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    इस शख्स को मिले थे लकीर खींच पाकिस्तान बनाने के ₹237880, जानें फिर क्यों ठुकराया और जीवन भर करता रहा पछतावा

    Updated: Fri, 15 Aug 2025 07:54 AM (IST)

    Independence Day 2025 1947 की गर्मियों में एक ब्रिटिश वकील सिरिल रैडक्लिफ (Cyril Radcliffe) पहली बार भारत की जमीन पर उतरे। न उन्होंने कभी यहां का मौसम झेला था न लोगों से कोई गहरी पहचान थी और अचानक उन्हें (Independence Day Special) सौंप दिया गया दुनिया का सबसे कठिन काम महज पांच हफ्तों में पूरे उपमहाद्वीप को दो देशों में बांटने का।

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    बंटवारे करने वाले ब्रिटिश वकील (Cyril Radcliffe) सिरिल रैडक्लिफ।

    Independence Day 2025: साल था अगस्त 1947 का! आजादी का जश्न, लेकिन साथ ही बंटवारे का सबसे गहरा जख्म। इस जख्म का नक्शा खींचने का काम सौंपा गया था एक ऐसे ब्रिटिश वकील को, जिसने न पहले भारत देखा था, न इसकी जटिलताओं को जाना था। नाम था (Cyril Radcliffe) सिरिल रैडक्लिफ। महज 36 दिनों में उन्हें 4.5 लाख वर्ग किलोमीटर जमीन, सैकड़ों हजार गांव और 40 करोड़ से ज्यादा लोगों को दो हिस्सों में बांटना था। वो भी अधूरे नक्शों और टकराते राजनीतिक दबावों के बीच।

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    काम खत्म होने पर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ₹2,37,880 रुपये (तब के £2,000) देने की पेशकश की। लेकिन रैडक्लिफ ने वो रकम लेने से साफ इनकार कर दिया। वजह? बंटवारे के बाद फैली हिंसा, लाखों लोगों का उजड़ना और उनके हाथों खींची लकीर से उठी वह आग, जिसने पूरे उपमहाद्वीप को झुलसा दिया। चलिए इसे विस्तार से जानते हैं...

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    रैडक्लिफ को सिर्फ 36 दिन मिले। उनके सामने था 4.5 लाख वर्ग किलोमीटर का इलाका, सैकड़ों हजार गाँव, और 40 करोड़ से ज़्यादा लोग। अधूरे नक्शे, जल्दबाजी में बनी रिपोर्टें और राजनीतिक तनातनी।

    खुद के फैसले, खुद का बोझ

    भारतीय और पाकिस्तानी प्रतिनिधि जब सहमति पर नहीं पहुंचे, तो आखिरी सीमाएं रैडक्लिफ ने खुद खींचीं। नतीजे में आई रैडक्लिफ लाइन। इसे आजादी के बाद घोषित किया गया और फिर शुरू हुआ अराजकता का सिलसिला।

    10 से 14 मिलियन लोग मजबूरन अपना घर छोड़ने पर मजबूर हुए। कुछ पैदल, कुछ बैलगाड़ी पर, और हजारों ट्रेन से लेकिन सफर अक्सर हिंसा, लूट और खूनखराबे से भरा था।

    कई गाँव एक रात में दो हिस्सों में बँट गए। कुछ परिवार अलग-अलग देशों में बिखर गए। लाहौर और अमृतसर जैसे शहर भी इस लकीर के बीच फंस गए एक लकीर, जो असल में लंदन के एक दफ़्तर में खींची गई थी। रैडक्लिफ ने जानबूझकर कश्मीर का मुद्दा अधूरा छोड़ दिया। यही अधूरापन आगे तीन युद्धों और दशकों की हिंसा का कारण बना।

    पछतावे की आग

    बंटवारे के बाद हुए ख़ून-खराबे ने रैडक्लिफ को भीतर तक झकझोर दिया। उन्होंने अपनी तयशुदा £2,000 की फ़ीस लेने से इनकार कर दिया, सारे कागज़ जलाए और कभी भारत लौटकर नहीं आए। उन्होंने बाद में स्वीकार किया। “मेरे पास कोई और रास्ता नहीं था, समय बहुत कम था।”

    आज भी जिंदा घाव

    रैडक्लिफ लाइन आज भी भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में जहर घोलती है। सरहद पर युद्ध, आतंकी घटनाएं और राजनीतिक तनाव सबकी जड़ें उसी पाँच हफ़्तों में खींची गई लकीर में छुपी हैं।

    सिरिल रैडक्लिफ ने बँटवारे का विचार नहीं बनाया था, लेकिन उन्होंने उसका सबसे खतरनाक नक्शा खींचा। इतिहास उन्हें एक दुखांत पात्र मानता है। समय से हारा, हालात में डूबा और एक ऐसी लकीर का बोझ उठाए, जो अब भी खून बहा रही है।