काली बिल्ली की व्यथा
यूं तो समस्त जीव इसी सृष्टि में जन्मे हैं और सभी को जीवन का अधिकार भी इंसान जितना ही है। इसके बावज़्ाूद अंधविश्वास से घिरे कुछ लोग बिल्ली और ख़्ाासतौर पर काली बिल्ली को अपशकुन मानते हैं। उसके रास्ता काटने पर रुक जाते हैं। ऐसे में बेचारी नन्ही सी बिल्ली
यूं तो समस्त जीव इसी सृष्टि में जन्मे हैं और सभी को जीवन का अधिकार भी इंसान जितना ही है। इसके बावज्ाूद अंधविश्वास से घिरे कुछ लोग बिल्ली और ख्ाासतौर पर काली बिल्ली को अपशकुन मानते हैं। उसके रास्ता काटने पर रुक जाते हैं। ऐसे में बेचारी नन्ही सी बिल्ली कितनी निरीह हो उठती है, उसी को चित्रित करती है यह मार्मिक कहानी, जिसे अनुभव के रूप में लिखा गया है।
ओह! इट्स सो स्केयरी... मेरे आगे जा रही एक संभ्रांत सी दिख रही स्त्री ने अपने पुरुष मित्र से कहा। मेरी नज्ार ठीक सामने दुबकी बैठी छोटी सी काली बिल्ली पर पडी, जो भयाक्रांत आंखों से युगल को देख रही थी। वह बेज्ाुबान कह न सकी कि ऐ पढी-लिखी लडकी, तुम्हें देखकर मुझे डर लग रहा है। हो सके तो मेरी आंखों की मासूमियत को देखो, जिसमें बेशुमार प्यार-दुलार भरा है, जो बदले में केवल प्यार-करुणा और सहानुभूति चाहती है। नहीं दे सकती, तो तिरस्कार तो न करो, छोटे से बेज्ाुबान जानवर को डराओ तो नहीं!
ये स्थिति आज की खिचडी पीढी की है, जो न ही पूरी तरह गांव की मिट्टी से जुडी रह सकी, जहां पशु-पक्षियों को प्यार से पालते हैं, न ही पूरी तरह उन अंग्रेज्ाों की तरह बन सकी, जो बिल्लियों को दुत्कारते नहीं, उन्हें प्यार से पालते हैं। सुना है किबहुत से यूरोपीय देशों में लोग घरों के दरवाज्ाों में नीचे का छोटा सा हिस्सा खुला छोड देते हैं, ताकि बाहर की ठंड से ठिठुरती बिल्लियां उनके घरों में आराम कर सकें।
शहरों में उन स्त्रियों को देखें जो दिन-रात भजन-कीर्तन में लगी रहती हैं, लेकिन अपने अंधविश्वास में मासूम जानवरों पर अत्याचार करती हैं। कुछ ही दिन हुए, मैंने अपनी बिल्डिंग की सीढिय़ों से उतरते हुए बिल्ली के दो छोटे-छोटे ब'चे देखे, जो हमें देखकर डर गए थे! मैंने कभी पशु-पक्षी नहीं पाले। मेरे विचार से उनकी दुनिया हमसे अलग है और उन्हें अपनी दुनिया में आज्ााद घूमने देना चाहिए! उन्हें उनकी दुनिया से अलग करके हम उन पर अत्याचार करते हैं। हां, कभी कोई जानवर तकलीफ में दिखा तो अपनी ओर से उसकी मदद करने की पूरी कोशिश मैं ज्ारूर करती हूं।
उन बिल्लियों को देख मैंने उन्हें पुचकारा, एक-दो तसवीरें लीं और नीचे उतर गए। अगले ही दिन मेरे बेटे का फोन आया कि किसी बर्तन में थोडा दूध ले आओ, मैं लिफ्ट के पास खडा हूं। मैं समझ गई कि ये फरमाइश बिल्ली के ब'चों के लिए ही आई है। तुरंत एक प्लास्टिक के डिब्बे में दूध लेकर पहुंची तो देखा उन्हीं दो बिल्लियों में से काली वाली बिल्ली मेरे बेटे के पैर के पास खडी है और दूध का बर्तन रखते ही वह उस पर टूट पडी। थोडा ही दूध पीकर वह सीढिय़ों पर कुछ नीचे गई और हमें ये देखकर बहुत हैरानी हुई कि न जाने कहां से तीन और ब'चे वहां आ गए। एक ओर तो मैं इस काली बिल्ली की समझदारी पर हैरान थी कि उसने अकेले सारा दूध पीने जैसा स्वार्थ नहीं दिखाया, दूसरी ओर मैंने महसूस किया कि जितना दूध मैं लाई थी, वह उतनी बिल्लियों के लिए पर्याप्त नहीं था। मैंने एक और बर्तन में थोडा दूध दिया और अपने बेटे के साथ इस नए अनुभव पर ख्ाुश होते हुए घर चली आई। फिर हमने एक नियम बना लिया। हम लिफ्ट के पास एक गमले के पीछे छुपाकर दूध का बर्तन रखते, ताकि कोई इंसान अपनी समझदारी दिखाते हुए उनसे उनकी खुराक छीन न ले। ऐसा इसलिए भी कि कई लोग कहीं जाते हुए राह में दूध देखने को भी एक िकस्म का अपशकुन मानते हैं। ख्ौर, उन ब'चों को दूध देने का ये सिलसिला चल निकला और जल्दी ही, ज्ारूरत पडऩे पर काली बिल्ली अपनी एक पीली बहन के साथ हमारे घर तक पहुंचने लगी और भूख लगने पर आवाज्ा देना भी शुरू कर दिया।
