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संस्कृत के उत्थान को सामूहिक प्रयास पर जोर

जागरण संवाददाता, इलाहाबाद : देववाणी संस्कृत लोक कल्याणकारी विद्या है। देश, जाति-धर्म से इसका कोई वा

By Edited By: Published: Wed, 17 Feb 2016 01:02 AM (IST)Updated: Wed, 17 Feb 2016 01:02 AM (IST)
संस्कृत के उत्थान को सामूहिक प्रयास पर जोर

जागरण संवाददाता, इलाहाबाद : देववाणी संस्कृत लोक कल्याणकारी विद्या है। देश, जाति-धर्म से इसका कोई वास्ता नहीं है। ऐसे में संस्कृत के उत्थान की जिम्मेदारी किसी व्यक्ति, संस्था या राष्ट्र की नहीं है, बल्कि संपूर्ण विश्व के हर व्यक्ति को उसके लिए काम करना होगा। यह ओजस्वी वक्तव्य था देश-विदेश से आए संस्कृत विद्वानों का। पं गंगानाथ झा पीठ एवं संस्कृत विभाग की ओर से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सीनेट हॉल में आयोजित तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संस्कृत सम्मेलन का मंगलवार को शुभारंभ हुआ। मुख्य अतिथि टेक्सास यूनिवर्सिटी आस्टिन के शिक्षक डॉ. इवेत सी. रास्सर ने कहा कि भारत में आदिकाल से स्थापित सनातन धर्म का मूलतत्व संस्कृत भाषा है। इस धर्म से जुड़े संत-महात्मा एवं धार्मिक संस्थाएं स्वयं के बजाय विश्व कल्याणकारी एवं शांतिप्रद अवधारणा को स्थापित करने को काम करते हैं।

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डॉ. रास्सर ने कहा कि विश्व का प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद के मंत्र एक सद्विप्रा की सीख देते हैं। इससे समाज का अंतर्विरोध समाप्त होता है। वहीं बेल्जियम से आए दार्शनिक डॉ. कोनराड इल्स्ट ने इलाहाबाद एवं प्रयाग शब्द की व्याख्या करते हुए उनके ऐतिहासिक महत्व पर प्रकाश डाला। बोले भाषा शास्त्रीय दृष्टि से अनेक भारतीय अवधारणाओं के स्वरूप को प्रकट करता है। दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रो. शशि तिवारी ने ऋग्वेद के विविध मंत्रों को प्रतिपादित करते हुए उसके वैज्ञानिक महत्व पर प्रकाश डाला। बताया कि कैसे अनेकता से एकता और एकता से अनेकता की ओर विचारधारा सफलतापूर्वक गतिशील होती है। अध्यक्षता कर रहे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. रतनलाल हांगलू ने विद्वानों को इतिहास और परिप्रेक्ष्य को समझाने का प्रयास किया। उन्होंने संस्कृत एवं वेद की ऋचाओं पर शोध करने पर जोर दिया। कहा कि इसके जरिए तमाम भ्रांतियों को दूर करते हुए संस्कृत विद्या को जन-जन से जोड़ा जा सकता है। संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो. किश्वर जबीं नसरीन ने स्वागत करते हुए सभी धर्मो की मूलभूत एकता एवं धार्मिक सद्भाव बढ़ाने की जरूरत पर बल दिया। विषय प्रवर्तन प्रो. शंकर दयाल द्विवेदी ने किया। उन्होंने संस्कृत के स्वरूप को व्यापक बनाने के लिए उसके कई पक्षों पर विस्तार से प्रकाश डाला। संचालन डॉ. रामसेवक दुबे व आभार प्रो. उमाकांत यादव ने ज्ञापित किया। इस अवसर पर प्रो. मृदुला त्रिपाठी, प्रो. राजलक्ष्मी वर्मा, प्रो. मंजूला जायसवाल, प्रो. रामकिशोर शास्त्री, प्रो. केके श्रीवास्तव, प्रो. एए फातमी, प्रो. गिरिजाशंकर शास्त्री मौजूद रहे। द्वितीय सत्र में प्रो. योगेश चंद्र दुबे, प्रो. रामहित त्रिपाठी, प्रो. उमेश प्रताप सिंह एवं प्रो. आरपी मिश्र की अध्यक्षता में 52 शोधपत्र पढ़े गए। इस सत्र का संचालन डॉ. सुरेंद्र पाल सिंह, डॉ. राजेंद्र त्रिपाठी, डॉ. मीरा सिंह, डॉ. अर्चना सिंह ने संयुक्त रूप से किया।


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