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    चादर ट्रेक पर गुफा में एक रात

    By Edited By:
    Updated: Mon, 30 Mar 2015 06:40 PM (IST)

    [नीरज जाट] जनवरी में मैं वायुमार्ग से लद्दाख चला गया- अकेला। मन में उमंग थी कि चादर ट्रैक करना है। जांस्कर नदी इन दिनों जम जाती है और इस पर दूर दूर तक ...और पढ़ें

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    चादर ट्रेक पर गुफा में एक रात

    [नीरज जाट] जनवरी में मैं वायुमार्ग से लद्दाख चला गया- अकेला। मन में उमंग थी कि चादर ट्रैक करना है। जांस्कर नदी इन दिनों जम जाती है और इस पर दूर दूर तक पैदल आवाजाही की जाती है। देशी-विदेशी ट्रेकरों में यह ट्रैक काफी लोकप्रिय भी है। हर ट्रैकर यहां इस जमी नदी पर ट्रैक करने की हसरत रखता है। इसमें चूंकि बर्फ की मोटी चादर पर चला जाता है, इसलिए इसे चादर ट्रैक कहते हैं। चादर ट्रैक लेह से सत्तर किलोमीटर दूर चिलिंग गांव से शुरू होता है। चिलिंग से चालीस किलोमीटर दूर नेरक या सौ किलोमीटर से भी ज्यादा दूर पदुम तक ट्रैकिंग की जाती है। मेरी इच्छा नेरक तक जाने की थी। अत्यधिक महंगा होने के कारण गाइड या पॉर्टर लेना मेरे बस से बाहर की बात थी। इसलिए अकेला ही इस ट्रेक पर चलना पड़ा- मात्र एक सस्ते स्लीपिंग बैग के सहारे, बिना टैंट के। चिलिंग पहुंचते ही बर्फबारी हो गई और मेरे चादर पर चलने पर ग्रहण लग गया। चिलिंग से आगे का वृत्तांत विस्तार से:

    19 जनवरी 2013
    आज शनिवार है। चिलिंग में हूं। लेह वाली बस कल आएगी। सुबह के दस बजे हैं, अभी-अभी सोकर उठा हूं। हालांकि आंख तो दो घंटे पहले ही खुल गई थी, लेकिन बस पड़ा रहा। घरवाले भी थोड़ी थोडी देर बाद दरवाजा खोलकर झांककर चले जाते हैं कि उठेगा तो चाय-नाश्ता परोसेंगे। उन्हें झांकते देखते ही तुरंत अपनी आंख मींच लेता हूं। भारी-भरकम पश्मीना कंबल और उस पर रजाई; दोनों के नीचे दबे होने में एक अलग ही आनंद मिल रहा है। साढ़े दस बजे उठ गया। तुरंत चाय और रोटी आ गई। आज एक अलग तरह की रोटी बनी है। राजस्थान में जैसी बाटी होती है, उससे भी मोटी। लकड़ी की आग और अंगारों की कमी तो है नहीं, अच्छी तरह सिकी हुई है। इसे मक्खन और जैम के साथ खाया। वैसे तो आज का लक्ष्य नेरक के लिए निकल लेने का था, लेकिन बर्फबारी की वजह से कल ही सोच लिया था कि नेरक नहीं जाऊंगा बल्कि ग्रामीण जनजीवन को देखूंगा, कुछ फोटो खींचूंगा और लेह वापस चला जाऊंगा। अचानक अंतरात्मा ने आदेश दिया- नेरक चलो। यह आदेश इतना तीव्र और तीक्ष्ण था कि शरीर के किसी भी अंग को संभलने और बचाव करने का मौका भी नहीं मिला। सभी ने चुपचाप इस आदेश को मान लिया। हालांकि पैरों ने कहा भी कि दर्द हो रहा है लेकिन आत्मा ने फौरन कहा- चुप। नेरक चिलिंग से करीब चालीस किलोमीटर आगे जांस्कर किनारे एक गांव है। आठ किलोमीटर तक सड़क बनी है, उसके बाद पगडंडी है। यह पगडंडी बर्फ के नीचे दबी है, इसलिए जमी हुई नदी के ऊपर से जाना होता है। यही चादर ट्रैक है। मेरी दिल्ली वापसी 25 तारीख को है। मेरे हाथ में अभी छह दिन