..तो फिर हिंदी कैसे बने माथे की बिंदी!
ओजस्कर पाण्डेय, चंडीगढ़ हिंदी की विडंबना है कि अभिव्यक्ति का माध्यम हिंदी भाषा 68 वर्षो के बाद
ओजस्कर पाण्डेय, चंडीगढ़
हिंदी की विडंबना है कि अभिव्यक्ति का माध्यम हिंदी भाषा 68 वर्षो के बाद भी आजाद देश में यथोचित स्थान न पा सकी। 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। ऐसे आयोजनों में हिंदी को देश की माथे की बिंदी कहा जाता रहा है। 14 सितंबर 1949 को संविधान में अनुच्छेद 343 जोड़कर हिंदी को भारतीय संघ की राजभाषा घोषित करते हुए संविधान निर्माताओं ने सरकारी मुलाजिमों को अंग्रेजी का प्रयोग केवल 15 वर्ष तक ही करने की मोहलत दी थी। तब उनकी मंशा शायद यह थी कि देश में पंद्रह वर्षो में सरकार द्वारा ऐसा इंतजाम कर लिया जाएगा कि सरकारी कार्यालयों में कामकाज की भाषा हिंदी बन जाएगी। मगर पंद्रह वर्ष की कौन कहे 68 वर्ष भी बीत गए। हिंदी कामकाज की भाषा बनने के बजाय सरकारी कार्यालयों से ही दूर होती चली गई, जबकि हिंदी दिवस के मौके पर देशभर में गोष्ठियां सेमिनार आयोजित होते हैं।
इसी कुंठा को लेकर पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ अशोक ने बताया कि हिन्दी की विकास यात्रा का उद्गम ही उसके निरंतर बढ़ती जन स्वीकार्यता का उद्घोष करता है। हिंदी की दुर्दशा की घोषणा करते अधिकांश मतों से असहमत होते हुए यह बात पूरी शिद्दत से कही जा सकती है कि दुनिया का एलिट वर्ग चाहे इसे गरीबों की या फिर बाजारू भाषा कह जाने वाले वक्त में यही बड़ी आबादी से संपर्क का माध्यम होगी। और वे लोग जो इसे अछूत मान इससे दूरी बनाए हैं। इसकी शब्दावली साहित्य और ज्ञान-विज्ञान के भंडार को समृद्ध करते नजर आएंगे।
डॉ अशोक बताते हैं कि अनेक लोग इस आशावादी नजरिए से असहमत हो सकते हैं, किन्तु भारतीय उपमहाद्वीप के प्रांतों की आचलिक बोलियों की शब्दावली भाषा और भाव बोध को समेट रूप निखारती हिंदी को देखेंगे तो मुग्ध हुए बिना न रहेंगे। दुनिया के कोने-कोने में निवास कर रहे हिंदी भाषी अपनी पहचान व संस्कृति को अक्षुण बनाए रखने के लिए हिंदी ही का सहारा लिए हैं। विश्व पटल पर अनेक विश्व हिंदी सम्मेलनों का आयोजन कर हिंदी ने दुनिया के लोगो का ध्यान अपनी उपयोगिता गुणवत्ता और व्यापकता की ओर खींचा है। डॉ अशोक बताते हैं कि भविष्य हिंदी का है। हिंदी प्रेमी नौजवान पीढ़ी अंतरराष्ट्रीय जगत में विशिष्ट पहचान के लिए हाथ बढ़ा रही है।
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