अब तक बंद थे। चार भाई-बहनों में सबसे छोटी राजश्री ने वैसे तो सातवीं कक्षा से ही सोच लिया था कि वह रक्षा के क्षेत्र में जाएंगी। यही वजह रही कि पढ़ाई के दौरान उन्होंने एनसीसी में भी हिस्सा लिया। सोचा था कि अधिकारी बनकर इस क्षेत्र में जाएंगी, लेकिन देखा कि पहले ही मौका मिल गया तो उनके कदम नहीं रुके। उन्होंने प्रशिक्षण के दौरान हर वो बाधा पार की, जो लड़के पार कर रहे थे। ट्रेनर्स ने कभी कदम डगमगाने नहीं दिए और उन्हेंं हमेशा प्रेरित किया।
कनिका को था बचपन से इंतजार: झुंझुनू, राजस्थान के नवलगढ़ की लांस नायक कनिका सिंह तो बचपन से इस क्षेत्र में जाने के सपने देखा करती थीं। आर्मी का अनुशासन, वर्दी का आकर्षण और देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा उन्हेंं इस क्षेत्र में लेकर आया। खेलकूद में तो उनकी पहले से ही रुचि थी और अब उन्हेंं देश सेवा का मौका मिला तो वह इससे पीछे नहीं हटेंगी। देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने के जज्बे से लबरेज कनिका कहती हैं कि वर्दी का सपना तो पूरा हो गया और अब जहां भी जरूरत होगी, कुछ भी करने में पीछे नहीं हटेंगी और अपना शत प्रतिशत देंगी। आर्मी में महिलाओं की नियुक्ति समाज की सोच बदलने के लिए काफी अच्छी नजीर साबित होगी। लड़कियां अगर आर्मी में जा सकती हैं तो कुछ भी कर सकती हैं।
वह कहती हैं कि राजस्थान में अभी भी ऐसे कई गांव हैं जहां से बाहर जाकर लड़कियां नौकरी तक नहीं कर पातीं। ऐसे में उस प्रदेश की बेटी आर्मी में गई है तो निश्चित रूप से अन्य लड़कियों के लिए भी अवसर खुलेंगे। मां प्रेम देवी के प्रोत्साहन और प्रेरणा पर कनिका यहां तक पहुंची हैं। आसपास के लोग माता-पिता से कहते थे कि आखिर वे इतनी दूर लड़की को कैसे भेजेंगे, कैसे कर पाएगी वो इतनी कठिन ट्रेनिंग, लेकिन माता-पिता लोगों की बात से विचलित नहीं हुए और उन्होंने हमेशा ही उन्हेंं संबल दिया। कनिका के बड़े भाई जल सेना में हैं, ऐसे में उन्होंने पिता की तरह हमेशा उनका हौसला बढ़ाया और इस क्षेत्र में जाने की राह दिखाई। कनिका को शुरुआत में फिजिकल थोड़ा कठिन लगा, लेकिन कभी सोच भी नहीं सकती थी कि इतने अच्छे प्रशिक्षण अधिकारी मिलेंगे और राहें इस कदर आसान हो जाएंगी। प्रशिक्षण अधिकारियों ने हर कदम पर प्रेरित किया और एक परिवार की तरह कभी घरवालों की कमी महसूस नहीं होने दी। शुरुआत में परिवार की याद आती थी, लेकिन वे लोग बहुत अच्छी तरह से हमारा खयाल रखते थे।
खुद पर भरोसा था: नैनीताल के बिंदुखत्ता से आईं लांस नायक लता शर्मा को प्रशिक्षण अकादमी में प्रवेश करते ही लगा मानो जहान की सारी खुशियां उनकी झोली में आ गिरी हों। राष्ट्रीय कबड्डी खिलाड़ी बचपन से ही अपनी जुझारू प्रवृत्ति का उदाहरण पेश करती रही हैं। संसाधनों और कोच के अभाव में भी उन्होंने अपनी दोस्तों के साथ खुद ही अभ्यास करके राष्ट्रीय खेलों में स्थान बनाया। उन्होंने सोच लिया था कि वह देश के लिए गौरव हासिल करेंगी। फिर वह चाहे खेलों में जाकर हो या फिर फौज में। दो भाई-बहनों में बड़ी लता की मां हमेशा कहतीं कि उनके दो बेटे हैं। वह हर वो चीज कर सकती हैं, जो एक बेटा कर सकता है। मां ने हमेशा लता को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया। किसान पिता और गृहिणी माता की इस जुझारू बेटी ने आर्मी में जगह पाकर गांव के लिए भी मिसाल पेश की है। उनका कहना है कि उनके गांव में भी लोग बहुत खुश हैं और वे जब गांव गईं तो लोग उनसे मिलने आए कि गांव की बेटी भारतीय सेना का हिस्सा बनकर लौटी है। लता का कहना है कि वह सभी के विश्वास पर खरा उतरते हुए देश का नाम रोशन करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगी।
किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं: लेफ्टिनेंट कर्नल जूली, एयर डिफेंस की अधिकारी व वुमन मिलिट्री पुलिस सोल्जर्स की प्रशिक्षण अधिकारी चूंकि पुलिस सैनिकों को तैयार करना था। इसलिए सबसे पहले इसके लिए अनुकूल वातावरण तैयार करना जरूरी था। इसके लिए हमने प्रशिक्षण से पहले ही तैयारी शुरू कर दी थी। प्रशिक्षकों को प्रशिक्षण देना, लैैंगिक विषयों को लेकर संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाना और उनके परिवारों को समझाना बड़ी चुनौती थी। इसे एक योजनाबद्ध तरीके से किया गया और उसे बेहतर तरीके से क्रियान्वित भी किया गया। प्रशिक्षकों को बताया गया कि किस तरह शारीरिक दूरी बनाते हुए इन महिला सैनिकों को हथियारों का प्रशिक्षण देना है। कभी भी सिपाही का कोई जेंडर नहीं होता। ऐसे में ट्रेनिंग में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया गया और अब इनके नाम के आगे से महिला पुलिस सोल्जर का नाम हटाकर पुलिस सोल्जर कर दिया गया है।
महिला सैनिकों ने रचा इतिहास: कर्नल आरएस दलाल, डिप्टी कमाडेंट व चीफ इंस्ट्रक्टर महिला सैनिकों ने जो आज इतिहास रचा है, यह दो साल के प्रयास का नतीजा है कि किसी तरह की कोई समस्या नहीं आई। जून 2017 में इस योजना पर काम शुरू हुआ था और 11 दिसंबर 2019 को पहली महिला प्रशिक्षण के लिए पहुंची थी। इसके लिए जरूरी होमवर्क पूरा कर लिया गया था। तकनीकी तौर पर महिला और पुरुष सोल्जर्स में कोई अंतर नहीं था, लेकिन शारीरिक क्षमता के अनुसार कुछ अंतर था, लेकिन वह भी आड़े नहीं आया। तीन महिला अधिकारियों और एक मेडिकल महिला अधिकारी प्रशिक्षण के दौरान वहां थीं जिनसे यह सोल्जर कभी भी बात कर सकती थीं। ऐसे में किसी तरह की कोई परेशानी नहीं आई।
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