समझिए क्या है क्लाउड सीडिंग तकनीक? परिणाम से लेकर विदेशी रिकॉर्ड भी जानिए
भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) पुणे के शोधकर्ताओं के अनुसार, क्लाउड सीडिंग बादलों में बदलाव कर वर्षा कराने की एक तकनीक है। इसमें सिल्वर आयोडाइड जैसे कणों का उपयोग किया जाता है। हालांकि, इसकी प्रभावशीलता पर अभी भी सवाल हैं और पर्यावरणीय खतरे भी हो सकते हैं। 1970 के दशक में किए गए प्रयोगों में वर्षा में वृद्धि देखी गई, लेकिन कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं निकला।
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राज्य ब्यूरो, नई दिल्ली। भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) पुणे के शोधकर्ताओं द्वारा 2023 में जारी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि क्लाउड सीडिंग बादलों में बदलाव कर वर्षा कराने वाली तकनीक है।
बताया कि एक विमान का उपयोग करके सिल्वर आयोडाइड या रासायनिक घोल जैसे कणों को बादलों में मिलाया जाता है, जो 'बीज' के रूप में कार्य करते हैं और जिनके चारों ओर जल वाष्प संघनित होता है।
ठंडे बादलों में, जहां तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस से कम होता है, सिल्वर आयोडाइड के कण बादल में मिलाए जाते हैं। इससे पानी और बर्फ जमा हो जाती है। भारी होने के कारण ये जुड़े हुए कण नीचे गिरते हैं और जमीन के पास तापमान बढ़ने पर पिघल जाते हैं।
शोधकर्ताओं ने बताया कि नमी भरे बादलों में जहां तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस से ऊपर होता है, सोडियम क्लोराइड या पोटेशियम क्लोराइड जैसे रासायनिक घोल का उपयोग पानी की बूंदों के संलयन को बढ़ावा देने और वर्षा कराने की दक्षता में सुधार करने के लिए 'सीडिंग एजेंट' के रूप में किया जाता है।
मालूम हो कि वायुमंडलीय विज्ञानी बर्नार्ड वोनगुट ने 1947 में कृत्रिम वर्षा कराने के प्रयासों को आगे बढ़ाया, जब सिल्वर आयोडाइड क्रिस्टल का उपयोग करके शुष्क बर्फ की तुलना में क्लाउड सीडिंग में बेहतर परिणाम प्राप्त हुए।
आईआईटीएम की रिपोर्ट के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका के अध्ययनों से पता चलता है कि पर्वतीय बादलों में शीत क्लाउड सीडिंग- पहाड़ी क्षेत्रों में जहां हवा में प्राकृतिक उत्थापन प्रक्रियाएं बादलों के निर्माण में मदद करती हैं- बर्फबारी को बढ़ा सकती है।
हालांकि, अमेरिकी सरकार के जवाबदेही कार्यालय की 2024 की एक रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक स्तर पर क्लाउड सीडिंग की प्रभावशीलता के भी सीमित प्रमाण हैं। इसीलिए इसके प्रभावों के लिए तकनीक का मूल्यांकन करना एक चुनौती बन जाता है।
इसके अलावा, सीडिंग एजेंट- जो कृत्रिम वर्षा या हिमपात के साथ जमीन पर गिरते हैं- पर्यावरणीय खतरा पैदा कर सकते हैं क्योंकि 'क्लाउड-सीडिंग परियोजनाओं के आसपास के स्थानों में पाए जाने वाले अवशिष्ट सिल्वर (सिल्वर आयोडाइड से) को विषाक्त माना जाता है।' शोधकर्ताओं ने 'एडवांस इन एग्रीकल्चरल टेक्नोलाजी एंड प्लांट साइंसेज' पत्रिका में जनवरी 2025 में प्रकाशित एक अध्ययन में लिखा है।
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वे कहते हैं, 'सूखी बर्फ भी ग्रीनहाउस गैस का स्रोत हो सकती है जो ग्लोबल वार्मिंग में योगदान देती है, क्योंकि यह मूलतः (ठोस) कार्बन डाइआक्साइड है।' आइआइटीएम की रिपोर्ट 1970 के दशक में संस्थान द्वारा किए गए क्लाउड-सीडिंग प्रयोगों की ओर भी इशारा करती है, जिनसे वर्षा में 17 प्रतिशत की वृद्धि का संकेत मिला था। हालांकि इस तकनीक की प्रभावशीलता पर कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सका।
हाल के दशकों में, क्लाउड सीडिंग के लिए उपयुक्त स्थान की पहचान करने हेतु भारत भर में विभिन्न स्थानों पर एरोसोल और बादल की बूंदों के व्यवहार का सर्वेक्षण करने के लिए प्रयोग और अवलोकन किए गए हैं।
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आईआईटीएम के शोधकर्ताओं ने क्लाउड-सीडिंग प्रयोगों को सही ढंग से करने के लिए सावधानियों पर भी ध्यान आकर्षित किया है। इसमें मौसम की स्थिति और आसन्न गंभीर मौसम की जानकारी होना भी शामिल है। उन्होंने कहा कि सुरक्षा और संरक्षा के लिए उड़ान प्रतिबंधों और अनुमतियों की पहले से जानकारी लेना आवश्यक है।
शोधकर्ताओं ने कहा कि सीडिंग से पहले, उसके दौरान और बाद में बादलों की जानकारी, एक विमान और यह अवलोकन कि सीडिंग के लिए किस बादल का चयन किया जा सकता है, परीक्षण करने की आवश्यकताओं में शामिल हैं।

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