हैं। चार दिन में बड़े आराम से नेरक से लौटकर वापस आ सकता हूं। घरवालों से अपनी मंशा बता दी। साथ ही एक डंडे, एक चश्मे और एक रस्सी के लिए भी कह दिया। बैग के ऊपर रस्सी से स्लीपिंग बैग बांध दिया। भले-मानुसों ने दो रोटियां मक्खन और जैम के साथ पैक करके मुझे दे दीं। वैसे खाने के लिए मेरे पास काफी सामान था। पांच सौ रुपये रोजाना के हिसाब से एक हजार रुपये का भुगतान कर दिया। पांच सौ में दिनभर ठहरना और खाना-पीना सबकुछ शामिल था। साढ़े ग्यारह बजे मैं चल पड़ा। पीछे कमर पर नौ किलो से ज्यादा सामान टंगा था। दिल्ली से चलते समय वजन नौ किलो था, बाद में स्लीपिंग बैग से और वृद्धि हो गई। अगर आज चादर ट्रैक ना किया, तो जिंदगी भर पछतावा रहेगा कि सर्दियों में लद्दाख जाकर भी चादर पर नहीं चल सका। बाद में कठिनाइयां भुला दी जाएंगी और यही कहा जाएगा कि उतनी बर्फ के बावजूद भी चादर पर चलना मुश्किल नहीं होता। आखिर दूसरे लोग भी तो चलते हैं। रातभर बर्फबारी नहीं हुई, इसलिए सड़क पर कल गुजरी गाड़ियों के पहियों के निशान अभी साफ हैं। मैं बीती शाम अंधेरा होने तक इसी सड़क पर टहल रहा था, तो मुझे मालूम था कि सबसे आखिरी गाड़ी का निशान कौन सा है। उसके बाद से अब तक कोई भी गाड़ी नहीं गुजरी है। कल के मुकाबले अब बर्फ कुछ कठोर हो गई है, इसलिए पैर रखते समय ज्यादा आवाज कर रही है। आज धूप भी निकली है। आसपास और दूर-दूर के सभी पहाड़ श्वेतांबर हो चुके हैं। बर्फ में धूप निकलने पर शरीर के नंगे हिस्सों और आंखों को जबरदस्त नुकसान पहुंचता है। दस्ताने और बंदर टोपी लगाने से शरीर का कोई हिस्सा नंगा तो नहीं रहा, बचे हुए चेहरे पर क्रीम पोत ली। चश्में के सौ रुपये देने पड़े, क्योंकि वापसी में मैं यकीन के साथ नहीं कह सकता कि चिलिंग में रुकना होगा। अगर तिलत से ही कोई गाड़ी मिल गई, तो फिर चिलिंग रुकने का सवाल कहां होता।
    रास्ते भर मुझे आने-जाने वाले मिलते रहे। पूछते कि अकेले हो क्या, कहां तक जाओगे, आज कहां रुकोगे? किसी ने हतोत्साहित नहीं किया। जब मैंने बताया कि तिलत में गुफा में रुकूंगा तो कहते कि अच्छी बात है। इन्हीं लोगों से पता चला कि आज अभी तक कोई भी ग्रुप लेह से नहीं आया है। यानी मुझे तिलत में अकेला रुकना पड़ेगा। हालांकि कल एक ग्रुप गया था, वे आज नौ दस बजे चले होंगे, तो 10-15 किलोमीटर आगे पहुंच गए होंगे। अगर मैं तेजी दिखाऊं तो उन्हें पकड़ सकता हूं। फिर सोचा कि अभी दोपहर हुई है, शाम तक कोई ना कोई ग्रुप आ ही जाएगा। एक व्यक्ति ने कहा कि कल अगर सुबह जल्दी निकल पड़ो तो शाम होने तक नेरक पहुंच सकते हो। मैंने ठान लिया कि सुबह पांच बजे ही तिलत की गुफा से निकल पड़ना है। कल नेरक पहुंचने में जी-जान लगा देनी है। मैं लगातार दो रातों तक गुफा में रुकने के लिये तैयार नहीं था। आज ज्यादातर लोग चादर ट्रैक से लौट रहे हैं। सड़क के आखिरी तीन किलोमीटर में नदी पूरी तरह जमी पड़ी है। लौटने वाले उसी से आ रहे हैं। अब मुझे भी कम से कम अगले तीन दिनों तक इसी पर चलना है।

    चादर पर पहला कदम
