सत्य की साधना
सत्य की साधना जीवन को संपूर्ण बनाती है। इसके अभाव में भाव की कोई पावन धारा प्रवाहित नहीं होती। अपने असत्य को सत्य का आवरण पहनाकर प्रचलित करने वाले का सामयिक विश्वास कर लिया जाता है, पर जब आवरण भंग होता है तो अशांति, लज्जा, अपकीर्ति और हानि की अनुभूति होती है।
सत्य की साधना जीवन को संपूर्ण बनाती है। इसके अभाव में भाव की कोई पावन धारा प्रवाहित नहीं होती। अपने असत्य को सत्य का आवरण पहनाकर प्रचलित करने वाले का सामयिक विश्वास कर लिया जाता है, पर जब आवरण भंग होता है तो अशांति, लज्जा, अपकीर्ति और हानि की अनुभूति होती है। असत्य-आचरण करने वाले सत्यानुयायी से आंखें नहीं मिला पाते। सत्य मूल सब सुकृत सुहाये। धरमु न दूसर सत्य समाना में तुलसी की आस्था है। कबीर कहते हैं-सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप। असत्य की सफलता कभी नहीं होती, सत्याभास की होती है। जब सत्याभास की इतनी सफलता संसार में प्रतीत होती है, तब शुद्ध सत्य की सफलता निश्चित ही शाश्वत और असीम होगी, यह परम सत्य है।
झूठ बोलने का जिनका स्वभाव ही है उनकी अपकीर्ति होती है, वे तो जीवित होकर भी मृतक तुल्य हैं। जो बात इंद्रियों ने जैसा ग्रहण की है, बुद्धि ने स्वीकार की है वैसे ही उपयुक्त अवसर पर वर्णन करके उसमें प्रमाद न करना सत्य है। सत्य का वास्तविक अर्थ परमब्रंा है। सृष्टि के मूल में यही ब्रंा सत्यरूप है। अन्य त्रिगुणात्मक संसार इसके बाद बना। कोई कार्य अपने कारण के विरुद्ध जीवित नहीं रह सकता। सत्य जीवन का आधार, जीवन सत्य का इतिहास है। प्रिय सत्य वाणी श्रेष्ठ है, अप्रिय सत्य, प्रिय झूठ न बोलना धर्म है। बारह वर्ष तक सत्य की निरंतर आराधना करने पर वाक सिद्धि मिलती है। सत्यव्रत वाले प्राय: कष्टप्रद देखे जाते हैं, यह भ्रम है। चार कारणों से लोग असत्य बोलते हैं-अज्ञानतावश, स्वभाववश, परवश, स्वार्थवश। शाश्वत, स्वाधीन, सदा प्राप्त सुख हेतु सत्य की साधना आवश्यक है। स्वार्थ सिद्धि के बाद झूठ सामने स्वयं आ जाता है। सत्य भाषण मानवता का सोपान है। इसमें जीव और देश समाज का मंगल है। सत्य की जय होती है।
डॉ. हरि प्रसाद दुबे
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