भारतीय साहित्य का एक उपन्यास, जिसे पढ़ने के बाद कोई पाठक नहीं चाहेगा उसके नायक जैसा बनना, पढ़ें-यह रोचक स्टोरी
Author Sarat Chandra Chattopadhyay शरतचंद्र चट्टोपाध्याय भारतीय साहित्य ने बड़े उपन्सायकारों में शुमार हैं। देवदास और चरित्रहीन जैसी कृतियों से लेखक ने बंगाल भाषा से निकल सभी भारतीय भाषाओं में अपना नाम किया है। इनके उपन्साय कई विदेश भाषाओं में भी अनूदित किए गए हैं।

नई दिल्ली, जागरण डिजिटल डेस्क। अपनी लेखनी के जरिये बंगला भाषा ही नहीं, बल्कि समूचे भारतीय साहित्य जगत में शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ऐसे सितारे बन गए हैं, जो सदियों तक चमकते रहेंगे। पाठकों के दिलों में उन्होंने ऐसी जगह बनाई है कि वह मुंशी प्रेमचंद्र और रवींद्रनाथ टैगोर की कतार में खड़े हैं।
एक बात और शरतचंद्र चट्टोपाध्या ने ही मुंशी प्रेमचंद्र को उपन्यास सम्राट की उपाधि दी, जिसके बाद उन्हें उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के नाम से जाना है। शरतचंद्र को उनके लोकप्रिय उपन्यास 'देवदास' की वजह से ही नहीं वरन अन्य कई चर्चित साहित्यिक कृतियों की वजह से भी प्रसिद्धि मिली है।
अमर हो गए तीनों पात्र
'देवदास' का प्रथम प्रकाशन वर्ष 1917 के आसपास हुआ था। आलोचकों की मानें तो यह उपन्यास बंगाल में उसी समाज का चित्रण भी करता है, जो उस समय था। इस उपन्यास में बंगला संस्कृति का जादुई चित्रण है। इसके पात्र देवदास, पारो और चंद्रमुखी, तीनों ही अलग-अलग परिवेश और परवरिश से आते हैं, लेकिन शरतचंद्र ने तीनों का प्रेम के ऐसे धागे से बांधा कि ये चरित्र अमर हो गए। उपन्यास का अंत दुखद है, इसलिए इसके पात्र देवदास के प्रति पाठकों के मन में करुणा का भाव रहता है।
युवाओं को खूब भाया 'देवदास'... लेकिन
'देवदास' उपन्यास कभी युवाओं की पहली पसंद था। इस उपन्यास का नायक जिस तरह दर्दनाक मौत मरता है, वह हिलाकर रख देने वाला है। ऐसे में कहा जा सकता है कि अपनी लोकप्रियता के बावजूद इस उपन्यास का नायक बनने की जुर्रत कोई युवा नहीं करेगा।
नायक की मौत है दिल दहला देने वाली
इस उपन्यास के नायक 'देवदास' की मौत उस स्थान पर होती है, जहां से उसकी प्रेमिका पारो का घर चंद कदमों की दूरी पर होता है। उपन्यास के नायक देवदास का अंत कुछ इस तरह होता कि उसकी मौत पर कोई रोना वाला नहीं होता। न मां और न ही भाई। प्रेमिका पारो अपने प्रेमी की मौत पर आंसू तो बहाना चाहती है, लेकिन उसका पति इसकी इजाजत नहीं देता।
कोई नहीं बनना चाहेगा 'देवदास'
उपन्यास के अंत में लेखक शरतचंद्र कहते हैं -"तुममें से जो कोई यह कहानी पढ़ेगा, वह मेरी तरह ही दुःख पाएगा। फिर भी अगर कभी देवदास की तरह अभागे, असंयमी और पापी के साथ परिचय हो, तो उसके लिए प्रार्थना करना कि और जो कुछ भी हो, किन्तु इस तरह उस जैसी मौत किसी की न हो"
'देवदास' की तरह 'चरित्रहीन' भी हुआ खूब लोकप्रिय
यह सच है कि शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का लिखा गया उपन्यास 'देवदास' देश की सर्वाधिक चर्चित रचनाओं में शुमार है, लेकिन उनकी अन्य रचनाएं भी कम लोकप्रिय नहीं हैं। एक ओर जहां युवकों को 'देवदास' भाया तो युवतियों के अंतर्मन को टटोलता शरतचंद्र का उपन्साय 'चरित्रहीन' की लोकप्रियता भी कम नहीं है।
'चरित्रहीन' को पढ़कर रो पड़ती थी लड़कियां
'देवदास' के बाद अगर दूसरा कोई उपन्यास सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ वह है 'चरित्रहीन'। इसमें कोई दो राय नहीं है कि लेखक अपनी कृतियों में कहीं ना कहीं होता है और यह होना उसकी रचनाओं में झलकता भी है। 'देवदास' के बारे में कहा जाता है कि शरतचंद्र ने बचपन में देवा अथवा देवदास के चरित्र को जिया है।
नारी की परम्परावादी छवि तोड़ता है 'चरित्रहीन'
इसी तरह 'चरित्रहीन' उपन्यास में शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने नारी मन के साथ-साथ मानव मन की सूक्ष्म प्रवृत्तियों का भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया। आलोचक भी मानते हैं कि यह उपन्यास नारी की परम्परावादी छवि को तोड़ने का भी सफल प्रयास करता है। जिस तरह 'देवदास' उपन्यास ने लड़कों के मन में गहरी छाप छोड़ी तो उसी तरह 'चरित्रहीन' ने लड़कियों के मन को बहुत मथा।
प्रेम नहीं वासना था देवदास का प्रेम
सुख सुखात्मक ही नहीं होता है, बल्कि यह दुख दुखात्मक भी होता है। यह साहित्य का सामान्य सिद्धांत है कि लोग सुख का आनंद तो लेते ही हैं, साथ ही वह दुख का भी आनंद लेते हैं। 'देवदास' कृति का नायक दुख को ही जीना चाहता है और वह अपना अंत भी दुख के साथ ही चाहता है। कुछ आलोचक मानते हैं कि देवदास चरित्र वासना के अधीन है, लेकिन सभी इससे सहमत नहीं हैं।
दरअसल, नायक देवदास चाहता तो वह पारो के साथ शादी कर सकता है, क्योंक उसने परिवार से विद्रोह किया था। बावजूद इसके वह द्वंद्व में रहा और पारो को उसके हाल पर छोड़ दिया। बावजूद इसके वह पारो से ही अंत तक प्रेम करता रहा है। इस बीच वह नाचने वाली चंद्रमुखी के संपर्क में आया, लेकिन वह उससे भी दूर हो गया। कुल मिलाकर देवदास में वासना तो नहीं ही थी, लेकिन वह एकाग्रचित नहीं था।
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