कोटद्वार में 'महात्मा' को जीवंत रखे हैं स्वतंत्रता के ये सारथी
सर्वोदय सेवक मान सिंह रावत ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आदर्शों को आत्मसात कर अपना सर्वस्व समाजसेवा में लगा दिया। वह आज भी कोटद्वार में बोक्सा जाति के उद्धार में जुटे हैं।
कोटद्वार, [जेएनएन]: उन्हें न सम्मान की चाह है और न ही किसी नाम की। उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आदर्शों को आत्मसात कर अपना सर्वस्व समाजसेवा में लगा दिया। जीवन के प्रत्येक मोड़ पर संगिनी ने उनका साथ दिया और इसी का नतीजा है कि आज कोटद्वार में बोक्सा जाति अस्तित्व में है।
बात हो रही है जमनालाल बजाज पुरस्कार विजेता सर्वोदय सेवक मान सिंह रावत की। उन्होंने खत्म हो रही बोक्सा जाति को बुरी आदतों से दूर कर न सिर्फ नवजीवन दिया, बल्कि क्षेत्र में इस जाति का अस्तित्व भी बरकरार रखा।
दरअसल, एक समय था जब कोटद्वार-भाबर को 'काला पानी' की संज्ञा दी जाती थी। ऐसे में बोक्सा जाति को कोटद्वार-भाबर में बसा कर क्षेत्र को न सिर्फ नया जीवन दिया, बल्कि अन्य को भी इस क्षेत्र में बसने के लिए प्रेरित किया। वह दौर था जब बोक्सा जाति के लोग कोटद्वार में सैकड़ों बीघा भूमि के मालिक हुआ करते थे।
पूरे दिन खेतीबाड़ी करना व शाम को शराब के नशे में धुत होना इनकी आदतों में शुमार था। बोक्साओं की शराब की लत का फायदा उठा शातिरों ने उनकी जमीन हथियानी शुरू कर दी। नतीजा, सैकड़ों बीघा भूमि के मालिक बोक्साओं को सिर छिपाने के लिए छत का भी टोटा हो गया।
ऐसे में सर्वोदय सेवक मान सिंह रावत व उनकी पत्नी शशिप्रभा रावत ने न सिर्फ बोक्सा लोगों को जागरुक किया, बल्कि उन्हें उनके अधिकार भी दिलाए। नतीजा, आज सभी के सामने है। बोक्सा जाति भले ही बड़ी जमीनों की मालिक न हो, लेकिन उनके पास इतना अवश्य है, जिससे वह स्वयं व परिवार का सिर ढांप सकें।
इंग्लैंड में नौकरी ठुकराई
1951 में इंग्लैंड से नौकरी का प्रस्ताव ठुकरा समाजसेवा करने के जज्बे ने जहां सर्वोदय सेवक मान सिंह रावत को कोटद्वार-भाबर के बोक्साओं के बीच ला खड़ा किया। वहीं, बोक्साओं को एक ऐसा उद्धारक मिल गया, जो 90 वर्ष की आयु में आज भी न सिर्फ उनके अधिकारों के लिए लड़ रहा है। साथ ही उनके पाल्यों में शिक्षा की अलख जगा रहा है।
मूल रुप से प्रखंड द्वारीखाल के अंतर्गत ग्राम कैडुल निवासी मान सिंह रावत इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण कर वर्ष 1948 में बंबई (वर्तमान में मुंबई) चले गए। अगले ढाई वर्ष टाटा इंस्टीट्यूट से कंपनी प्रबंधन में कोर्स किया व कोर्स समाप्त होते ही इंग्लैंड में नौकरी पक्की हो गई।
बचपन से ही दिलो-दिमाग में गांधीवादी विचारों ने ऐसी छाप छोड़ी थी कि नौकरी में जाने से बेहतर 'अपनों' के उत्थान का मन बना लिया व इंग्लैंड जाने के बजाय कोटद्वार की राह पकड़ ली।
कोटद्वार की ओर कदम बढ़ते कि इससे पहले संत विनोबा भावे से मुलाकात हो गई व रावत उनके साथ भूदान आंदोलन से जुड़ गए। रावत बताते हैं कि वर्ष 1953 में विनोबा जी कोटद्वार आए व ग्राम टांडा माईदास से सटे क्षेत्र में करीब सात सौ एकड़ भूमि को भूमिहीनों में बांटा।
इसी दौरान कौसानी के कस्तूरबा महिला उत्थान मंडल की संचालिका मिस कैटरीन हेलीमैन 'सरला बहन' के नेतृत्व में छात्राओं का दल भूदान आंदोलन की अलख जगाते हुए कोटद्वार पहुंचा। दल के रहन-सहन की जिम्मेदारी उनके पास थी। बताया कि जब दल वापस लौट रहा था तो सरला बहन ने उनसे विवाह न करने का कारण पूछा, तो उन्होंने विवाह को समाजसेवा की राह में अड़ंगा बताया।
बाद में सरला बहन की प्रेरणा से उनका विवाह वर्ष 1956 में शशिप्रभा से हुआ व विवाह के दौरान ही दंपती ने ताउम्र खादी धारण करने का संकल्प लिया।
इस तरह शुरू किया सफर
विवाह के बाद वह पत्नी के साथ भाबर में बोक्साओं के बीच पहुंचे व उनके उत्थान को प्रयास शुरू कर दिए। रावत बोक्साओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरुक करने के साथ ही उन्हें सामाजिक हक दिलाने के प्रयास में लगे, जबकि उनकी पत्नी शशिप्रभा बोक्साओं के पाल्यों के लिए बालवाड़ी खोल उन्हें शिक्षा प्रदान करती।
रावत बताते हैं कि बोक्साओं में शराब की लत तो आज भी विद्यमान है, लेकिन समय के साथ उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी अवश्य हो गई। नतीजा, उन्होंने अपनी रही-सही जमीन को बेचना बंद कर दिया।
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