Move to Jagran APP

किक में है दम फुटबॉल खेल रहे हम

इन्होंने सुविधाओं के अभाव के बावजूद इस खेल में अपने कदम बढ़ाए हैं। लड़कों के साथ किक लगाकर उनके अटैक को विफल किया और सीखीं बारीकियां फुटबॉल की..

By Srishti VermaEdited By: Published: Sat, 25 Feb 2017 10:41 AM (IST)Updated: Sat, 25 Feb 2017 11:58 AM (IST)
किक में है दम फुटबॉल खेल रहे हम
किक में है दम फुटबॉल खेल रहे हम

ग्राउंड में रखी है फुटबॉल, मैच शुरू होने वाला है, खेलप्रेमी देखना चाह रहे हैं कि किसकी किक पावरफुल है? कौन अपनी टीम को कितने बेहतर तरीके से डिफेंड कर पा रहा है? किसकी स्ट्राइक दमदार है? इस नजारे में मुकाबला लड़कों के बीच नहीं है, बल्कि महिला फुटबॉलर मैदान पर अपना दमखम दिखाने को बेताब हैं। 

loksabha election banner

फुटबॉल जैसे खेल में अब से पहले लड़कियों की नुमाइंदगी कम ही दिखाई देती थी, लेकिन अब तेजी से लड़कियां इस खेल में आ रही हैं क्योंकि इसमें न केवल नाम व शोहरत मिल रही है, बल्कि करियर बनाने के अवसर भी तेजी से बढ़ रहे हैं। इस साल आयोजित इंडियन वीमंस लीग ने तो फुटबॉल अपनाने वाली महिलाओं के लिए आगे बढ़ने के द्वार खोल दिए हैं और ढेरों कठिनाइयों का सामना कर समाज की सोच में बदलाव लेकर सामने आ रही महिला फुटबॉलर्स को प्रेरणा-स्वरूप खड़ा कर दिया है।

लड़कों से लड़ी मैं
नांगोम बाला देवी इस समय देश की राष्ट्रीय फुटबॉल टीम की कप्तान हैं। वह मणिपुर के बिष्णुपुर जिले की रहने वाली हैं। जब वह दस साल की थीं तो मणिपुर के एक स्थानीय क्लब में उन्होंने लड़कों को फुटबॉल खेलते देखा। उस समय कोई लड़की फुटबॉल नहीं खेल रही थी। तभी उन्हें लगा कि वह भी इनकी तरह क्यों न फुटबॉल खेलें। फिर क्या था उन्होंने क्लब बनाया और अपनी टीम बनाई। बताती हैं नांगोम बाला देवी, पहले कुछ पता नहीं था। जब लड़कों के साथ फुटबॉल खेलने जाती तो कुछ लड़के बोलते कि लड़की को नहीं खिलाएंगे और कुछ कहते कि ये अच्छा खेलती है इसको खिलाएंगे। उनके साथ लड़- लड़कर खेलते हुए मैं आगे बढ़ी। एक साल में ही मेरा अंडर-19 में सेलेक्शन हो गया। इसके बाद में स्टेट टीम में आ गई। जब यह टीम जीती, तब मेरी उम्र कम थी। 2014 से नेशनल टीम की कैप्टन हूं।

फुटबॉल को ले जाना है आगे
ओडिशा से हैं सस्मिता मलिक, लेकिन बिहार में रहती हैं। भारतीय टीम में लेफ्ट विंगर हैं। एक बार जब उनके इलाके में ऑल इंडिया टूर्नामेंट चल रहा था तो वह पापा के साथ उसे देखने गईं। इससे वह काफी प्रभावित हुईं। इसके बाद तो पापा से जिद करने लगीं कि मैं भी ऐसे ही खेलूंगी। उनकी रुचि को देखकर पापा ने साथ दिया और 2001 से सस्मिता ने फुटबॉल खेलना शुरू किया। उनके चाचा को लगता था कि लड़की है फुटबॉल नहीं खेले, लेकिन बाद में उन्होंने भी बहुत सहयोग किया। अपने गांव के देवेंद्रनाथ शर्मा का जिक्र करते हुए बताती हैं सस्मिता कि उन्होंने भी काफी साथ दिया। हमें किट दी तो हम खेल सके। सस्मिता को ओडिशा से दो बार एकलव्य पुरस्कार मिल चुका है। इस बार प्लेयर ऑफ द ईयर मिला है। वह कहती हैं, फुटबॉल को बहुत आगे लेकर जाना है। सबको दिखाना है कि भारत में भी महिला खिलाड़ी कामयाब हैं। मैं पैरेंट्स से कहना चाहूंगी कि अगर बेटी फुटबॉल खेलना चाहे तो दिल से उसका हौसला बढ़ाएं। माता-पिता का समर्थन बहुत मायने रखता है।

