Holi 2025: बिहार में बस जुबानी होती जा रहीं परंपराएं, दीपावली से होली तक पहले ऐसा रहता था माहौल
Holi 2025 बिहार में होली से लेकर दिवाली मनाने के तरीके बदलते जा रहे हैं। यदि आप पहले के समय की बात करें तो उस समय परिवार में अलग ही रौनक होती थी। लेकिन अब तो ये त्योहार जुबानी होते जा रहे हैं। घूरा (अलाव) तापने की परंपरा को याद करिए। दीपावली के दिन दीप-बत्ती जलाने के बाद दलान खलिहान आंगन में घूरा के लिए जगह तय की जाती थी।

अमरेंद्र तिवारी,मुजफ्फरपुर। Holi in Bihar: वे भी क्या दिन थे...। दालान-खलिहान, घर-आंगन, दीया-बाती, सम्हत-लुकारी और अलुआ-सतुआ...। संस्कृति के रंग में संस्कारों की रंगत दिखती तो जीवन के सबरंग, एकरंग हो जाते और फिर गूंज उठता...जोगीरा सा रा रा। कहीं ढोलक की थाप तो कहीं झाल की झंकार...। अब ऐसी परंपराएं बड़ों की जुबानी ही रह गई है। ज्यों-ज्यों जीवन के रंग बदले, रंगत उतरती गई।
घूरा (अलाव) तापने की उस परंपरा को याद करिए। दीपावली के दिन दीप-बत्ती जलाने के बाद दलान, खलिहान, आंगन में घूरा के लिए जगह तय की जाती थी। गांव में जिसके दरवाजे पर बैठका रहता था, वहां एक से दो फीट वृत्ताकार गड्ढा खोदने के बाद घूरा लगाया जाता था।
वहां पर अंदर लकड़ी का टुकड़ा डालते फिर खर-पतवार और पुआल डालकर घूरा जलाया जाता था। होलिका दहन के बाद उसकी विदाई हो जाती थी।
इसके साथ ही उस दिन से पूरे गांव में कह दिया जाता था कि खाना सूर्योदय के साथ सुबह सात से आठ बजे के बीच तैयार कर लेना है।
घूरा के पास होती थी कथा-कहानी
सदातपुर निवासी 65 साल के शंभूनाथ चौबे कहते हैं कि उनके घर पर भी बड़ा सा घूरा लगता था। तब हम लोग बच्चे थे, वहां पर शाम में 10 से 20 लोग बैठकर आग तापते थे।
वहां पर तरह-तरह की कथा-कहानी कही-सुनी जाती थी। सुबह होते ही घूरा की बची आग में आलू-शकरकंद पकने को रख दिया जाता था।
दातुन बनाने के बाद शकरकंद निकाल उसे दूध के साथ खाया जाता था। हम बच्चों के लिए तो आलू ही मेवा-मलाई होता था। आलू-शकरकंद (अलुआ) तो रह गया, घूरा की आग ठंडी हो गई है।
मेरे घर के बगल में कलवारी के नथूनी सिंह के दरवाजे पर बड़ा घूरा लगता था। गांव-गांव घोषणा कर दी जाती थी कि सुबह 7 बजे से पहले भोजन बन जाए। चूल्हा-चौका सब बंद।
ऐसा इसलिए कि अगलगी की घटना नहीं हो। जब पुरवा और पछिया हवा चलेगी तो अगलगी होती। उसी तरह से शाम में भी जल्दी भोजन बनाने की पंरपरा थी।
घूरा की जगह अब हीटर
- जसौली निवासी 75 साल के शशिकांत तिवारी कहते हैं कि जिस तरह से बिजली की उपलब्धता बढ़ी, उसके बाद हीटर की पहुंच ने घूरे की परंपरा खत्म कर दी।
- अब ठंड में कुछ दिनों के लिए अलाव लोग जलाते हैं। उसके बाद सब समाप्त हो जाता है।
- घूरा के बहाने जो भी दरवाजे पर पुआल व अन्य खर-पतवार रहते, उसका उपयोग कर दिया जाता है। राख का उपयोग खाद की तरह खेत में किया जाता था।
- अब जब ठंड ज्यादा होती है तो उस दिन लोग घर के बाहर अलाव जलाते या फिर प्रशासन की ओर से अलाव जलाया जाता है।
झोपड़ी के होते थे घर, आग के डर से दिन में सत्तू आहार
बिहार मोटर्स ट्रांसपोर्ट फेडरेशन के उदय शंकर प्रसाद सिंह कहते हैं, होली के दिन से घूरा जलना बंद हो जाता है। इसके पीछे का एक बड़ा कारण था कि खेतों से फसल कटकर खलिहान में आने लगती थी। वहीं, झोपड़ी के घर ही अधिक होते थे।
घूरा के साथ दिन में चूल्हा नहीं जलता था। इस कारण सत्तू का चलन दोपहर के भोजन के रूप में होता था। सत्तू का दूसरे रूप में अब उपयोग हो रहा, मगर घूरा कम ही देखने को मिलता है।
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