दिल से पुकारना ही प्रार्थना
श्रीमद्भागवत गीता में एक कहानी है कि जब भगवान कृष्ण को भोजन परोसा जा रहा था तो वे खड़े हुए और बोले-नहीं, मुङो जाना है। गोपियों ने उन्हें समझाने की कोशिश की। उन्होंने विनती की, पहले अपना भोजन तो कर लो। लेकिन वे बोले, नहीं। मेरा एक भक्त मुश्किल में
श्रीमद्भागवत गीता में एक कहानी है कि जब भगवान कृष्ण को भोजन परोसा जा रहा था तो वे खड़े हुए और बोले-नहीं, मुङो जाना है। गोपियों ने उन्हें समझाने की कोशिश की। उन्होंने विनती की, पहले अपना भोजन तो कर लो। लेकिन वे बोले, नहीं। मेरा एक भक्त मुश्किल में है और मुङो पुकार रहा है। मुङो उसके लिए जाना होगा। ऐसा कहकर वे तेजी से दौड़ पड़े, लेकिन दरवाजे से वापस आ गए। क्या हुआ, गोपियों ने पूछा। कृष्ण ने जवाब दिया, पहले तो उसने सोचा कि मैं ही एक सहायक हूं और मुङो पुकारने लगा। लेकिन बाद में उसने सोचा कि कुछ और भी हैं जो उसकी मदद कर सकते हैं। इसलिए मैं इंतजार कर सकता हूं।
यह कहानी बताती है प्रार्थना की तीव्रता के बारे में। एक प्रार्थना का जन्म तब होता है जब आप पूर्णरूप से निसहाय अनुभव करते हो या पूर्ण रूप से कृतज्ञ हो। तीसरे तरह कि प्रार्थना भी होती है जब आप पूर्ण विवेक में हों। तब आपको यह पता चलता है कि चेतना की गुणवत्ता अपनी सभी सीमाओं के परे चली गई है और बहुत ऊपर उठ गई है। उसकी दिशा पूर्णरूप से बदल गई है जो पूर्णता देने वाली है, संपूर्ण ज्ञान से भरपूर है और पूरे विवेक और प्रेम से ओत-प्रोत हैं। प्राय: लोग कहते हैं, हृदय से प्रार्थना करो। इससे काम नहीं चलने वाला। जब आप बैचेनी में हो, इच्छा से भरे हुए हो और बिखरे हुए हों। आपको अपने अस्तित्व से प्रार्थना करनी होगी, दूसरे चक्र से। जब पूर्ण कृतज्ञ हों तब आप हृदय से प्रार्थना करो, लेकिन जब आप दयनीयता की स्थिति में हों तब आप हृदय से प्रार्थना नहीं कर सकते।
एक बार जब आप यह कहते हो, ठीक है, मैनें सबकुछ छोड़ दिया, तब आपकी प्रार्थना की तीव्रता पूर्ण हो जाती है। इसी तरह से इच्छा के ज्वर से बाहर निकला जा सकता है। आप अपने अस्तित्व से प्रार्थना करें। यह ही आपको सशक्त बनाती है, क्योंकि दिव्यता कमजोर के लिए बनी है। इसीलिए उसे दीनबंधु कहते हैं। दीन का अर्थ है कमजोर, दयनीय, शक्तिहीन और निसहाय और बंधु का अर्थ है मित्र। इसीलिए आप प्रार्थना करते हैं, अब मेरे पास कोई रास्ता नहीं है और मैं तनाव छोड़ देता हूं। मुङो सहायता की जरूरत है। तभी आपके चारों ओर परिवर्तन होने लगते हैं। प्राय: लोग पूछते हैं, हम इतने सारे देवी देवताओं से प्रार्थना क्यों करते हैं? दिव्यता (परमात्मा) एक ही है, लेकिन अनेक नामों से पुकारा जाता है। बस यही कारण है कि परमात्मा को भिन्न-भिन्न नामों, रूप और रंगों से जगाया जाता है।
ईश्वर सबके हृदय में हैं, सब जगह हैं, आपके चारों ओर हैं और आपमें भी हैं। वह जानत हैं कि आपके लिए सबसे उत्तम क्या है और आपको जो सबसे अच्छा लगता है वही आपको देते हैं। प्रार्थना का अर्थ है दिल की गहराइयों से पुकारना। एक बच्चा रोता है तो कैसे रोता है? बच्चा अपनी मां के लिए पूरे शरीर से रोता है। उसके शरीर का एक-एक कण और दिल का एक-एक कोना कुछ मांगता है। पुकारना, पूरे दिल से पुकारना ही प्रार्थना है। जब हम अपने हृदय से कुछ करते हैं तो यही प्रार्थना होती है। 1प्रार्थना की उच्च अवस्था ही ध्यान है। प्रार्थना का अर्थ है मांगना, ध्यान का अर्थ है सुनना। प्रार्थना में आप कहते हैं, मुङो ये दो, वो दो। निर्देष देते हो, मांग करते हो। ध्यान में आप कहते हैं, मैं यहां पर हूं सुनने के लिए, जो कुछ भी आप बताना चाहते हैं मुङो बताएं। जब प्रार्थना अपने शिखर की ओर जाती है तब वह ध्यान हो जाता है। मौन प्रार्थना से बेहतर है। प्राय: प्रार्थना किसी भाषा में होती है-जर्मन, हिंदी, स्पेनिश, इंग्लिश। वास्तव में, इन सबका एक ही अर्थ है।