नकली साधुओं की पहचान करें अखाड़े
जगन्नाथ मंदिर अहमदाबाद में स्थापित महंत राजेन्द्र दास 17 वर्ष की उम्र में साधु बन गए। मध्यप्रदेश के सीधी करिया गांव निवासी राजेन्द्र तिवारी सबसे पहले बड़ोदरा के बाबा बलदेवदास के संपर्क में आए। 1992 में वे अपनी बहन के यहां पहाड़ा (मिर्जापुर) में पढ़ने गए थे,
जगन्नाथ मंदिर अहमदाबाद में स्थापित महंत राजेन्द्र दास 17 वर्ष की उम्र में साधु बन गए। मध्यप्रदेश के सीधी करिया गांव निवासी राजेन्द्र तिवारी सबसे पहले बड़ोदरा के बाबा बलदेवदास के संपर्क में आए। 1992 में वे अपनी बहन के यहां पहाड़ा (मिर्जापुर) में पढ़ने गए थे, वहीं उनकी मुलाकात गुजरात से आए एक महंत से हुई। उनके सानिध्य में कुछ दिन रहने के बाद वह साथ में गुजरात चले गए। कुछ दिन वह बड़ोदरा और फिर वे अहमदाबाद आ गए। यहां महामंडलेश्वर रामअवतार दास से भेंट हुई। जिनके साथ वे जगन्नाथ मंदिर अहमदाबाद आ गए। वहीं निर्मोही अखाड़े के श्री महंत नंदराम दास से मिले। उन्हें अपना गुरु मानकर उनसे दीक्षा ली और राजेन्द्र तिवारी से राजेन्द्र दास हो गए। गुरु जमातीय महंत थे। उनके साथ देश के विभिन्न हिस्सों में घूमे। 1998 में हरिद्वार कुंभ में नागा बने। 2003 नासिक कुंभ में श्री महंत बने। अब वे अपने गुरु की गद्दी पर बैठे हैं। जगन्नाथ मंदिर में महामंडलेश्वर दिलीप दास और कार्यकारी महेन्द्र भाई झा के साथ वे यहीं स्थापित हो गए है।
साधु समाज में असली नकली की पहचान होना जरूरी है। बहुत से लोग साधु का चोला पहनकर सनातन धर्म को बदनाम कर रहे हैं। ऐसे लोग बढ़-चढ़ कर समाज का प्रमुख हिस्सा बनना चाहते हैं। यह सब फोकस में रहना चाहते हैं। इन पर रोक लगनी चाहिए। निर्मोही अनी अखाड़ा के श्री महंत राजेन्द्र दास इस स्थिति से काफी चिंतित हैं। उनका मानना है कि हम लोगों के बीच ही ऐसे लोग प्रश्रय पाते हैं। साधु समाज को स्वयं आगे आकर इन्हें चिह्नित करना चाहिए। वे कहते हैं कि गंगा के साथ देश की सभी नदियों को प्रदूषण से मुक्त करने का अभियान चलाया जाना चाहिए। गंगा सर्वोपरि है लेकिन जहां-जहां कुंभ लगता है वहां की नदियों की स्वच्छता पर ध्यान देना जरूरी है। इस दिशा में निर्मोही अखाड़ा काम कर रहा है। वैष्णव संतों ने इसके लिए समय-समय पर अभियान चलाया है। गंगा की स्वच्छता के लिए जो भी आंदोलन चल रहे हैं उसमें अखाड़े के लोग शामिल हो रहे हैं। महंत राजेन्द्र दास से रवि उपाध्याय की बातचीत के प्रमुख अंश-
भारतीय संस्कृति के क्षरण का क्या कारण है?