इंसानी कुटिलता से बेिफक्र मैं उनकी ये छोटी ज्ारूरतें पूरी करती रही। जल्द ही, कुछ पडोसियों ने बताया कि बिल्लियों को दूध देकर मैं ग्ालत कर रही हूं। बिल्लियां जहां खाती हैं, वहीं गंदगी कर देती हैं। मुझे ये सोचकर हंसी आ गई कि एक-डेढ महीने की उम्र में तो इंसान का ब'चा भी जहां-तहां गंदा कर देता है! मैंने कहा, कि आप चिंता न करें, मैं पानी डालकर सफाई करवा दूंगी। लेकिन इंसानों को या तो सब्र नहीं या फिर समझ नहीं, संभ्रांत पडोसियों ने ब'चों को डंडे मारकर भगाना शुरू कर दिया। देखकर दिल तडप उठा! इतने बडे-बडे इंसानों को इतने छोटे से जीव से इतनी तकलीफ कैसे हो सकती है? पता चला, वो इसे मनहूस मानते हैं! जी में आया, बताऊं कि मैं भी उन सारे इंसानों को मनहूस मानती हूं जो धर्म-कर्म से जुडे सारे आडंबर तो करते हैं, लेकिन हमारे धर्म में जो सबसे बडी बात बताई गई है कि जीवों के प्रति करुणा दिखाओ, उसी का पालन नहीं करते।
क्रोध तो था ही, साथ ही मैं जानती थी कि इंसानों को मैं समझा नहीं सकती। इस समय मेरी सारी चिंता उन बिल्लियों की सुरक्षा को लेकर थी। मैं जानती थी कि हर समय उन्हें बचाने का काम नहीं कर सकती। ऐसा न हो कि अपने बचाव में वे आक्रामक हो जाएं, उनकी मासूमियत ख्ात्म हो जाए या फिर सहम कर वे कहीं छुप जाएं। हर बात पर विचार करके हमने निर्णय लिया कि छोटी बिल्लियों को हम एनिमल-शेल्टर में छोड आएंगे, जहां उन्हें साथी मिलेंगे और वे सुरक्षित रहेंगी।
एक शेल्टर में बात की और उनके प्रोत्साहन पर बडी मुश्किल से दोनों बिल्लियों को थैले में बिठाकर शेल्टर पहुंच गए, जो हमारे घर से करीब पंद्रह किलोमीटर दूर था। बिल्लियां बहुत डरी हुई थीं, ख्ाासतौर पर वह काली वाली, शायद इसलिए कि इतने दिनों में वह इंसानों का काफी तिरस्कार झेल चुकी थी। ब'चे इंसान के हों या पशुओं के, संवेदनाओं को बख्ाूबी समझते हैं। वे पहचानते हैं कि कौन उन्हें प्यार करता है और कौन उनका तिरस्कार करता है। काली बिल्ली सारे रास्ते 'म्याऊं-म्याऊं करती रही और बदले में हम उसे पुचकारते रहे।
बिल्लियों की सुरक्षा को लेकर मन इतना चिंतित था कि कब एनिमल केयर सेंटर पहुंच गए, पता ही नहीं चला। डॉक्टर ने दोनों बिल्लियों की जांच की। काली वाली, जो अब तक कुछ कमज्ाोर हो गई थी, उसे दवा भी दी और हमसे कहा कि वापस थैले में रखकर ले जाइए। हमने कहा, हमारे पडोसी इन्हें जीने नहीं देंगे। हम तो इन्हें यहां छोडऩे आए हैं लेकिन उनका कहना था कि बिल्लियां स्वस्थ हैं, इन्हें यहां नहीं रखा जा सकता।
निराश भाव से हम फिर उन दोनों नन्ही बिल्लियों को लेकर वापस आ गए। अब तक दोनों थक चुकी थीं, थोडा दूध पीकर अपने ठिकाने पर सोने चली गईं। अगले दिन नौ बजते ही हमने शेल्टर सेंटर की मैडम को फोन लगाया। हमने उन्हें बताया कि हमारे पास बिल्ली के दो ब'चे आते हैं, लेकिन पडोसियों को ऐतराज है और वे उन्हें भगाने के लिए डंडे मारते हैं।
उन्होंने तुरंत कहा, 'वे ऐसा कैसे कर सकते हैं? क्या उन्हें पता नहीं कि कानून जानवरों के साथ क्रूरता को स्वीकार नहीं करता? हम जिन जगहों पर घर बनाए बैठे हैं, वहां इन बिल्लियों का भी पूरा हक है। हमने जंगल काटकर घर बना लिए। अब वे मासूम कहां जाएं? आप मुझे अपने पडोसियों के फोन नंबर्स दीजिए, मैं उन्हें कानून समझाऊंगी। कानून इन बेज्ाुबान जानवरों के साथ है!
