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    भारत का एक गांव ऐसा भी, जो सिर्फ मछलियों से कर रहा करोड़ों की कमाई

    By Pratibha Kumari Edited By:
    Updated: Tue, 07 Feb 2017 07:02 PM (IST)

    मछलियों के बलबुते ही यह गांव कहां से कहां पहुंच गया, यह जान आप हैरान रह जाएंगे। पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर यहां चल रही हैं महिलाएं।

    भारत का एक गांव ऐसा भी, जो सिर्फ मछलियों से कर रहा करोड़ों की कमाई

    एक तरफ जहां देश के ज्‍यादातर गांव अब भी पानी, बिजली जैसे बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं और लोग बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ भारत में एक ऐसा गांव भी है जहां सिर्फ चार हजार घर हैं मगर साल भर की आय चार सौ करोड़ रुपए है।

    जी हां, अब भले ही आपको इस बात पर यकीन ना हो मगर मुंबई के वर्सोवा स्थित कोलिवाड़ा गांव में इस हकीकत से आपका सामना हो सकता है और आपको यह जानकर और भी हैरानी हो सकती है कि इस गांव की पूरी कमाई मछलियों पर टिकी हुई है। मछलियों के बलबुते ही यह गांव कहां से कहां पहुंच गया।

    वर्सोवा सिर्फ कहने को गांव रह गया है, मछली के कारोबार से यहां कई बहुमंजिला इमारतें खड़ी हो चुकी हैं। वहीं अगर आपको लग रहा है कि यहां के लोग जिंदगी तो पारंपरिक मछुआरों वाली ही जी रहे होंगे तो आप गलत हैं। पश्चिम तट पर बरगद के पेड़ों से घिरा यह गांव तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों की आम जीवन शैली से बिल्कुल ही अलग है। मछलियों के व्यवसाय से यहां की रहने वाली 'कोली' जनजाति काफी समृद्ध है। यहां 300 मछुआरी जहाज हैं। इस गांव में कोल्ड स्टोरेज और आइस फैक्ट्री भी है।


    यहां की महिलाओं की शुरुआत दोपहर 2 बजे से होती है। वो मछली पकड़ने के लिए बीच पर पहुंचती हैं और फिर सूर्यास्त होने तक ग्राहकों को मछलियां बेचती हैं। इसके बाद जो मछलियां बचती हैं उन्हें क्रॉफर्ड मार्केट से एक्सपोर्ट के लिए भेज दिया जाता है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, को-ऑपरेटिव कोली महासंघ के जनरल सेक्रटरी राजहंस तापके बताते हैं, 'मछली पकड़ने के जिस व्यवसाय को हम यहां फलता-फूलता देख रहे हैं, वह सहकारी संस्थाओं की भूमिका की वजह से संभव हुआ है। पूर्व मुख्यमंत्री शरद यादव हमें शुगर इंडस्ट्री के लिए एक मिसाल के तौर पर पेश करते हैं। हमारा गांव शहर का पहला गांव बना जहां कोल्ड स्टोरेज और अपनी आइस फैक्ट्री है।' गांव की बहुमंजिले ढांचों में तापके का भी घर है।

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    वर्तमान में गांव में चार सहकारी सोसायटीज हैं लेकिन वसव मच्छीमार विविधकार्यकारी सहकारी सोसायटी लिमिटेड के सबसे ज्यादा सदस्य हैं। इस सोसायटी में चार हजार सदस्य और 271 मछुआरी नावें हैं।

    15 साल पहले तक सोसायटी ही मछली की बिक्री की जिम्मेदारी संभालती थींं, लेकिन अब हर मछुआरा खुद ही सौदा करता है। सोसायटी जहाजों के लिए डीजल उपलब्ध कराती है और मछलियों के स्टोरेज के लिए बर्फ उपलब्ध कराती है। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि ये मछली का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर देती हैं जिससे कम कीमत पर किसी को भी बिक्री की इजाजत नहीं है।

    सोसायटी के डायरेक्टर जितेंद्र ने बताया, इससे लोगों के बीच अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा नहीं उत्पन्न होती है। यहां की संपन्नता कोलिवाड़ा में हुए बदलाव की कहानी कहती है। यहां एक-दूसरे से लगी हुईं बहुमंजिला इमारतें दिखाई देती हैं। ये इमारते इतने पास-पास है कि खिड़कियों से दूसरी इमारत में जाया जा सकता है। संगमरमर और ग्रेनाइट और घरों में गैजेट्स खुद ही बयां कर देते हैं कि यहां मछली का कारोबार कितना फल-फूल रहा है।

    वसव सोसायटी के चेयरमैन राजेंद्र काले बताते हैं, वर्सोवा में 3000 सक्रिय मछुआरे हैं, इस व्यवसाय में 5000 लोगों को काम दिया जा रहा है। इस व्यवसाय को पुरुष प्रधान माना जाता है लेकिन यहां के 80 प्रतिशत घरों में महिलाएं इसमें भागीदारी निभा रही हैं। वे निर्यातकों से डील भी फाइनल करती हैं।


    25-30 मछुआरे जहाज रोजाना ताजी मछलियां पकड़कर लौटते हैं। एक मछुआरा जहाज लगभग तीन लाख रुपए कीमत की मछलियां पकड़कर लाता है। समुद्र किनारे लगभग एक सप्ताह गुजारने के बाद ये लौटते हैं और कम से कम महीने में तीन बार समुद्र किनारे जाते हैं।

    समुद्र में सीवेज का गंदा पानी बहाने की वजह से यहां का कारोबार प्रभावित हो रहा है। अब मछुआरों को मछली पकड़ने के लिए 50 नॉटिकल मील्स की दूरी तय करनी परड़ती है। वर्सोवा का पानी बहुत गंदा हो चुका है और लोग यहां मछली पकड़ना बंद कर चुके हैं।

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    फिशिंग इंडस्ट्री में बढ़त लेने के साथ-साथ यहां के लोग कूड़े के प्रबंधन में भी आगे हैं। कारोबार के बाद बचे कचरे को बीच पर सुखाया जाता है या फिर पोल्ट्री फर्म्स में मुर्गों के आहार के लिए भेज दिया जाता है। छोटी मछलियां जिनका कोई बाजार नहीं है, उनकी फूड प्रॉसेसिंग इंडस्ट्री के सप्लायर्स को बेच दिया जाता है।


    राजस्व के अन्य स्रोतों में वर्सोवा का फिश फेस्टिवल भी है जिसे यहां 2005 से आयोजित किया जा रहा है। इस साल गांव में 60 स्टाल्स लगाए गए थे जिसमें से हर एक स्टॉल ने पांच-छह लाख रुपए की कमाई की। इस फेस्टिवल से ही करीब चार करोड़ रुपए की कमाई हुई।

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