करियर के मौके अपार


इंफाल, मणिपुर की ओ बेमबेम देवी पहली भारतीय फुटबॉलर हैं जो विदेशी क्लब के लिए खेली हैं। वह दो दशक से अटैकिंग मिडफील्डर हैं। सात बार इंडिया टीम की कैप्टन रही हैं और जीत भी हासिल की है। 15 साल की उम्र में ही उन्होंने तय कर लिया था कि वह फुटबॉल ही खेलेंगी। शुरू में लड़कों के साथ खेलना शुरू किया। लड़कियां कैसे खेलती हैं उन्हें पता नहीं था। घर के पास के एक स्थानीय क्लब के जरिए वह पहली बार स्टेट सब-जूनियर के लिए खेलीं। फुटबॉल में पहले और अब की स्थिति के अंतर को बताते हुए वह कहती हैं, पहले इतनी सुविधाएं नहीं थीं। अब तो नेशनल गेम्स में आने के बाद जॉब मिलती है। इसलिए लड़कियां हर खेल को खेलने की कोशिश करती हैं। इंडियन वीमंस लीग आने से लड़कियां फुटबॉल में अपना करियर बना सकती हैं। पैसा देकर खिलाड़ियों को खरीदा जाता है। ऐसा पहली बार हुआ है। आने वाले सालों में कई टीमें बनेंगी।

परिवार किसान पेशा फुटबॉल
खेलों का जिक्र हो और हरियाणा का नाम न आए, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। भिवानी जिले के अलखपुरा गांव की संजू प्रधान ने हाल ही में संपन्न इंडियन वीमंस लीग में काफी अच्छा प्रदर्शन किया है। स्ट्राइकर पोजीशन पर खेलने वाली संजू इमर्जिंग प्लेयर ऑफ द ईयर बनी हैं। वह मात्र 19 वर्ष की हैं और पांच बार नेशनल टीम में देश के लिए खेल चुकी हैं। अपने बारे में बताते हुए वह कहती हैं, हमारे पीटीआई सर लड़कों को फुटबॉल खिलाते थे तो मैं भी चली जाती थी। फिर उन्होंने हम लड़कियों को भी फुटबॉल खिलाना शुरू कर दिया। वह हमें फिजिकल करवाते और हम खुद ही खेलते। अभी भी गांव में ही ट्रेनिंग करते हैं कहीं नहीं जाते। मां अनपढ़ हैं। उनको बता देते हैं कि खेल रहे हैं, जीत गए हैं। पापा खेती करते हैं। मध्यमवर्गीय परिवार है मेरा। मेरी जॉब से घरवालों को सपोर्ट मिलेगा। संजू ने हाल ही में बिहार के हाजीपुर में रेलवे में बतौर जूनियर क्लर्क जॉएन किया है। हालांकि अभी सेकंड ईयर में पढ़ रही हैं और आगे भी फुटबॉल ही खेलने की इच्छा है उनकी।

