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    महिला-पुरुष के लिए शादी की न्यूनतम आयु समान करने की मांग, दिल्ली HC ने सुप्रीम कोर्ट को ट्रांसफर की याचिका

    By Jagran NewsEdited By: Shyamji Tiwari
    Updated: Tue, 31 Jan 2023 04:59 PM (IST)

    दिल्ली हाईकोर्ट ने मंगलवार को पुरूषों और महिलाओं की शादी के लिए न्यूनतम आयु की सीमा को एक करने वाली याचिका को सुप्रीम कोर्ट को भेज दिया है। याचिका में कहा गया कि दुनिया के 125 से अधिक देशों में विवाह की एक समान आयु है।

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    सुप्रीम कोर्ट को भेजी महिलाओं व पुरुषों के लिए शादी की न्यूनतम आयु समान करने की मांग वाली याचिका

    नई दिल्ली, डिजिटल डेस्क। महिलाओं और पुरुषों के लिए शादी की न्यूनतम उम्र एक समान करने की मांग वाली याचिका मंगलवार को दिल्ली हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट में भेज दी। मुख्य न्यायाधीश सतीश चंद्र शर्मा और न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद की दो सदस्यीय पीठ को याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट के 13 जनवरी के एक आदेश अवगत कराया, जिसमें इस याचिका को शीर्ष अदालत में स्थानांतरित कर दिया गया था।

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    BJP नेता अश्विनी उपाध्याय ने दायर की याचिका

    इसी आदेश के क्रम में पीठ ने रजिस्ट्री को निर्देश दिया कि वह रिकार्ड तत्काल सुप्रीम कोर्ट को प्रेषित करें। यह याचिका भाजपा नेता एवं अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने दायर की थी। इस पर हाईकोर्ट ने केंद्र की प्रतिक्रिया मांगी थी। याचिका में कहा गया था कि देश में पुरुषों के विवाह के लिए न्यूनतम आयु 21 वर्ष निर्धारित है, जबकि महिलाओं के लिए न्यूनतम आयु 18 वर्ष तय है।

    पुरुषों और महिलाओं के लिए शादी की न्यूनतम उम्र में अंतर पितृसत्तात्मक रूढ़ियों पर आधारित है और इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। यह भी कहा गया था कि शादी की उम्र में अंतर लैंगिक समानता, लैंगिक न्याय और महिलाओं की गरिमा के सिद्धांतों का उल्लंघन है।

    125 से अधिक देशों में एक समान आयु

    दिल्ली हाईकोर्ट के समक्ष याचिका में पहले कहा गया था कि वर्तमान में भारत में पुरुषों को 21 वर्ष की आयु में विवाह करने की अनुमति है, महिलाओं को 18 वर्ष की आयु में विवाह करने की अनुमति है। यह उल्लेख किया गया है कि दुनिया के 125 से अधिक देशों में विवाह की एक समान आयु है।

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    यह असमानता को बढ़ावा देता है

    बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि यह याचिका जनहित में अनुच्छेद 226 के तहत दायर की गई है और यह महिलाओं के खिलाफ खुलेआम और चल रहे भेदभाव को चुनौती देती है। इसका कोई वैज्ञानिक समर्थन नहीं है, यह महिलाओं के खिलाफ कानूनी और वास्तविक असमानता को बढ़ावा देता है और पूरी तरह से वैश्विक रुझानों के खिलाफ है।

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