भारतीय संस्कृति का क्षरण कहां हो रहा है। यह लोगों का भ्रम है। भारतीय संस्कृति सबसे अच्छी है। इस कुंभ में यह साफ दिखा। जिस तरह से पूरे विश्र्र्व के लोग यहां आए और यहां की गतिविधियों में भाग लिया वह अपने आपमें भारतीय संस्कृत के प्रति लोगों की दिलचस्पी को साफ दिखा रहा है। विभिन्न संतों के साथ विदेशी भक्तों की फौज ने भी यह साबित कर दिया है कि हम किसी से पीछे नहीं हैं। अब जो लोग इसको नकारात्मक दृष्टि से देख रहे हैं वह उनकी सोच हो सकती है। सीधे तौर पर कहा जाए तो भारतीय संस्कृति सबसे अच्छी है। सनातन धर्म की व्याख्या कैसी जा सकती है?
सनातन धर्म की व्याख्या शब्दों में नहीं हो सकती। सनातन धर्म को समझना बहुत कठिन है। यह बहुत विस्तृत है। आप सिर्फ इतना समझें कि जहां शस्त्र-शास्त्र, मानव, पशु-पक्षी, वृक्ष सबमें समानता हो वही सनातन है। सनातन धर्म में सिर्फ मानव नहीं बल्कि संपूर्ण ब्रंांड की चिंता होती है। संत-महात्मा, सृष्टि के कल्याण के लिए समय-समय पर यज्ञ-अनुष्ठान करते हैं। ऋषि-मुनियों ने कठोर तपस्या के बाद जो विरासत छोड़ी है, इसके माध्यम से हम उसे संरक्षित करने का प्रयास करते हैं। असली-नकली साधु से क्या तात्पर्य है?
साधु समाज को बदनाम करने के लिए तमाम कथित लोग इसमें घुस आए हैं। उन्होंने साधुओं का चोला पहन लिया है। फर्जी संस्थाएं बनाकर गलत कार्यो में लिप्त हैं। इनकी पहचान साफ तौर पर की जा सकती है। अखाड़े, असली-नकली साधुओं को तुरंत पहचान लेते हैं। अखाड़ों से जुड़े खालसों में साधुओं की संख्या बहुत है। ऐसे में प्रयास है कि संत समाज, ऐसे जिस भी कथित साधु को देखे उसे बेनकाब करने को आगे आए। नकली साधु से क्या तात्पर्य है?
जो गलत आचरण करते हैं। साधु वेश में सांसारिक कामों में लिप्त है। मारपीट करते हैं। ऐसे साधुओं की बात की जा रही है। सांसारिक कामों में तो बहुत से साधु लिप्त हैं। इसी कुंभ मेले में यह बात साफ देखने को आई। महंगी गाडि़यां और फाइव स्टार कॉटेज में रहने वाले साधु क्या हैं?
यह सवाल बार-बार उठता है कि साधु संत महंगी गाडि़यों से चलते हैं। इसमें बुराई क्या है। प्राचीन काल में ऋषि मुनि रथों से चलते थे। उनके आश्रम बहुत शानदार होते थे। वशिष्ठ, द्रोणाचार्य, विश्र्वामित्र, भारद्वाज आश्रम इसके साफ उदाहरण हैं। राजा महाराजा इनके यहां पढ़ने को जाते थे। अब यहां कहां लिखा है साधु हमेशा पेड़ के नीचे रहेगा। आप इसे कहां तक उचित मानते हैं कि साधु बनने के बाद भौतिक सुखों को भोगा जाए?
यह ठीक नहीं है। वैराग्य लेने के बाद धर्म संस्कृति की रक्षा करना साधु का कर्त्वय होना चाहिए। धर्म- परमार्थ यही उद्देश्य साधु का रहे, तो उचित है। जो साधु है, वह भौतिक सुखों को नहीं भोग रहा है। यह आंखों का धोखा है। यहां कुंभ में लोग साधुओं को देख रहे हैं। जहां इनका मूल स्थान है वहां जिस सादगी से साधु रहता है उसे देख कर कोई बात करनी चाहिए। क्या गुरु के सानिध्य से सत्य के दर्शन हो जाते हैं?
