Move to Jagran APP

ईरान पर अमेरिकी दबाव बढ़ाने के पीछे आखिर क्‍या है ट्रंप का मकसद, आप भी जान लें!

मौजूदा लोकसभा चुनाव के शोर में तेल का मसला कुछ हद तक भारत में दबा हुआ है लेकिन हमारे लिए यह बड़ी चिंता का विषय हो सकता है क्योंकि भारत कच्चे तेल का एक बड़ा आयातक देश है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 20 May 2019 02:23 PM (IST)Updated: Mon, 20 May 2019 02:23 PM (IST)
ईरान पर अमेरिकी दबाव बढ़ाने के पीछे आखिर क्‍या है ट्रंप का मकसद, आप भी जान लें!
ईरान पर अमेरिकी दबाव बढ़ाने के पीछे आखिर क्‍या है ट्रंप का मकसद, आप भी जान लें!

[पुष्परंजन]। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के डेढ़ साल रह गए हैं। क्या कुछ उसे ध्यान में रखकर ईरान से अदावत शुरू हुई है? दरअसल ट्रंप प्रशासन को ऐसा मुद्दा चाहिए जिसकी गर्माहट लंबे समय तक बनी रहे। करीब 50 युद्धक विमानों और छह हजार फोर्स को लेकर चलने वाला अमेरिकी युद्धपोत अब्राहम लिंकन इस समय खाड़ी में है। कयास लगाया जा रहा है कि इसे ईरान से दो-दो हाथ करने के वास्ते तैयार किया गया है। उधर ईरान के रेवोल्यूशनरी गार्ड एयर फोर्स के प्रमुख आमीर हाजीजेदाह को कह दिया गया है कि आप जवाबी कार्रवाई के लिए तैयार रहें। इस बीच 13 मई 2019 को यूरोपीय संघ के मुख्यालय ब्रसेल्स में एक बैठक हुई।

loksabha election banner

इस बैठक का तात्कालिक मकसद एक तरह से ईरान पर पश्चिमी दुनिया द्वारा मनोवैज्ञानिक दबाव डाला जाना था। इसलिए इस बैठक में अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो के संबोधन को खास तरीके से डिजाइन किया गया था। पोंपियो इस बैठक के बाद रूस रवाना हो गए। उनकी इस भागदौड़ को यह रूप दिया जा रहा है मानो जंग की आखिरी तैयारियों को फिनिशिंग टच दिया जा रहा हो? सवाल है क्या अमेरिका और ईरान सचमुच जंग के दरवाजे तक आ गए हैं? कुछ प्रेक्षक मान रहे हैं कि यह बहुत हद तक एक किस्म का मनोवैज्ञानिक युद्ध है।

शायद वास्तविक युद्ध न हो। लेकिन इस पूरी कवायद को इतना दबावपूर्ण तरीके से डिजाइन किया जा रहा है कि युद्ध से मिलने वाले फायदे बिना युद्ध के ही मिल जाएं। गौरतलब है कि कई वर्षों की बातचीत के बाद 2015 में संयुक्त राष्ट्र के पांच स्थाई सदस्य देशों व जर्मनी के बीच एक समझौता हुआ, जिसके तहत ईरान को अपने नाभिकीय कार्यक्रम में कटौती करना था। इस समझौते के बाद ईरान में यूरोपीय कंपनियां तेल शोधन, मेडिसिन और इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में निवेश के लिए आगे बढ़ीं। कई हजार रोजगार के अवसर भी सृजित हुए। लेकिन यह खुशहाली चार दिन की चांदनी जैसी रही। ट्रंप ने मई 2018 से यह दबाव बनाना शुरू कर दिया कि हम ईरान पर प्रतिबंध आयद कर रहे हैं, इसलिए शेष देश उससे रिश्ते न रखें।

पिछले साल अगस्त में अपने एक ट्वीट में ट्रंप ने एक बार फिर ईरान पर प्रतिबंध लगाने की आधिकारिक घोषणा कर दी। इस घोषणा के बाद कोहराम मचना स्वाभाविक था। दर्जनों यूरोपीय कंपनियां ईरान से अपना कारोबार समेट चुकी हैं, सैकड़ों रोजगार चले गए। अगस्त 2018 में ट्रंप ने यूरोपीय निवेशकों से कहा था कि आपके पास दो विकल्प हैं, या तो अमेरिका के वृहदाकार बाजार को चुन लीजिए या फिर ईरान के छोटे से मार्केट में कारोबार कीजिए। मतलब साफ था कि ईरान से धंधा करना है तो उन कंपनियों को अमेरिका में बैन किया जाएगा। इस धमकी पर निवेशकों का नुकसान होना ही था। यूरोप के जो छोटे कारोबारी ईरान में पैसे लगा चुके हैं, उनके बारे में मानकर चलिये कि वो लुट-पिट गए। अप्रैल 2018 से ट्रंप की वक्र दृष्टि ईरान पर पड़ी है।

