खुश न हो पाकिस्तान, अफगान-तालिबान वार्ता में मध्यस्थ बनने से बढ़ गई हैं चुनौतियां
अफगानिस्तान शांति वार्ता को लेकर पाकिस्तान काफी इतरा रहा है। वजह है इसमें उसकी बड़ी भूमिका। लेकिन पाकिस्तान के रक्षा विशेषज्ञ इसको सफलता से अधिक चुनौती मानते हैं।
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। अफगान-तालिबान शांति वार्ता में बड़ी भूमिका मिलने से इठलाए पाकिस्तान की राह इससे कम नहीं होने वाली हैं। ऐसा हम नहीं बल्कि पाकिस्तान के रक्षा मामलों से जुड़े जानकार मानते हैं। दरअसल, पाकिस्तान बार-बार इस वार्ता में भारत को तवज्जो न दिए जाने और उसको बड़ी भूमिका दिए जाने पर खुशी का इजहार करता रहा है। पाकिस्तान का यहां तक कहना है कि अमेरिका ने उसे यह जिम्मेदारी यूं ही नहीं दी है बल्कि वह जानता है कि हम कितने जिम्मेदार मुल्क हैं। लेकिन, इसके उलट मोहम्मद आमिर राणा का कहना कुछ और ही है।
वह मानते हैं कि तालिबान पाकिस्तान के लिए पहले भी किसी चुनौती से कम नहीं था और आगे भी इसकी चुनौतियां बरकरार बनी रहेंगी। उनकी मानें तो चीन, रूस और अमेरिका पाकिस्तान पर भरोसा कर सकते हैं, लेकिन यदि तालिबान ने पाकिस्तान को सुनने से मना कर दिया तो वह कुछ नहीं कर सकेगा। यदि ऐसा हुआ तो अफगान-तलिबान वार्ता के लिए बेहद बुरा होगा। राणा ने पाकिस्तान के अंग्रेजी अखबार के लिए एक लेख में यहां तक लिखा है कि तालिबान के कई फील्ड कमांडर पाकिस्तान से काफी खफा हैं। इतना ही नहीं शांति वार्ता के दौरान कई बार ऐसा देखने को मिला है जब इन्होंने पाकिस्तान के तर्क का खुलेआम विरोध किया है। ऐसी स्थिति में पाकिस्तान के लिए सबसे बड़ी समस्या यही है कि वह आखिर क्या करे। राणा की राय में इसका एक उपाय ये हो सकता है कि तालिबान को पाकिस्तान में घुसते ही गिरफ्तार कर लिया जाए। दूसरा उपाय ये भी है कि जिन तालिबानी कमांडरों के परिवार पाकिस्तान में हैं उनका एक जरिया बनाया जाए, जिससे वह सिर न उठा सकें।
इसके अलावा पाकिस्तान के पास तालिबान पर दबाव डालने का एक और तरीका भी है। इसमें हक्कानी पाकिस्तान के लिए बेहतर जरिया हो सकता है, लेकिन उसकी भी अपनी सीमाएं हैं। चौथा उपाय ये है कि पाकिस्तान हर तरह से तालिबान से संबंधों को खत्म कर दे। यह सवाल बेहद पेचीदा जरूर है लेकिन, तालिबान इसके लिए खुद को तैयार नहीं कर सकेगा। राणा की मानें तो अफगान-तालिबान वार्ता में महज मध्यस्थ बनने से ही पाकिस्तान को खुश होने की जरूरत नहीं है। यहां पर सबसे बड़ी चुनौती पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के सामने है, जिन्हें विश्व समुदाय के सामने खुद को साबित करना होगा और वैश्विक मंच की सोच पर भी खरा उतरना होगा।
आपको यहां पर बता दें कि अफगान-तालिबान शांति वार्ता में पाकिस्तान के अलावा अमेरिका भी एक पक्ष है। जिसके लिए इस वार्ता का हर हाल में सफल होना बेहद जरूरी है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अमेरिका अब यहां से अपनी सेना की वापसी चाहता है। दूसरी वजह ये भी है कि डोनाल्ड ट्रंप के लिए आने वाले चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा बनने वाला है। यदि वह अपनी इस मुहिम में सफल हो जाते हैं तो इसको चुनाव में भुनाने से भी वह नहीं चूकेंगे। राणा का ये भी मानना है कि पाकिस्तान अमेरिका के लिए इस मोर्चे पर जरूरत से ज्यादा मजबूरी बन गया है। वह ये भी मानते हैं कि बीते कुछ वर्षों में पाकिस्तान को अमेरिका की बेरुखी से आर्थिकतौर पर काफी नुकसान उठाना पड़ा है। वह इसकी वजह तालिबान समेत अन्य आतंकी संगठनों से पाकिस्तान की नजदीकी को मानते हैं।
राणा ने अपने लेख में यह भी कहा है कि इस बार अपनी जरूरत को ध्यान में रखते हुए अमेरिका पाकिस्तान से किसी तरह की कोई शर्त का भी जिक्र नहीं कर रहा है। इसके उलट वह इस बार काफी संजीदगी से पाकिस्तान से केवल दरखास्त कर रहा है। पाकिस्तान को अफगान-तालिबान शांति वार्ता में बड़ी भूमिका देना इस बात का सुबूत भी है कि उसका तालिबान पर कितना प्रभाव है। आपको यहां पर ये भी बताना जरूरी होगा कि इस शांति वार्ता में अफगानिस्तान सरकार की कोई भागीदारी नहीं है। इसको लेकर अफगान सरकार अपनी नाराजगी भी जता चुकी है। वहीं तालिबान की तरफ से कहा जा चुका है कि वह अफगानिस्तान की सरकार से सीधेतौर पर कोई बात करने के पक्ष में नहीं है। उृसने ये भी साफ कर दिया है कि अफगानिस्तान सरकार से बात होगी या नहीं यह केवल इस बात पर निर्भर करता है कि इस वार्ता में उसको कितनी सफलता मिलती है।
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