शिखर के 'शेर' हैं शेरपा
जागरण संवाददाता, उत्तरकाशी : साहस और जीवट की बात करें तो जहन में सबसे पहले शेरपा जाति का नाम आता है। खास तौर पर पर्वतारोहण में दुनिया की कोई भी दूसरी इंसानी नस्ल उनके नजदीक नहीं ठहरती। ऐवरेस्ट हो या फिर कोई और चोटी, बर्फील ऊंचाइयों को उनके कदम जब चाहे तब मात दे जाते हैं। लेकिन इसके बावजूद शेरपा नाम, शोहरत और दाम के मामले में उपेक्षित है।
सर एडमंड हिलेरी ने जब 29 मई 1953 को ऐवरेस्ट फतह किया था तो शेरपा तेनजिंग नोरबे का नाम भी सामने आया था, लेकिन उसके बाद किसी भी शेरपा को तेनजिंग जैसी प्रसिद्धि न मिल सकी। दार्जिलिंग के फूरबा शेरपा भी ऐसे ही गुमनाम पर्वतारोही हैं। हाल ही में कोलकाता की महिलाओं के दल को उन्होंने थलय सागर का सफल आरोहण करवाया। चार बार ऐवरेस्ट और पांच बार जटिल थलय सागर को फतह कर चुके फुरबा को उत्तराखंड से खास लगाव है।
शेरपा ने अपने अब तक के अधिकांश अभियान उत्तराखंड के हिमशिखरों पर ही पूरे किए। बीते वर्ष नेहरू पर्वतारोहण संस्थान की टीम को थलय सागर पर सफलता दिलाने में फूरबा शेरपा का ही योगदान रहा। तीस वर्षीय फूरबा का मानना है कि पर्वतारोहण के लिहाज से उत्तराखंड देश का सर्वाधिक संभावनाशील राज्य है। फूरबा शेरपा का मानना है कि वह अपने दोनों बच्चों को इस बेहद जोखिम वाले काम से नहीं जोड़ेंगे।
क्या है शेरपा और उनका रोल
शेरपा मूल रूप से पूर्व नेपाल की पहाड़ियों में रहने वाली जाति है। बौद्ध धर्म को मानने वाले इन लोगों का शरीर और दमखम पर्वतारोहण के लिए एकदम मुफीद है। शेरपा लोग किसी भी अभियान के साथ मददगार बनाकर ले जाए जाते हैं। अभियान दल में सबसे आगे रहकर रस्सी लगाना, रूट सेट करना और चढ़ाई के लिए योजना बनाने का काम इन्हीं का होता है। आम तौर पर शेरपा कठिन अभियानों में ही साथ लिए जाते हैं।
'फूरबा शेरपा बेहतरीन माउंटेनियर है। सात हजार मीटर से ऊंची चोटियों पर वह एक विशेषज्ञ की तरह साबित होता हैं'-कर्नल आईएस थापा, पि्रंसिपल, नेहरू पर्वतारोहण संस्थान।
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