    तिलत सुमडो से करीब दो किलोमीटर पहले जहां सड़क खत्म होती है, आने वाली गाड़ियां वापस मुड़ जाती हैं, नीचे नदी तक उतरने के लिए पहले जा चुके लोगों की वजह से पगडंडी बन गई है। उतराई ज्यादा तो नहीं है, लेकिन है बड़ी खतरनाक। ऊपर से कल गिरी बर्फ ने इसे और खतरनाक बना दिया है। किसी तरह नीचे उतर ही गया। चादर पर पहला कदम रखा। हवा का तापमान कम से कम माइनस 25 डिग्री रहा होगा। बर्फ कांच की तरह थी। हालांकि कल बर्फबारी हुई तो इस कांच पर भुरभुरी बर्फ की तीन चार इंच मोटी परत जम गई। इससे फिसलन निस्संदेह कम हुई है। यह भुरभुरी बर्फ वैसी ही चर्र-चर्र की आवाज कर रही है, जैसी कि सड़क पर कर रही थी। धूप निकली है। चश्मा लगा रखा है। अचानक पैरों के नीचे से खोखलेपन जैसी आवाज आने लगी। लगा कि नीचे बर्फ की मोटाई काफी कम है, बर्फ के नीचे हवा भी है, तभी इस तरह की आवाज आ रही है। आवाज कुछ कदम तक ही रही, लेकिन इन कदमों में ही बुरी हालत हो गई। पानी की सतह पर दरारें पड़ी हुई हैं। इधर से उधर पैर रखने में भी मुझे बड़ा डर लग रहा है। एक स्थान पर कुछ मीटर तक पगडंडी ऐसी है जैसे किसी ने खुदाई कर रखी हो। कांच जैसी बर्फ के काफी टुकड़े दिख रहे हैं। अंदेशा है कि यहां बर्फ की मोटाई बिलकुल भी नहीं है और पैर रखते ही मैं नदी में गिर पड़ूंगा। इसलिए पगडंडी से इतर नजर घुमाई। सोचा कि इस खुदी हुई बर्फ से बचकर निकलता हूं। जैसे ही पगडंडी से बाहर कदम रखा, बर्फ चर्र की आवाज के साथ टूट गई और पैर छह इंच नीचे जा धंसा। चीख निकल गई, हालांकि कोई सुनने वाला नहीं है। पैर उठाकर देखा तो कुदरत का खेल समझ में आ गया। समझ में आया कि इस खुदाई के नीचे मोटी सुरक्षित परत है, कोई दिक्कत की बात नहीं है।
    एक स्थान पर बर्फ में दो फीट व्यास का एक कुंड था, जिसमें पानी दिख रहा था। इसके पास पैरों के निशान भी दिख रहे थे जिससे पता चल रहा था कि लोगों ने यहां कुंड के ऊपर बर्फ पर बैठकर पानी पीया है। मेरी बोतल भी खाली हो चुकी थी, लेकिन आगे भर लूंगा, यह सोचकर मैंने बोतल नहीं भरी। हालांकि बोतल न भरने का मुझे अगले दिन तक पछतावा रहा।

    तिलत सुमडो
    सुमडो कहते हैं दो नदियों के संगम को। यहां भी जांस्कर नदी में कोई दूसरी नदी आकर मिलती है। जांस्कर के उस तरफ कैम्प साइट है, जहां ट्रैकर तंबू लगा लेते हैं। मेरे पास तंबू तो था नहीं, इसलिए मेरी निगाहें किसी गुफा को ढूंढ रही थीं। ज्यादा समय नहीं लगा गुफा मिलने में। गुफा नदी के इसी तरफ कुछ ऊपर चढ़कर थी और इसके मुंह पर चार फीट ऊंची पत्थरों की एक दीवार भी बनी थी। एक ही झटके में ऊपर पहुंच गया और बड़ी देर तक हांफता रहा। गुफा में पांच-छह आदमी आराम से सो सकते थे। कुछ राख और अधजली लकड़ियां भी पड़ी थीं। गुफा की छत और दीवारों पर धुआं आसानी से चिपका देखा जा सकता था। बोतल में पानी नहीं था। नीचे दोनों नदियां पूरी तरह जमी हुई थीं, इसलिए वहां भी पानी की कोई संभावना नहीं दिख रही थी। कुछ देर पहले बर्फ में एक 'कुआं' दिखाई पड़ा था, मुझे वहां से बोतल भर लेनी चाहिए थी। अब भुगत रहा था। गुफा के बाहर चारों तरफ भुरभुरी बर्फ जमी पड़ी थी, काफी मशक्कत के बाद थोड़ी सी बोतल में भर ली और बाद में स्लीपिंग बैग के अंदर घुसकर अपने साथ रख ली तो दो घूंट पानी मिल गया।
