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आलोचना प्रतिमानों के संकट से गुजर रही है: मंगलेश

पिछले दिनों अनेक पुरस्कारों से सम्मानित मंगलेश डबराल से बातचीत का मौका मिला।

By Babita KashyapEdited By: Published: Mon, 20 Feb 2017 03:03 PM (IST)Updated: Mon, 20 Feb 2017 03:25 PM (IST)
आलोचना प्रतिमानों के संकट से गुजर रही है: मंगलेश
आलोचना प्रतिमानों के संकट से गुजर रही है: मंगलेश

वरिष्ठ कवि एवं पत्रकार मंगलेश डबराल सहज, सरल और बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी हैं। मंगलेश डबराल का

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जन्म 16 मई 1948 को उत्तराखंड में टिहरी जिले के काफलपानी में हुआ। उनके पांच कविता संग्रह‘पहाड़ पर लालटेन’, ‘घर का रास्ता’, ‘हम जो देखते हैं’, ‘आवाज भी एक जगह है’ और ‘नए युग में शत्रु’, तीन गद्य संग्रह-‘एक बार आयोवा’, ‘लेखक की रोटी’ और ‘कवि का अकेलापन’; ‘कवि ने कहा’ शीर्षक से एक चयन और साक्षात्कारों

का संकलन ‘उपकथन’ प्रकाशित है। उन्होंने अनेक विदेशी कवियों की कविताओं का हिंदी में अनुवाद किया है।

साथ ही उनकी कविताओं का भी अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।

यादों में बसा है पहाड़

पिछले दिनों अनेक पुरस्कारों से सम्मानित मंगलेश डबराल से बातचीत का मौका मिला। बातचीत शुरू करते हुए जब मैंने उनसे पूछा कि, ‘दिल्ली जैसे महानगर में रहते हुए आपके अंदर कितना पहाड़ बचा है? क्या आप दिल्ली को अपने भीतर आत्मसात कर पाए हैं?’ तो वे बोले कि मुझे बहुत समय हो गया है पहाड़ से आए हुए।

मैं 37-38 वर्षों से दिल्ली में हूं लेकिन मैं आज भी महसूस करता हूं कि मैं दिल्ली का नहीं हूं और दिल्ली मेरी नहीं है क्योंकि आपको हर शहर के भीतर अपना एक शहर खोजना या निर्मित करना पड़ता है। एक समय था जब दिल्ली

छोटी थी और इतनी विशाल, फली-फूली और इतनी अधिक जनसंख्या विस्फोट वाली नहीं थी। उस समय हम लोगों ने इस शहर के बीच में अपना एक शहर ढूंढ़ लिया था। वो शहर भी नष्ट हो गया है क्योंकि इस बीच तमाम तरह के निर्माण कार्य, तमाम तरह के फैलाव, विस्तार, दिल्ली की स्काईलाइन और दिल्ली का भूगोल भी बदल गया है। उस दिल्ली का इतिहास कहीं बहुत नीचे दब गया है। तो इस तरह शहर के ऊपर शहर बसता गया। उस समय आने वाले हम कुछ मित्रों ने जो अपना शहर खोजा था वो शहर तो कहीं भूमिगत हो गया है। मैं अपने आपको उस भूमिगत शहर का हिस्सा मानता हूं जो अब नहीं है लेकिन अब जो दिल्ली है वो मेरे लिए उतनी ही अजनबी है जितनी अजनबी कोई नई जगह होती है। पहाड़ इस मायने में मेरे भीतर बचा हुआ है कि वो मेरी स्मृति में सुरक्षित है और स्मृति कोई अतीत नहीं होता है।

विस्थापन का दंश

बातचीत को आगे बढ़ाते हुए मैं डबराल साहब से अगला प्रश्न पूछता हूं, ‘उत्तराखंड राज्य बने हुए दस वर्ष से अधिक का समय बीत चुका है। क्या आपको लगता है कि पहाड़ के लोगों की मूलभूत समस्याएं आज भी वही हैं जो आपके समय में थीं?’ वे बिना एक पल गंवाए बोलने लगते हैं कि आज समस्याएं बढ़ी हैं। दरअसल उत्तराखंड बनने के साथ पहाड़ के समाप्त होने की प्रक्रिया भी चलती रही। उत्तराखंड में जो नौकरशाही और व्यवस्था आई उसमें जो विकास का मॉडल अपनाया गया वो कहीं भी उस विकास मॉडल से भिन्न नहीं था जो पूरे देश में लागू था। बल्कि यह हुआ कि पहाड़ से जो लोग बड़े शहरों में आते थे, उनका विस्थापन बढ़ा ही है और अब बड़ी मात्रा में लोग पहाड़ से आने लगे हैं। उत्तराखंड में नए रोजगार सृजित नहीं हुए हैं। हां यह जरूर है कि राजधानी देहरादून में या नैनीताल में कुछ हल्के-फुल्के उद्योग लगे लेकिन इससे पूरे उत्तराखंड को कोई रोजगार नहीं मिला। एक और विडंबना