उसकी वजह सुनने पर लगता है कि कहीं न कहीं इजराइल के यहूदी लिंक ने आग में आहुति का काम तो नहीं किया है? ऐसा कयास इसलिए लगाया जा रहा है, क्योंकि माना जा रहा है कि ट्रंप की मध्य-पूर्व नीति उनके यहूदी मूल के दामाद जरेद कुशनर के दम पर चल रही है। वैसे एक बात यह भी है कि ईरान के मामले में ट्रंप ने जिस तरह की हठधर्मिता शुरू की है, उससे वह खुद कठधरे में खड़े हो सकते हैं। विएना स्थित अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा अधिकरण (आइएईए) ने माना है कि जनवरी 2016 से ईरान ने संधि की सभी शर्तों को माना है। साल 2015 के समझौते में ईरान ने अपने करीब नौ टन अल्प संवर्धित यूरेनियम भंडार को कम करके 300 किलोग्राम पर लाने की शर्त स्वीकार की थी और उस दिशा में आइएईए के मुताबिक उसने शर्त का उल्लंघन नहीं किया।

मगर अब ट्रंप की एकतरफा कार्रवाई से त्रस्त ईरान के राष्ट्रपति हसन रोहानी ने सुरक्षा परिषद के सदस्य देशों- रूस, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका के अतिरिक्त जर्मनी को जानकारी दी है कि हम संधि से आंशिक रूप से अलग हो रहे हैं। इस समय चुनाव में व्यस्त भारत का कोई भी नेता ईरान को लेकर पैदा तेल संकट पर गंभीर नहीं है। चुनाव के किसी मंच पर इस विषय के बारे में एक शब्द नहीं बोला गया। ट्रंप ने धमकाया है कि कोई भी देश ईरान से तेल खरीदता है तो उसके खिलाफ हम कड़ी कार्रवाई करेंगे।

अमेरिकी राष्ट्रपति को पता है कि चीन के बाद भारत दूसरे नंबर पर है जो ईरान से सर्वाधिक कच्चा तेल आयात करता है और उसकी कीमत डॉलर में नहीं, बल्कि रुपये में चुकाता है। भारत हर दिन सवा चार लाख बैरल तेल ईरान से लेता है। अमेरिका यह नहीं बता रहा है कि इस बैन के बाद विकल्प क्या है? बस हमने प्रतिबंध लगा दिया तो ईरान से तेल नहीं लेना है। आप तेल आयात बढ़ाना चाहें तो सऊदी अरब से बात करें। भारत प्रतिदिन सऊदी अरब से आठ लाख बैरल कच्चा तेल खरीदता है। रियाद इस ईरान से हो रहे विवाद का व्यापारिक लाभ उठाने में लगा हुआ है, इस सच से इन्कार नहीं किया जा सकता। सऊदी अरब से भारत का 28 अरब डॉलर का कारोबार कुछ महीनों में छलांग लगा सकता है। उसे हर हाल में ईरान का मार्केट शेयर खाना है। रियाद स्थित कंपनी ‘आर्मको’ के तेल रणनीतिकार इस समय मुंबई में बैठे क्या कर रहे हैं?

यह खोज का विषय नहीं है, ईरान से अमेरिकी अदावत का दूरगामी फायदा सऊदी कैसे उठाना चाहता है, बड़ी बेशर्मी से यह सब कुछ स्पष्ट है। इसका एक उदाहरण बलूचिस्तान का ग्वादर बंदरगाह है, जहां आर्मको 10 अरब डॉलर की लागत से विशाल रिफाइनरी स्थापित कर रहा है। तेल के वैश्विक कारोबार में जो छीछालेदर जारी है, वह केवल ट्रंप की जिद की वजह से है। ईरान से पहले एक और तेल निर्यातक देश बेनेजुएला पर किस तरह डोनाल्ड ट्रंप की वक्र दृष्टि पड़ी हुई है, इसे पूरी दुनिया ने मूक दर्शक की तरह देखा है। इस चौधराहट को कैसे रोका जाए, इस बारे में कोई संगठित प्रयास नहीं हो रहा है। भारत कह चुका है कि हम किसी देश के एक पक्षीय प्रतिबंध को नहीं मानते। मगर क्या यह सिर्फ कह देने भर से हो जाएगा?

[वरिष्ठ पत्रकार]

लोकसभा चुनाव और क्रिकेट से संबंधित अपडेट पाने के लिए डाउनलोड करें जागरण एप


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.