सही गुरु मिलने पर सत्य के दर्शन अवश्य हो जाते हैं। जो लोग गुरु के सानिध्य में हैं वह उनको जितना मानते हैं उतना अपने माता पिता का सम्मान नहीं करते हैं। सही गुरु मानव कल्याण के लिए जीता है। आध्यात्मिक ऊर्जा से समाज को दिशा देने के लिए वह अपना घर, द्वार, रिश्ता-नाता छोड़कर कठोर तपस्या करते हैं, उनके लिए समाज की भलाई ही सबकुछ होता है, जिसके लिए दिनरात जप-तप करते हैं। ऐसे त्यागी मनुष्य का सानिध्य करना सबसे अधिक पुण्यकारी होता है। संतों की संख्या बढ़ने के बावजूद समाज में इतनी गिरावट क्यों आ रही है?
समाज में गिरावट का कारण कई तरह से है। समाज के हर वर्ग में गिरावट आ रही है। उससे लोगों को सिर्फ संत ही निकाल सकते हैं यह समझना या सोचना उचित नहीं है। संतों को अपनी जिम्मेदारी का एहसास है। वह तपस्या व प्रवचन के बल पर लोगों की सोच बदल रहे हैं, इससे संस्कार व संस्कृति बढ़ेगी, गलत मानसिकता के लोग भी सन्मार्ग को अपनाने को बाध्य होंगे। गंगा की स्वच्छता के लिए आप क्या कर रहे हैं?
सिर्फ गंगा की स्वच्छता के लिए ही काम नहीं किया जा रहा है। मेरा मानना है कि देश की सभी नदियों को प्रदूषण से मुक्त करने का अभियान चलाया जाना चाहिए। खासकर जिन नदियों के तट पर कुंभ लगते हैं वहां इनकी सफाई जरूरी होनी चाहिए। इसमें गंगा सर्वोपरि है। जो लोग गंगा को गंदा कर रहे हैं हम उनको रोकने का काम कर रहे हैं। जागरूकता पैदा की जा रही है। यह देश का इस समय सबसे अहम मसला बन गया है। एक चिंगारी निकली है। धैर्य रखिए सब कुछ ठीक हो जाएगा। गाय की स्थिति दयनीय है, इसके लिए आप क्या कर रहे हैं?
गाय, गायत्री और गंगा का अस्तित्व खतरे में पड़ना सनातन धर्म के लिए चिंता की बात है। इसकी रक्षा के लिए हम कटिबद्ध हैं जगह-जगह जनजागरण कर रहे हैं। इससे लोगों की सोच में बदलाव देखने को मिल रहा है। मुझे पूरा विश्र्वास है कि शास्त्र के ज्ञान से इस समस्या का जड़ से समाधान होगा। वैरागी और संन्यासी अखाड़ों का विवाद क्या है?
यह अखाड़ा परिषद का विवाद था। किसी संगठन को चलाने के लिए सभी को एक दूसरे का पूरक होना पड़ेगा। पदों को लेकर समझौता करना होगा। यदि एक भाई 20 वर्ष तक किसी पद पर रहता है तो दूसरे को कम से कम 15 वर्ष तक रहने का अधिकार तो देना ही चाहिए। अब संन्यासी अखाड़े अपनी चलाएंगे तो निश्चित ही हम विरोध करेंगे। वैसे हम नहीं चाहते हैं कि अखाड़ों के बीच के विवाद का फायदा कोई दूसरा उठाए। इस मेले में ऐसा हुआ। अखाड़े एक नहीं हो पाए। मेला प्रशासन अपनी मनमर्जी करता रहा। शाही स्नान में यह साफ दिखा। अखाड़ों के अंदर क्यों मतभेद रहता है?
अखाड़ों में पंचायती व्यवस्था है। सबका अपना लोकतंत्र है जिसके आधार पर वह काम करते हैं। हर अखाड़ा का एक-एक संत नि:स्वार्थभाव से धर्म प्रचार में लगा है, कुछ मुद्दों पर विचारों में मतभेद हो जाता है, लेकिन वह स्थाई नहीं होता। सब एक-दूसरे का हृदय से सम्मान करते हैं, और आगे भी करते रहेंगे। संत अपनी शक्ति से सनातन धर्म का प्रचार-प्रसार करने के साथ समाज में भावनात्मक जागृति ला रहे हैं। इसके लिए वह आगे भी काम करते रहेंगे।
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