    मैं दोपहर तीन बजे के आसपास यहां पहुंच गया था। अच्छी धूप निकली थी, मैं अभी दो घंटे तक चलकर और आगे जा सकता था लेकिन गुफा की उपलब्धता के कारण यही रुक जाना पड़ा। अभी तक उम्मीद थी कि कोई ना कोई ग्रुप आ जाएगा, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, कोई नहीं आया तो घबराहट भी होने लगी। इंसान भी कितना अजीब है! जब शहरों में चारों तरफ लोगों से घिरा रहता है, तब भी घबराता है और जब कहीं वीराने में होता है, तब भी घबराता है। यहां दूर-दूर तक कोई नहीं था, मैं अभी से रात अकेला होने के बारे में सोचकर घबराने लगा। इस इलाके में हिम तेंदुआ और भेड़िया देखे जाने की बातें आती रहती हैं। इससे डर और भी बढ़ गया। चार बजे तक मैं वापस जाने की सोचने लगा- अगर अभी निकल पड़ता हूं तो दो घंटे में काठमांडू यानी मारखा-जांस्कर संगम तक पहुंच सकता हूं, वहां रुक जाऊंगा। फिर सोचा, जो होगा देखा जाएगा।
    स्लीपिंग बैग में घुसकर जमीन पर ही लेट गया, मेरे पास कोई मैट्रेस भी नहीं थी। शून्य से कम तापमान में जमीन भी गर्म नहीं थी। पूरी रात मेरे नीचे की जमीन ठंडी ही रही। समय समय पर नदी में पत्थर गिरने या बर्फ के चटकने की आवाजें आती रहीं, जिससे एक मिनट के लिए भी डर कम नहीं होने पाया। हालांकि समय बीतने के साथ आदत पड़ती गई और डर भी कम होता गया। सामने की ऊंची चोटियों पर साढे़ छह बजे तक भी धूप रही। उसके बाद भी अंधेरा नहीं हुआ। आज शुक्ल पक्ष की नवमी या दशमी थी, इसलिए सूरज छिपने से पहले चांद निकल आया। घाटी में उजाला बरकरार रखने का जिम्मा उसने ले लिया।
    स्लीपिंग बैग विकास का था। उन्होंने इसे मेरठ से खरीदा था। इसमें घुसने से पहले ही इसके दोष सामने आने लगे। यह मुझसे भी छोटा था। बड़ी मुश्किल से काफी मशक्कत के बाद इसकी चेन बंद कर सका। इसके अंदर ही बर्फ भरकर बोतल रखनी पडी, साथ ही मोबाइल भी ताकि रात-बेरात समय का अंदाजा हो सके। चाहता था कि कैमरा भी अंदर ही रखूं लेकिन इतनी जगह नहीं बची। रात एक बजे मेरी आंख खुली। मैं ठंड से बुरी तरह कांप रहा था। सिर पर दो मंकी कैप, हाथों में दस्ताने, पैरों में दो गर्म लोअर और उनके ऊपर एक पैंट, ऊपर तीन गर्म इनर, एक गर्म ऊनी शर्ट और सबसे ऊपर शक्तिशाली जैकेट पहने हुए था। तीन जोडी जुराबें पहन रखी थीं, जो ऊनी और मोटी-मोटी थीं। जूते भी नहीं निकाले थे, जूते पहने हुए ही स्लीपिंग बैग में घुसा हुआ था, फिर भी पैर की उंगलियां इतनी सर्द हो चुकी थीं कि मालूम होता था कि कहीं ठण्ड से गल न जाएं। हालांकि बैग में अभी कुछ गर्म कपड़े और थे लेकिन उनमें से किसी भी एक को पहनने के लिए मुझे जैकेट उतारनी पड़ती जिसके लिए मैं इस समय सोच भी नहीं सकता था। हां, एक काम जरूर किया कि जूतों के ऊपर भी एक जोडी जुराबें चढ़ा लीं। तापमान शून्य से 25 डिग्री तो नीचे होगा ही। करवट ले ली और हाथों को छाती से चिपका लिया जिससे छाती को गर्मी मिलने लगी। जूतों पर जुराब चढ़ा लेने से भी कुछ आराम मिला। नींद आ गई।
