Swatantrata Ke Sarthi: अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाली वीरांगना, जेल की बेड़ियां भी नहीं तोड़ सकीं हौसला
सारण की धरती की वीरांगना बहुरिया जी जिनका असली नाम रामस्वरूपा देवी था ने 1942 के अगस्त क्रांति में अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व किया। उन्होंने ब्रिटिश सिपाहियों को मार भगाया और सात सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। गिरफ्तारी के बाद भी उनकी हिम्मत नहीं टूटी। 1952 में उन्होंने चुनाव जीता पर जल्द ही उनका निधन हो गया।
जाकिर अली, छपरा। सारण की धरती वीरता और बलिदान की अद्भुत कहानियों से भरी पड़ी है। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में यहां के गांव-गांव में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ असंतोष की आग सुलग रही थी।
यह वही समय था जब शहरों में महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह जैसे नेता आंदोलन की कमान संभाले हुए थे, और ग्रामीण इलाकों में साधारण लोग अपने-अपने तरीके से अंग्रेजी शासन को ललकार रहे थे।
इन्हीं में से एक थीं सारण की बहुरिया जी, जिनकी वीरता आज भी लोकगीतों, कहानियों और दादी-नानी के किस्सों में गूंजती है। इनका वास्तविक नाम रामस्वरूपा देवी था। वह सारण जिले के अमनौर गांव की निवासी थीं।
1942 के अगस्त क्रांति में उन्होंने स्थानीय आंदोलन का नेतृत्व किया। उस समय ब्रिटिश पुलिस और सैनिक गांवों में बेगार करवाते, अनाज-जमीन जब्त करते और महिलाओं का अपमान करते थे। बहुरिया जी के परिवार पर भी अंग्रेजों ने अत्याचार किया, जिसने उनके भीतर विद्रोह की ज्वाला भड़का दी।
अगस्त 1942 में एक सभा के दौरान अंग्रेजी सिपाहियों ने हमला किया। बहुरिया जी ने बिना डरे डटकर मुकाबला किया। इस भीषण मुठभेड़ में कई अंग्रेज सैनिक मारे गए, जबकि कुछ अपनी जान बचाकर भाग निकले। बहुरिया जी खुद सबसे आगे थीं। हथियार से वार करतीं और महिलाओं को उत्साहित करतीं।
अंग्रेजों को कभी उम्मीद नहीं थी कि ग्रामीण महिलाएं भी इस तरह उनके खिलाफ सीधे लड़ाई लड़ सकती हैं। सात अंग्रेज सैनिकों को लाठी-भाले से मौत के घाट उतार दिया गया। इसके बाद उनके शव को बड़े पत्थरों में बांध कर गंडक नदी में बहा दिया गया।
अंग्रेज अधिकारियों को उनके सिपाहियों की मौत का कोई सुराग नही मिल सका। यह साहसिक घटना गांव-गांव में चर्चा का विषय बन गई और ग्रामीणों में प्रतिरोध की नई लहर पैदा कर दी। अंग्रेज भी बदला लेने में पीछे नहीं रहे।
22 अगस्त 1942 को उन्होंने बहुरिया जी के घर में आग लगा दी और उन्हें गिरफ्तार कर भागलपुर जेल भेज दिया। जेल की यातनाएं सहने के बाद भी उनकी हिम्मत नहीं टूटी। आज़ादी मिलने के बाद भी बहुरिया जी का संघर्ष थमा नहीं।
उन्होंने राजनीति में कदम रखा और 1952 में स्वतंत्र भारत के पहले विधानसभा चुनाव में भाग लिया। अपनी लोकप्रियता और संघर्षशील छवि के दम पर उन्होंने भारी बहुमत से जीत हासिल की। हालांकि, किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया और जीत के कुछ ही समय बाद उनका निधन हो गया।
इतिहास में भले ही उनके जीवन के सारे विवरण दर्ज न हों, लेकिन सारण की बहुरिया जी का नाम आज भी सम्मान से लिया जाता है।
वे इस बात का प्रमाण हैं कि स्वतंत्रता संग्राम सिर्फ शहरों के नेताओं या अखबारों की सुर्खियों तक सीमित नहीं था, बल्कि गांव की मिट्टी में भी ऐसे योद्धा पैदा हुए, जिन्होंने बिना औपचारिक सेना या प्रशिक्षण के, केवल साहस और संगठन-शक्ति के बल पर साम्राज्यवादी ताकतों को चुनौती दी।
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