पडोसियों के नंबर देकर मैं बात बढाना नहीं चाहती थी। इसलिए मैंने कहा, मैडम, पडोसियों का कहना भी ठीक है। उनके ऐतराज का मेरे पास इसलिए जवाब नहीं होता, क्योंकि ये घरों के सामने गंदगी कर देते हैं।
इस पर उन्होंने साफ-साफ कहा, 'देखिए, आपके घर के बाहर कोई बिल्ली या जानवर अगर गंदगी करता है तो इसके लिए आपको किसी को कुछ कहने का हक नहीं है। आपके घर के दरवाज्ो के बाहर आपकी संपत्ति ख्ात्म और सार्वजनिक संपत्ति शुरू हो जाती है। कानून से आपको ऐसा कोई अधिकार नहीं मिला है कि इसके लिए आप जानवरों के साथ क्रूरता बरतें।
मैंने कहा, ठीक है, मैं ये बात अपने पडोसियों तक पहुंचाने का प्रयास करूंगी। अगर वे फिर भी नहीं समझते तो आपको उनके नंबर दूंगी।
इस बीच ये छोटी-छोटी बिल्लियां काफी सहम चुकी थीं। पहले एक बडे से खाली गमले में वे अपनी नित्य-क्रिया निपटातीं और ऊपर से मिट्टी से ढक देतीं। मगर समझदार पडोसियों ने गमले में पानी भर दिया तो वे बेहाल होने लगी थीं। जब भी उन्हें भूख लगती, चुपके से मेरे घर के दरवाज्ो पर आकर आवाज्ा देतीं। खाने-पीने-खेलने के बाद मेरे पैर पर लोट-लोटकर समझातीं कि अब मैं उन्हें नीचे छोड आऊं। कुछ सप्ताह पहले तक दबंगों की तरह घूमती थीं, लेकिन इंसान की कुटिलता ने उन्हें निरीह बना दिया है। मैं जब उन्हें नीचे छोडऩे जाती, उनकी निरीह याचक दृष्टि देख कर कलेजा मुंह को आने लगता।
इस अनुभव ने मुझे कितनी ही बातें सोचने को मजबूर कर दिया और जानवर की समझदारी के विषय में कितनी ही बातें मुझे भी समझ में आ गईं!
