निराश हुए पर कभी हौसला नहीं खोया मोहन सिंह ने
संजय मिश्र, गोरखपुर: समाजवादी नेता, सांसद एवं चिंतक मोहन सिंह के जीवन में कई बार उतार-चढ़ाव आए। छात्र राजनीति में रहते हुए उन्हें सबसे पहले कुलपति के निर्णय के विरोध की कीमत इलाहाबाद विश्वविद्यालय से निलंबन के रूप में चुकानी पड़ी। आपात काल के दौरान उन्हें 21 माह तक उत्तर प्रदेश की विभिन्न जेलों में बिताने पड़े। वह चुनाव जीते तो हारे भी लेकिन हार उनका रास्ता नहीं रोक सकी। वह उन विरले नेताओं में थे जो हारने के बाद अगली लड़ाई की तैयारी में जुट जाते थे। वह लड़ाई होती थी जनता के सुख और कल्याण की लड़ाई।
मोहन सिंह के जीवन में सबसे खराब समय में से था 1996 के लोकसभा चुनाव का समय। तब उन्हें सांसद होते हुए भी अपनी देवरिया संसदीय सीट से टिकट नहीं मिला। दरअसल वह 1991 का लोकसभा चुनाव देवरिया सीट से जनता दल के टिकट पर जीते थे। उन्होंने काग्रेस की शशि शर्मा और तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री राजमंगल पांडेय को हराया था। बाद में जनता दल का विभाजन होने पर वह जार्ज फर्नाडिस के नेत़ृत्व वाली समता पार्टी के साथ चले गए। 1996 के चुनाव में उन्होंने समाजवादी पार्टी का टिकट हासिल करने का प्रयास किया लेकिन संकट यह था कि राष्ट्रीय स्तर पर हुए समझौते में देवरिया की सीट जनता दल के खाते में चली गई थी। शरद यादव के अड़ जाने से जनता दल किसी भी स्थिति में यह सीट छोड़ने को राजी नहीं था।
अंतत: समाजवादी नेता मधु लिमये की धर्मपत्नी चंपा लिमये के आग्रह पर मुलायम सिंह ने मोहन सिंह को सलेमपुर सीट से उतारने का निर्णय लिय। उन्होंने हरिवंश सहाय का टिकट काटकर मोहन सिंह की उम्मीदवारी की घोषणा कर दी। ऐलान के साथ ही उन्होंने चंद समर्थकों के साथ पैदल ही कलेक्ट्रेट जाकर नामांकन पत्र दाखिल कर दिया। लेकिन इसके साथ ही समाजवादी पार्टी में विवाद भी बढ़ गया। टिकट से वंचित किए गए हरिवंश सहाय के समर्थन में पार्टी की जिला इकाई के नेता-कार्यकर्ताओं ने लखनऊ पहुंचकर मुलायम से टिकट बदलने की मांग की। दो दिन तक चले सियासी ड्रामा के बाद अंतत: मोहन सिंह का टिकट कट गया। वह भी नामांकन प्रक्रिया के अंतिम समय में।
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'जागरण' से मिली थी टिकट कटने की सूचना
1996 में सलेमपुर सीट से टिकट कटने की सूचना मोहन सिंह को सबसे पहले 'जागरण' से मिली। नामांकन प्रक्रिया के अंतिम दिन अपराह्न लगभग दो बजे उन्होंने अपने तीन साथियों चंद्रभूषण सिंह यादव, मनोज सिंह एवं हृदय नारायण जायसवाल को सलेमपुर में चुनाव कार्यालय खोलने की सूचना देने के लिए जागरण कार्यालय भेजा। तीनों आकर अभी चर्चा कर ही थे कि लखनऊ से अचानक जागरण कार्यालय में आए एक टेलीफोन संदेश ने चर्चा को बीच में ही रोक दिया। संदेश 'जागरण' के पास था और उसे जानने के लिए तीनों व्यग्र थे। उनकी बेचैनी को महसूस कर चंद्रभूषण यादव को मोहन सिंह का टिकट कटने की जानकारी दी गई। इस सूचना से सन्न चंद्रभूषण पैदल ही तेजी से मोहन सिंह के घर के लिए चल पड़े। उन्हें टिकट कटने की सूचना दी। पहली बार तो मोहन सिंह को भरोसा नहीं हुआ। उन्होंने तत्काल जागरण कार्यालय में टेलीफोन करके सूचना की सत्यता जानने की कोशिश की और तत्काल मिलने की इच्छा जताई। खुद भी प्रदेश कार्यालय से इस जानकारी की पुष्टि की।
पुष्टि होते ही मोहन सिंह पहली बार बेहद निराश दिखे। ऐसे, जैसे आगे का रास्ता खत्म हो गया हो। चेहरा उदास था और आंखों से आंसू बह रहे थे, लेकिन थोड़ी ही देर में वह सचेत हो गए। पहली बार पार्टी के अंदर मुखर विरोध से व्यथित मोहन सिंह ने टिप्पणी की थी कि 'आज मेरे दुर्भाग्य पर जिन्हें हंसना हो हंस लें, मै निराश जरूर हूं लेकिन टूटा नहीं हूं। कल मेरा भी दिन आएगा।'
सचमुच वक्त तेजी से बदला। थोड़े ही समय में मोहन सिंह समाजवादी पार्टी के नीति निर्धारकों में शामिल हो गए और उसके बाद सियासत की एक से बढ़कर एक सीढ़ी चढ़ते गए।
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