Bihar Politics: बिहार में 26 साल बाद मुस्लिम राज्यपाल, वह भी चुनावी वर्ष में; कुछ ऐसा है समीकरण
आरिफ मोहम्मद खान के बिहार के राज्यपाल बनने से राजनीतिक गलियारों में चर्चाओं का बाजार गर्म है। 26 साल बाद बिहार को मुस्लिम राज्यपाल मिला है। आरिफ मोहम्मद खान की नियुक्ति के पीछे कई मायने निकाले जा रहे हैं। कुछ का मानना है कि इससे मुस्लिम वोटों का विभाजन हो सकता है जबकि कुछ का कहना है कि इससे भाजपा को अल्पसंख्यकों के बीच अपनी छवि सुधारने में मदद मिलेगी।
विकाश चन्द्र पाण्डेय, पटना। कार्यकाल पूरा करने के बाद अगर स्थान परिवर्तन हो तो किसी अतिरिक्त अर्थ की संभावना नहीं होती, लेकिन चुनावी वर्ष में आरिफ मोहम्मद खान को बिहार का राज्यपाल बनाए जाने के बाद राजनीतिक गलियारे में बहुआयामी चर्चाओं का अवसर बन आया है।
चूंकि विधानसभा चुनाव से पहले ही मुसलमानों के मतों के एकीकरण व विभाजन की राजनीति चरम की ओर बढ़ चली है, ऐसे में चर्चा है कि 26 वर्षों के अंतराल के बाद बिहार को यूं ही मुस्लिम राज्यपाल नहीं मिला है।
केरल की वामपंथी सरकार के साथ आरिफ मुद्दागत टकराव के कारण चर्चा में रहे हैं और यह भी महत्वपूर्ण कि मोदी सरकार में आनंदी बेन पटेल के बाद वे दूसरे व्यक्ति हैं, जिन्हें पिछले एक दशक में बतौर राज्यपाल दूसरा कार्यकाल मिल रहा।
राजेंद्र विश्वनाथ आर्लेकर को केरला का कमान
14 फरवरी, 2023 को बिहार का राज्यपाल बने राजेंद्र विश्वनाथ आर्लेकर अब केरल में दायित्व संभालने निकल चुके है। गुरुवार को शपथ ग्रहण से तीन दिन पहले ही पटना पहुंच चुके आरिफ अपने कामकाज की शैली का संकेत भी दे चुके हैं।
पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे और भाजपा के सांसद रहे आरके सिन्हा के यहां भोजन, मुख्यमंत्री की मां को श्रद्धांजलि देने उनके गांव जाना और वर्षों पुराने मित्र नियाज अहमद से मिलने उनके आवास पर जाकर उन्होंने अपनी उसी उदार व मिलनसार छवि का परिचय दिया है, जिसके कारण वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के प्रिय हैं।
राज्यपाल के रूप में दूसरे कार्यकाल का कारण मुस्लिम विद्वान होने के साथ ही उनकी यह सदाशयता भी है। विद्वता जहां उच्चतर शिक्षा व्यवस्था में दायित्वों के प्रति आश्वस्त करती है, वही उदार छवि अपने एजेंडे पर आगे बढ़ रही भाजपा के प्रति अल्पसंख्यकों को किसी भी भय से निश्चिंत करती है।
ऐसी छवि सहयोगी दलों को भी भाजपा के सानिध्य में उनके अपने जनाधार की गारंटी देती है। उप चुनाव में बेलागंज मेंं जदयू की जीत से बिहार के संदर्भ में यह गारंटी इसलिए भी महत्वपूर्ण हो गई है, क्योंकि यहां विधानसभा की लगभग चार दर्जन सीटों का परिणाम मुसलमानों के रुख से प्रभावित होता रहा है।
माय समीकरण में सेंधमारी
माय (मुसलमान-यादव) समीकरण में सेंधमारी से राजद को उस बेलागंज में मुंह की खानी पड़ी, जहां वह पिछले छह चुनावों में निर्बाध विजयी रही थी। वोटों की इस सेंधमारी में जन सुराज पार्टी का भी योगदान है, जिसने विधानसभा की 40 सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी देने की घोषणा कर रखी है।
मुसलमानों के वोट से वंचित होने की अपने कुछ नेताओं की धारणा के बावजूद जदयू नेतृत्व की सहानुभूति इस वर्ग के साथ पूर्ववत है।
ऐसे में समाजवादी पृष्ठभूमि वाले आरिफ की उपस्थिति मुस्लिम बहुल सीमांचल में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को कुछ सहज रखेगी, जहां पिछले वर्ष अक्टूबर मेंं केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह हिंदू स्वाभिमान यात्रा निकाल चुके हैं।
मुसलमान और मत
- 2010 में जदयू को मुसलमानों के 40 प्रतिशत मत मिले थे और 2020 में 11 प्रतिशत। हालांकि, उसका एक भी मुस्लिम प्रत्याशी विजयी नहीं हुआ।
- मुसलमानों के 14 प्रतिशत वोट लेकर एआइएमआइएम ने विधानसभा की पांच सीटें झटक लीं। लगभग 77 प्रतिशत मुसलमानों ने महागठबंधन को वोट दिया था। अब मुसलमानों के वोट में हिस्सेदारी के लिए जन सुराज पार्टी भी आकुल है।
समय और संयोग
आरिफ से पहले मुस्लिम समाज से एआर किदवई यहां राज्यपाल (14 अगस्त 1993 से 26 अप्रैल 1998 तक) रहे थे। वे भी उत्तर प्रदेश से ही थे। लोकदल से अपनी राजनीति की शुरुआत करने वाले बुलंदशहर के आरिफ कांग्रेस और बसपा होते हुए भाजपा में आए।
शाहबानो कांड पर बेबाक राय के कारण कांग्रेस से बेदखल हुए। हाल-फिलहाल योगी के नारे (बंटेंगे तो कटेंगे) को सभी समाज के लिए उपयुक्त बताकर वे सुर्खियों में रहे।
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