    तड़के पांच बजे आंख खुली। बारह घंटे पहले सोच रहा था कि इस समय तिलत सुमडो से आगे के लिए चल देना है, तभी शाम तक नेरक पहुंच सकता हूं। वह बात याद आई लेकिन जिस स्थिति में इस समय पड़ा हुआ था, उसमें इंच भर भी हिलना नामुमकिन था।
    उठकर चलना तो बहुत दूर की बात है। जिंदगी में पहले शायद इतने कपड़े कभी नहीं पहने थे और इतनी सर्दी भी कभी महसूस नहीं हुई थी। फिर आंख खुली नौ बजे। यहां जांस्कर एक तंग घाटी से बहती है, इसलिए बारह बजे से पहले यहां धूप का सवाल ही नहीं। लेकिन दूर के पहाड़ों पर अच्छी धूप दिखाई पड़ रही थी। अगर अब नेरक के लिए निकलता हूं तो शाम तक पहुंचना नामुमकिन है। यानी अगली रात फिर किसी गुफा में इसी तरह कांपते हुए बितानी पड़ेगी। शरीर ने विद्रोह कर दिया। हर अंग को पता था कि आज रविवार है और दोपहर एक बजे चिलिंग से लेह के लिए बस जाएगी। यहां से चिलिंग पहुंचने में करीब साढ़े तीन घंटे लगेंगे। नौ बज चुके हैं। इसलिए तुरंत सामान बांध दिया और चिलिंग चलने की तैयारी होने लगी। हाथों में दो जोड़ी दस्ताने पहन रखे थे लेकिन फिर भी सामान समेटने के दौरान उंगलियां पूरी तरह सुन्न हो चुकी थीं।
    जब साढ़े नौ बजे गुफा से निकला तो नेरक की तरफ से तीन आदमी आते दिखाई दिए। पूछने पर पता चला कि वे सुबह पांच बजे पिछले कैंप से चल पड़े थे। उनका इरादा आज तिलत में ही रुकने का था। एक स्थानीय गाइड ने मुझसे पूछा कि कहां तक जाओगे, मैंने बता दिया लेह तक। चिलिंग से एक बजे वाली बस पकड़नी है। वह बोला कि आज हमारा एक ग्रुप लेह से आएगा। पता नहीं कब हमारी गाड़ी आ जाए। अभी आपको नौ-दस किलोमीटर और पैदल चलना है चिलिंग जाने के लिए। अगर हमारी गाड़ी पहले आ गई और आप हमें रास्ते में मिल गए तो हम आपको अपनी गाड़ी से ले जाएंगे। मैंने कहा- तथास्तु।
    कल जब मैं चादर पर चलकर गुफा तक गया था, उसके मुकाबले अब चादर की मोटाई ज्यादा हो गई होगी। रास्ता वही था, जिस पर मैं कल चला था लेकिन अब बिलकुल भी डर नहीं लग रहा था। कब वह जगह आ गई, जहां चादर छोड़कर ऊपर सड़क पर चढ़ना था, पता ही नहीं चला। सड़क पर धूप थी। सूरज की तरफ मुंह करके तकरीबन बीस मिनट तक बैठा रहा। उंगलियों में रक्त संचार शुरू हुआ, इनमें चेतना लौटनी शुरू हो गई। ऐसे में फोटो कैसे खिंच सकते थे? वाकई चादर ट्रैक पर फोटो खींचना महान हिम्मत का काम है, जहां दो-दो जोड़ी दस्तानों के बावजूद भी उंगलियां सुन्न पड़ी हों। फोटो खींचने के लिए दस्ताना उतारना पड़ता है। चादर ट्रैक के फोटो महाविपरीत परिस्थितियों में खींचे जाते हैं।
    चादर ट्रेक वैसे तो सौ किलोमीटर से भी लंबा है। पदुम तक आना-जाना 200 किलोमीटर से ज्यादा होता है। ज्यादातर लोग नेरक तक जाते हैं जो आना-जाना 80 किलोमीटर के आसपास है। मैं मात्र तिलत सुमडो तक ही गया जो आना-जाना तकरीबन चार किलोमीटर है। इस बात का मुझे कोई पछतावा नहीं है बल्कि खुशी है कि मैं भी उस बिरादरी में शामिल हो गया जिसने चादर देखी है और उस पर चले हैं।

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