भूल गए कन्हा तोहरी नगरी में. जैसे भावपूर्ण फागुन के गीत
मोतिहारी। अवध में होरी खेले रघुवीरा. व होलिया में उड़े रे गुलाल.। कन्हा तोहरी नगरी
मोतिहारी। अवध में होरी खेले रघुवीरा. व होलिया में उड़े रे गुलाल.। कन्हा तोहरी नगरी में. जैसे भाव पूर्ण फागुन के गीत अब शायद ही कही सुनने को मिलते हैं। वसंत पंचमी से शुरू होकर चैत माह के आगमन तक ढोलक, झाल, झांझ, करताल जैसे वाद्य यंत्रों की सुमधुर धुन पर कभी हर शाम गांवों के मंदिरों पर ग्रामीणों की टोली इक्कठी हो होली के गीतों की तान छेड़ देती थी। यह सुर लहरी मध्य रात्रि के बाद तक जारी रहती थी। फागुन के गीत, जोगीरा, चैतावर,धमार इत्यादि के माध्यम से रात परवान चढ़ती थी। नि:शब्द रात्रि में उठती वाद्य यंत्रों की धुन के साथ गवैयों की सुमधुर आवाज होली के आगमन का एहसास कराती रहती थी। होली के दिन यह टोली गांव के हर दरवाजे पर पहुंच कर होली गीतों का रसास्वादन कराती थी। लोग इस मंडली के लिए शर्बत, पकवान, भांग इत्यादि की व्यवस्था विशेष रूप से रखते थे। सदा आनंद रहे एहि दुआरी, मोहन खेले होली रे.. जैसे आशीर्वाद देने वाले गीत से कार्यक्रम की शुरूआत होती थी। फिर देवी देवताओं, गुरु की वंदना के गीत जैसे पहिले सुमिरौं गुरुदेव को जिसने दिया है ज्ञान जी,तब सुमिरौं मां सरस्वती को जिसने दिया है विद्या जी..इस गीत को जोगीरा के रूप में गाया जाता था। हे धनकुंड नाथ महराज शिव हो भोला बिराजे झाड़ी में.. अंगिका क्षेत्र का गीत था तो साहब मेरो बानिया, गुरु हो बैठे करे व्यापार, बिन डंडी बिन पालरा तौले जग संसार.. जैसे ब्रज गीतों को भी ग्रामीण कलाकार होली के रंगों में सरोबार कर गाते थे। बिना चुहलबाजी होली अधूरी लगती है। तो और समापन के क्रम में मचवले रे गोरिया, इनरवा पर.. झूमर जैसे गीतों की परंपरा थी। नयी पीढ़ी के बीच तो यह परम्परा पूरी तरह लुप्त होती जा रही है। इसकी जगह होली से जुड़े फिल्मी व अश्लील गीतों ने ले ली है। आलम है कि जोगीरा जैसे गायन अब गांवों में भी नहीं गाये जाते है। लोग इस गायन के सार्थकता से काफी दूर होते जा रहे है। जबकि छींटाकंसी व अश्लीलता का बोलबाला हो गया है। चैम्बर ऑफ कॉमर्स के महासचिव अभिमन्यु कुमार : होली के परंपरागत गीतों का अलग ही अंदाज होता है। जबकि आज होली के नाम पर फूहड़ व अश्लील गानों का बोलबाला हो गया है। नई पीढ़ी को तो होली गीत भी याद नहीं है और उन्हें कोई बतानेवाला नहीं है। इसलिए होली महज हुड़दंग बनती जा रही है, जिसके लिए पहल करने की जरूरत है। सुप्रसिद्ध सर्जन व ईस्ट चम्पारण लायंस क्लब के अध्यक्ष डॉ. अजय वर्मा : महानगरीय संस्कृति के शोर में फागुन के गीत खो से गये हैं। यही कारण है कि वसंत की मादकता का जो अहसास पहले होता था, अब वैसा कुछ नही रहा। पहले होली के दिन लोग टोली बनाकर निकलते व फागुन के गीतों की स्वरलहरी पूरे वातावरण में गुंजायमान रहती थी। सुप्रसिद्ध लोक गायिका वंदना शुक्ला : जड़ों से कटने का अहसास क्या होता है यह नई पीढ़ी को देखकर अंदाज लगाया जा सकता है। होली के सुमधुर गीतों की जगह फूहड़ता व अश्लीलता ने ले ली है, जिससे होली का असली मजा ही विलुप्त होता जा रहा है। आज की पीढ़ी को तो शायद पता भी न होगा-आगे अरवा चावल के भात पकवले, खड़ा मसूर के दाल.. जैसे गाने कभी होली में गांव-गांव गाये जाते थे। आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम अपनी परम्पराओं को भूलते जा रहे हैं। जरूरी है कि हम नई पीढ़ी को भी अपनी परम्पराओं से अवगत कराएं। सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता दिनेश पासवान : वह दिन आज भी याद आते हैं जब होली ह़फ्तों पहले से ही गायन वादन का दौर शुरू हो जाता था। कही एक जगह बैठकर लोग ढोल मंजीरे के साथ होली के गीत गाते थे। विशेषकर होली वाले दिन कादो माटी सने हम सब घर घर जाकर होली के गीत गाते थे व विभिन्न तरह के पकवानों का लुत्फ उठाते थे। मगर आज वह सब विलुप्त होते जा रहा है।