यह भी पढ़ें : मेरे गीतों के हैं अर्थ अनेक

पैसा और प्रसिद्धि दोनों
दिल्ली की डालिमा छिब्बर अभी 19 साल की हैं। उनके मातापिता दोनों खिलाड़ी हैं। पिता ही उनके कोच हैं। पहले उन्हें अंडर 14 टीम में मौका मिला। बाद में अंडर 19 टीम की कप्तान बनीं। पिछले साल साउथ एशियन गेम में उन्हें नेशनल टीम में खेलने का अवसर मिला और सीनियर्स के साथ उनकी यात्रा शुरू हो गई। फुटबॉल की शुरुआत के बारे में बताते हुए वह कहती हैं, मैं पापा के साथ ग्राउंड पर जाती थी। लड़कों को खेलते देखकर उनके साथ ही फुटबॉल खेलना शुरू किया। फुटबॉल खेलने वाली लड़कियां थी ही नहीं, पर अब फुटबॉल में लड़कियों के लिए करियर अच्छा है। आगे काफी अच्छे अवसर आने वाले हैं। पैसा और लोकप्रियता दोनों मिलेगी। पांडिचेरी की सुमित्रा कामराज ने भी तेरह साल में ही फुटबॉल खेलना शुरू कर दिया था। उनके गांव में भी केवल लड़के ही फुटबॉल खेलते थे, लेकिन कोच ने लड़कियों को भी लिया और उन्हें सिखाया।

हम सर्च कर रहे हैं टैलेंट
विजय गोयल, केंद्रीय मंत्री युवा मामले व खेल
हम चाहते हैं कि महिला फुटबॉल का प्रचार, प्रसार हो। इसकी लोकप्रियता बढ़े। हम टैलेंट सर्च पोर्टल लॉन्च करने वाले हैं, जिसके जरिए आठ साल तक के बच्चे तलाश करेंगे। माता-पिता और कोच इस पर खिलाड़ी बच्चे का वीडियो पोस्ट कर सकते हैं। यहां से हम प्रतिभाएं ढूंढ़कर स्पोट्र्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया के कोचिंग सेंटर में प्रशिक्षित करेंगे। उन्हें हम स्कॉलरशिप देने पर भी विचार कर रहे हैं।

महिला फुटबॉल टीम की रैंकिंग है अच्छी
प्रफुल्ल पटेल, अध्यक्ष, एफआइएफएफ
हमारी महिला फुटबॉल टीम की रैंकिंग पुरुष टीम से कहीं आगे है। देश की महिला फुटबॉल टीम ने सैफ चैंपियनशिप जीती है। हमें इसे और आगे बढ़ाना है। देश में महिला फुटबॉल संस्कृति लानी है। इंडियन वीमंस लीग तो एक शुरुआत है। लड़कियों को फुटबॉल में करियर बनाने के लिए प्लेटफॉर्म चाहिए। प्रोफेशनल क्लब चाहिए। लीग और क्लब जरूरी हैं।

तैयारी है वल्र्ड कप की
नांगोम बाला देवी, कप्तान, राष्ट्रीय महिला फुटबॉल टीम
विश्व कप की तैयारी है। फिटनेस अच्छी है। अभी कुछ साल और खेल सकती हूं। जब तक फिटनेस है तब तक खेलूंगी

डेढ़ सौ लड़कियां खेलती हैं
संजू प्रधान, सेंटर फॅरवर्ड
गांव में डेढ़ सौ लड़कियां आती हैं फुटबॉल खेलने के लिए। लड़के भी आते हैं। कभी-कभी ग्राउंड भी नहीं मिलता खेलने के लिए

जरूरी है कड़ी मेहनत
ओ बेमबेम देवी, वरिष्ठ खिलाड़ी
मेरे पापा मुझे पढ़ाई में ध्यान देने के लिए कहते थे, लेकिन मेरी रुचि फुटबॉल में थी। जब 1995 में भारत का प्रतिनिधित्व किया तो उन्होंने कहा कि खेलो, लेकिन पढ़ाई पर भी ध्यान दो। मैं लड़कियों से कहना चाहती हूं कि अगर फुटबॉल खेलें तो ऊपर तक जाने की कोशिश करें। बस इसके लिए कड़ी मेहनत जरूरी है।

प्रस्तुति- यशा माथुर

यह भी पढ़ें : जिदंगी का साथ निभाता चला गया


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.