एक तो, बिल्ली चोरी नहीं करती। वे दोनों केवल उसी बर्तन में दूध पीती हैं, जिनमें मैं उनके लिए निकालती हूं। कोई भी दूसरा बर्तन हो तो उसमें मुंह नहीं मारतीं। हां, अगर किसी कारण वे लंबे समय तक भूखी रह जाएं तो हो सकता है कि वे चोरी करने लगें, जो स्वाभाविक भी होगा।
दूसरे, बिल्लियां गंदगी का इंतज्ााम ख्ाुद करती हैं। वे हमेशा अपने पंजों से मिट्टी खोदकर गंदगी पर डाल देती हैं। पहली बार उनकी यह समझदारी देख कर मैं हैरान रह गई थी। सोचने लगी कि घरों के आगे हर जगह पर सीमेंटेड बनाने के बजाय थोडी जगह मिट्टी रहने दी जाए। इससे जानवरों को सुविधा रहेगी, दूसरे बारिश का पानी ज्ामीन के नीचे आसानी से जा सकेगा और भूमिगत जल-स्तर में भी वृद्धि होगी।
सुना है, गांवों में बहुत से किसान बिल्लियां पालते हैं, क्योंकि इनका मल मिट्टी के लिए उपजाऊ होता है। साथ ही, ये चूहों से अनाज की रक्षा करती हैं। पर्यावरण के इस संतुलन को व्यावहारिक किसान तक समझते हैं।
एक मित्र ने बताया कि जर्मनी में काली बिल्ली रास्ता काट दे तो वहां के लोग इसे शुभ मानते हैं और कहते हैं कि आज कुछ अ'छा होगा। जैसे विचार-वैसे परिणाम भी। कई बार वाकई उनके काम बन जाते हैं। लेकिन हमारे यहां काली बिल्ली को देखना अपशकुन समझा जाता है। अब अगर पहले ही मान लें कि अपशकुन होगा तो फिर वैसा ही होगा भी। जैसी सोच-वैसा नतीजा, इसमें बिल्ली का क्या दोष!
भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए स्त्रियां कितने जतन करती हैं। वे स्वयं पशुपतिनाथ हैं। अगर मन में उनके द्वारा रचे प्रत्येक प्राणी के लिए करुणा नहीं है तो क्या ईश्वर के मन में आपके लिए करुणा होगी! जिन शेरावाली मां के नाम पर कीर्तन होते हैं, उनकी सवारी शेर भी बिल्ली की ही प्रजाति का है। युवा पीढी भी कितनी तरह के अंधविश्वासों से घिरी हुई है। विज्ञान बताता है कि पर्यावरण के लिए हर जीव का अस्तित्व ारूरी है। जैसे मेंढकों की संख्या कम होने से म'छरों की संख्या इतनी बढ गई कि हम हर वर्ष मलेरिया, डेंगी और चिकनगुनिया जैसी बीमारियां झेलने लगे, क्योंकि मेंढक म'छरों को खा जाते थे। उसी तरह बिल्लियां भी शहरों में बहुत कम दिखाई देने लगी हैं। अगर ऐसा ही रहा तो उनकी संख्या और कम होती जाएगी और भविष्य में चूहों और उनसे जुडी विकट बीमारियों का सामना करना पड सकता है। पशु-पक्षी लुप्त होते जा रहे हैं और इसके दुष्परिणाम पर्यावरण को झेलना पड रहा है। अंतत: ये दुष्परिणाम इंसानों को भी झेलने पडते हैं, फिर भी इन जानवरों से नफरत करने की मानसिकता हम नहीं छोड पाते। न हम धर्म की बातें समझते हैं, न करुणा-संवेदना की और न विज्ञान की? न परंपराओं को पूरी तरह अपना पाते हैं और न विज्ञान के नियमों को मानते हैं। ऐसे लोगों को डराया जा सकता है, जैसा कभी ज्ञानी-पंडितों ने किया। उन्होंने बिल्ली को चोट पहुंचाने को महापाप कहा। ये ज्ञानी जानते होंगे कि स्वार्थी इंसान पाप-पुण्य की भाषा आसानी से समझता है, प्रेम और करुणा की नहीं। शायद इसीलिए उन्होंने लोगों को डराया होगा कि अगर किसी के हाथों बिल्ली की मौत हो जाए तो उसे महापाप लगेगा, जिसके निवारण के लिए उसे सोने की बिल्ली दान करनी होगी। एक तरफ पाप का डर और दूसरी ओर पैसे ख्ार्च होने का डर दिखा कर स्वार्थी मनुष्य को जीव-हत्या से बचाने की कोशिश की गई।
आजकल कानून का भय दिखा कर यही किया जाता है, क्योंकि लोग बातों से नहीं मानते। अंधविश्वासों के चक्कर में इंसान ज्ारा सी बिल्ली को कितना मनहूस समझने लगता है, जबकि वह इंसान के करीब रहने वाला जानवर है। कहते हैं, दुनिया में एक ऐसा गांव भी है, जहां लोग किसी पेड को काटते नहीं, बस उसके चारों ओर खडे होकर उसे गालियां देते हैं। जल्दी ही वह पेड सूख जाता है। क्या इसी तरह काली बिल्ली को अकारण तिरस्कृत करके लोग उसे नहीं मार रहे?
अगर हम मानते हैं कि ईश्वर ने ही समस्त जीवों की रचना की है तो इस नन्हे से जीव को भी तो उसी ने जन्म दिया है। फिर इससे इतना ख्ाौफ और घृणा क्यों?
गरिमा संजय