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दशनामी नागा संप्रदाय ने समृद्ध की परंपरा

अखाड़ों की परंपरा को दशनामी नागा साधुओं ने और समृद्ध किया। इन योद्धा संन्यासियों की स्थापना का कारण था कि परमहंस संन्यासियों ने यह अनुभव किया कि केवल शास्त्र ज्ञान के आधार पर ही आसुरी वृत्तियों पर विजय नहीं मिल सकती। तब से अब तक शास्त्रधारी और शस्त्रधारी साधु हर बार जहां कहीं भी कुंभ मेले लगते हैं, आते हैं।

By Edited By: Published: Wed, 09 Jan 2013 02:35 PM (IST)Updated: Wed, 09 Jan 2013 02:35 PM (IST)
दशनामी नागा संप्रदाय ने समृद्ध की परंपरा

इलाहाबाद, [शरद द्विवेदी]। अखाड़ों की परंपरा को दशनामी नागा साधुओं ने और समृद्ध किया। इन योद्धा संन्यासियों की स्थापना का कारण था कि परमहंस संन्यासियों ने यह अनुभव किया कि केवल शास्त्र ज्ञान के आधार पर ही आसुरी वृत्तियों पर विजय नहीं मिल सकती। तब से अब तक शास्त्रधारी और शस्त्रधारी साधु हर बार जहां कहीं भी कुंभ मेले लगते हैं, आते हैं। अखाड़ों के इतिहास पर लंबे समय से अध्ययन कर रहे डॉ. कृष्णानंद पांडेय के अनुसार कुंभ महापर्व में नागा संन्यासियों के आगमन की परंपरा का इतिहास पुराना है। प्रसिद्ध इतिहासविद् यदुनाथ सरकार ने भी कहा है कि भारत में नागा संप्रदाय की परंपरा प्रागैतिहासिक है। सिंधु की रम्य घाटी में स्थित विख्यात मोहनजोदड़ो की खुदाई में पाई जाने वाली मुद्रा तथा उस पर पशुओं द्वारा पूजित एवं दिगंबर रूप में विराजमान पशुपति की अंकन इस बात का प्रमाण है कि वैदिक वांग्मय में भी ऐसे जटाधारी तपस्वियों का वर्णन मिलता है। भगवान शिव इन तपस्वियों के अराध्य देव हैं। सिकंदर महान के साथ आए यूनानियों को अनेक दिगंबर दार्शनिकों के दर्शन हुए थे। बुद्ध और महावीर भी इन्हीं दार्शनिकों के दो प्रदान संघों के अधिनायक थे। कुछ विद्वानों का मत है कि नागा संन्यासियों के अखाड़े आदि शंकराचार्य के पहले भी थे, लेकिन उस समय इन्हें अखाड़ा नाम से नहीं पुकारा जाता था। इन्हें बेड़ा अर्थात साधुओं का जत्था कहा जाता था। दशनामी अखाड़ों में से एक पंचायती महानिर्वाणी अखाड़ा के विद्वान महंत गोविंद गिरि का मानना है कि बौद्ध मठों में कदाचार एवं धर्म पर अत्याचार को रोकने के लिए आदि शंकराचार्य ने इन जत्थों को संगठित किया और मठों में स्थापित कराया। पहले अखाड़ा शब्द का चलन नहीं था। साधुओं के जत्थे में पीर और तद्वीर होते थे। अखाड़ा शब्द का चलन मुगलकाल से शुरू हुआ। नागा संन्यासियों में से अधिकांश आचार्य शंकर द्वारा संगठित सबसे पुरातन और सबसे विशाल व प्रभावशाली संघ दशनामी संप्रदाय के अंतर्गत आते हैं। दीक्षा के समय प्रत्येक दशनामी जैसा कि उसके नाम से ही स्पष्ट है, निम्न नामों, गिरि, पुरी, भारती, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, तीर्थ, आश्रम या सरस्वती में से किसी एक नाम से अभिभूषित किया जाता है। इसके पश्चात उसे कुछ प्रतिज्ञा करनी पड़ती है, जिनके अनुसार वह यह संकल्प करता है कि वह दिन में एक बार से अधिक भोजन नहीं करेगा। सात घरों से अधिक घरों से मधुकरी नहीं मांगेगा। भूमि के अतिरिक्त किसी अन्य स्थान में शयन नहीं करेगा। न वह किसी के सामने नतमस्तक होगा, न ही किसी की प्रशंसा करेगा, न किसी के विपरीत दुर्वचनों का प्रयोग करेगा और न अपने से श्रेष्ठ श्रेणी के संन्यासी की छोड़कर अन्य किसी का अभिवादन करेगा। गेरुआ वस्त्र के अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्त्र से अपने को आच्छादित नहीं करेगा। डॉ. कृष्णानंद पांडेय के अनुसार इन दशनामी नागाओं के दो अंग हैं:- शास्त्रधारी और अस्त्रधारी। शास्त्रधारी शास्त्रों आदि का अध्ययन कर अपना आध्यात्मिक विकास करते हैं तथा अस्त्रधारी अस्त्रादि में कुशलता प्राप्त करते हैं। इन संन्यासियों की चार श्रेणियां हैं- कुटीचक, बहूदक, हंस और परमहंस। नागाओं में परमहंस सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। नागाओं में शस्त्रधारी नागा अखाड़ों के रूप में संगठित हैं। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के अनुसार भारतीय इतिहास के कितने ही पृष्ठ ऐसे ही शस्त्रधारी संन्यासियों के पराक्रम के कार्यो से रंगे पड़े हैं।

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