लघुकथा: अपने हाथ
वृक्षों ने आतंकित मुद्रा में वयोवृद्ध वटवृक्ष से समवेत स्वर में अनुनय की, ‘दादा, दुश्मन मौत बनकर आ रहे हैं, बचा लो हमें।
हरियाए वृक्षों की एक गुंफित शृंखला थी। कुल्हाड़े हाथों में लेकर कुछ लोग उन वृक्षों को काटने के लिए आ गए। वृक्ष सशस्त्र आतताइयों को देखकर घबरा गए। वृक्षों ने आतंकित मुद्रा में वयोवृद्ध वटवृक्ष से समवेत स्वर में अनुनय की, ‘दादा, दुश्मन मौत बनकर आ रहे हैं, बचा लो हमें।’वटवृक्ष ने आते लोगों की ओर देखा और एक निश्चिंत श्वास छोड़कर कहा, ‘हाथों में कुल्हाड़े होते हुए वे हमारा बाल भी बांका नहीं कर सकते, तुम बेफिक्र रहो।’ वे कुल्हाड़ों से वृक्षों के तनों पर वार करते रहे परंतु काट नहीं पाए। जाते वक्त उनके हाथों में मोटी-मोटी टहनियां थीं। अलसुबह वटवृक्ष ने आंसुओं भरी अपनी आंखों से टिमटिमाते हुए वृक्षों को चेतावनी दी, ‘वत्स, मौत बढ़ते कदमों से हमारी ओर आ रही है।’ और रो पड़ा, ‘कौन बचाएगा? जब हम ही दुश्मन के हाथों...!’ उसने अपनी बूढ़ी गर्दन आगे बढ़ा दी थी।
रत्न कुमार सांभरिया, भाड़ावास हाउस, सी-137,
महेश नगर, जयपुर 302015 (राज.)