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बार-बार नहीं मिलता ऐसा मौका- राजकुमार राव

विक्रमादित्य मोटवाणी की फिल्म 'ट्रैप्ड' में अकेले किरदार की भूमिका को एक चुनौती मानते हैं राजकुमार राव। कैसे आत्मसात किया उन्होंने यह किरदार व क्या है उनकी बहुचर्चित फिल्म 'न्यूटन' के केन्द्र में? बता रहे हैं राजकुमार राव....

By Srishti VermaEdited By: Published: Fri, 17 Mar 2017 11:23 AM (IST)Updated: Fri, 17 Mar 2017 11:51 AM (IST)
बार-बार नहीं मिलता ऐसा मौका- राजकुमार राव
बार-बार नहीं मिलता ऐसा मौका- राजकुमार राव

राजकुमार राव के लिए यह साल बेहतरीन होगा। बर्लिन में उनकी अमित मासुरकर निर्देशित फिल्म 'न्यूटन' को पुरस्कार मिला। अभी 'ट्रैप्ड' रिलीज हो रही है। तीन फिल्मों 'बरेली की बर्फी', 'बहन होगी तेरी' और 'ओमेरटा' की शूटिंग पूरी हो चुकी है। जल्दी ही इनकी रिलीज की तारीखें घोषित होंगी। इन फिल्मों के संदर्भ में राजकुमार राव से बातचीत के अंश:

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'ट्रैप्ड' के बारे में बताएं?
'ट्रैप्ड' की शूटिंग मैंने 2015 के दिसंबर में खत्म कर दी थी। इस फिल्म की एडीटिंग जटिल थी। विक्रम ने समय लिया। पिछले साल मुंबई के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल 'मामी' में हमलोगों ने फिल्म दिखाई थी। तब लोगों को फिल्म पसंद आई थी। अब यह रेगुलर रिलीज हो रही है।

रंगमंच पर तो एक ही कलाकार द्वारा पेश किए गए नाटकों का चलन है। सिनेमा में ऐसा कम हुआ है, जब एक ही पात्र हो पूरी फिल्म में...
हां, फिल्मों में यह अनोखा प्रयोग है। यह एक पात्र और एक ही लोकेशन की कहानी है। फिल्म के 90 प्रतिशत हिस्से में सिर्फ मैं हूं। एक्टर के तौर पर मेरे लिए चुनौती थी। ऐसे मौके दुर्लभ हैं। फिजिकली और मेंटली मेरे लिए कष्टप्रद था। खाना नहीं खाना, दिन बीतने के साथ दुबला होना, उसी माहौल में रहना...लेकिन मजा आया।

शूटिंग पैटर्न क्या रखा गया? इस फिल्म में समय के साथ आपको कमजोर और दुर्बल दिखना था...
अच्छी बात रही कि शूटिंग लीनियर ऑर्डर में सीक्वेंस के हिसाब से ही की गई। और कोई तरीका भी नहीं था। एक बार फ्लैट में आ जाने के बाद ऑर्गेनिक प्रोसेस था। हर दिन के हिसाब से ग्राफ बना था। हम उसे ही भरते गए। फिल्म में जब खाना खत्म हुआ था, तभी से मेरा खाना भी बंद हो गया था। दिन भर में दो-चार घूंट पानी और बहुत कमजोरी होने पर ब्लैक कॉफी मिलती थी। खाने के नाम पर मुझे सिर्फ एक-दो गाजर दिए जाते थे। पहली बार पता चला कि खाना न खाओ तो गुस्सा आता है। हताशा बढ़ती है। कई बार झटके से खड़े होने पर चक्कर भी आए। तकलीफें सहता रहा, क्योंकि पता नहीं फिर ऐसा मौका दोबारा कब मिले। मुझे पहले से बता दिया गया था कि यह सब होगा तो मैं पहले से तैयार था।

'ट्रैप्ड' को आपने एडवेंचर, चैलेंज या एक्सपेरिमेंट के तौर पर लिया?
सबसे पहले तो मुझे विक्रम के साथ काम करना था। 'उड़ान' के समय से ही वह मेरी 'विश लिस्ट' में थे। उनसे आइडिया सुनकर ही मैं उत्साहित हो गया था। यह रोल मेरे लिए चैलेंज ही था। जैसे 'शाहिद' का रोल था या अभी 'ओमेरटा' का रोल है।

आपको जो किरदार मिल रहे हैं, वे साधारण किस्म के असाधारण लोग हैं। हिंदी फिल्मों के मेनस्ट्रीम किरदार नहीं हैं...
फिल्मों में वे हाशिए पर हो सकते हैं, लेकिन रियल लाइफ में तो ऐसे ही साधारण लोगों की संख्या ज्यादा है। मैं तो उन्हें मेनस्ट्रीम ही मानता हूं। मैंने सोच कर ऐसे रोल नहीं चुने हैं। मुझे मिलते गए। अच्छी बात है कि मुझे मिले किरदारों के फिल्मी रेफरेंस नहीं मिलते। उन किरदारों से मैं दर्शकों के दिलों तक पहुंचा हूं।

अच्छा है कि आपको हंसल मेहता और विक्रमादित्य मोटवाणी जैसे डायरेक्टर चुन रहे हैं...
उनकी वजह से ही हम हैं। वे हमें मौके दे रहे हैं। वे ऐसे किरदारों को ला रहे हैं, जो हिंदी सिनेमा के अनदेखे किरदार हैं। 'न्यूटन' देख कर सभी चौंके थे।

क्या है 'न्यूटन' में...
वह एक आइडियलिस्टिक लड़के नूतन कुमार की कहानी पर बेस्ड फिल्म है, जिसने अपना नाम बदल कर न्यूटन कुमार कर लिया है। नूतन किसी लड़की का नाम लगता है। उसे छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाके में वोटिंग कराने के लिए भेजा जाता है। वह खुद चााहता है कि वहां वोटिंग हो, जबकि और किसी का इंटरेस्ट नहीं है। इसी में ब्लैक कॉमेडी बनती है।

आपकी फिल्में 'बरेली की बर्फी' और 'बहन होगी तेरी' यू.पी. में शूट हुईं। उनके बारे में क्या बताएंगे?
दोनों ही छोटे शहरों की फिल्में हैं। उनमें मुझे मजेदार और कम तकलीफ वाले किरदार मिले हैं। शूटिंग में मजा आया। मैं भी पहली बार लखनऊ की गलियों में घूमा। इस फिल्म के जरिए उधर के किरदारों से मिला। 'ओमेरटा' के बारे में अभी कुछ भी नहीं बता सकता। सख्त हिदायत है निर्देशक की।

-अजय ब्रह्मात्म्ज 

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