यह रही कि टिहरी बांध से विस्थापित होने वाले लोगों को देहरादून के आस-पास के इलाकों में बसाया गया। उनसे उनका घर, पेड़, पानी सब छूट गए और उनकी भाषा भी छूट रही है। अभी तो नहीं लेकिन अगली दो-तीन पीढ़ियों के बाद गढ़वाली या जो और भाषाएं हैं, उनको भी वो लोग भूल जाएंगे उनके बच्चे याद नहीं रख पाएंगे। दरअसल उनकी स्मृति उन्हीं गांवों में छूट गई है। उनके लोकगीत वहीं छूट गए हैं। यह सही है कि उन्हें थोड़ी बहुत जमीन मिल गई, जो पहाड़ के मुकाबले ज्यादा उपजाऊ है लेकिन जो कुछ उनसे छूटा है, वो बहुत बड़ी धरोहर, थाती उनसे छूट गई है। दूसरी प्रक्रिया यह चल रही है कि जो पहाड़ के लोग हैं, वो बड़े पैमाने पर खेती छोड़ रहे हैं क्योंकि उनको मजदूरी करके तुरंत पैसा मिल रहा है। न हमारे बीजों में सुधार हुआ, न खेती करने के तरीके विकसित हुए और न

उनकी जगह फलदार वृक्ष लगाने की योजना बनी तो वो खेती करना छोड़ रहे हैं। नई पीढ़ी तो बिल्कुल खेती नहीं कर रही है। पहाड़ी खेतों में जंगल उग आए हैं। खेती करना और मुश्किल हो जाएगा क्योंकि उनकी जड़ें नीचे तक चली गई हैं। तीसरी प्रक्रिया यह चल रही है कि पहाड़ी लोग अपना पहाड़ीपन छोड़कर मैदानी होते जा रहे हैं।

उनका लगातार मैदानीकरण हो रहा है। दूसरी तरफ मैदानी लोग पहाड़ों पर अपने घर और बंगले बना रहे हैं। उनका पहाड़ीकरण हो रहा है। इसकी रोकथाम का उपाय वहां की सरकारों के पास नहीं है। तो कुल मिलाकर उत्तराखंड एक पहाड़ी राज्य नहीं रह गया है।

कहां है आलोचना

जब मैं उनसे पूछता हूं, ‘मंगलेश जी, समकालीन हिंदी कविता को आलोचकों ने किस हद तक दर्ज किया है?’ तो वे कहते हैं कि हिंदी में आलोचना तो लगभग खत्म हो चुकी है। इस समय हिंदी की एक बड़ी त्रासदी तो यह है कि कोई आलोचना नहीं है। हालांकि हिंदी अध्यापक बहुत हैं। उनकी संख्या लाखों में होगी लेकिन मुझे लगता है कि आलोचना प्रतिमानों के संकट से गुजर रही है। प्रतिमानों का इतना अधिक संकट आलोचना में पहले कभी नहीं

था। पिछले कई वर्षों से हमारे आलोचक एक भी नई शब्दावली, विश्लेषण और नए औजार पैदा नहीं कर पाए हैं, जिससे समकालीन कविता का विश्लेषण किया जा सके इसीलिए आलोचना उपलब्ध नहीं है। मुझे लगता है कि कुंवर नारायण और रघुवीरसहाय की पीढ़ी के बाद की कविता के बाद कोई आलोचना उपलब्ध नहीं हो पाई है।

यह स्थिति आज तक चल रही है इसीलिए जो अच्छा-बुरा लिखा जा रहा है, उसमें अच्छे से बुरे को अलगाने की कोई कोशिश नहीं है। लिखा बहुत जा रहा है लेकिन कोई नया प्रतिमान नहीं आया है। जैसा कि हिंदी में मुक्तिबोध ने जो बड़ी शब्दावलियां दीं यानी संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना। एक तो यह और दूसरा कविता की स्थानांतरगामी प्रवृति। ये उनके दो योगदान बहुत बड़े हैं लेकिन इसके बाद कोई ऐसा आलोचक नहीं हुआ जिसकी मान्यताएं हमारे इतने उपयोग की रही हों। दरअसल हमारे समाज में भी आलोचनात्मकता बहुत कम हुई

है। यह एक सामाजिक प्रक्रिया है, जिसकी प्रतिछाया साहित्य में भी हमें दिखाई देती है। आज मध्यमवर्ग का आलोचनात्मक विवेक बहुत कम हुआ है इसलिए आज हमने सवाल उठाना ही बंद कर दिया है। हमें खाने के लिए अमेरिकी कंपनियों के जो चिप्स मिलते हैं या फिर हम जो पेप्सी और कोला पीते हैं, हम उनके बारे में भी सवाल नहीं उठाते हैं कि इनके अंदर क्या भरा हुआ है। इसी तरह अमेरिका जो कुछ कह रहा है, हम मान

रहे हैं कि वह सही है। इस अमेरिकीकरण ने सब कुछ एकरूप कर दिया है।

डबराल साहब से मैं अगला प्रश्न करता हूं, ‘इस दौर की अधिकांश कविताओं में एकरूपता व्याप्त है। कविता के इस संकट को आप किस रूप में देखते हैं?’ वे थोड़ा ठहरकर उत्तर देते हैं कि इससे मैं पूरी तरह सहमत नहीं हूं। एकरूपता तो नहीं है। मसलन विष्णु खरे की कविता और विनोद कुमार शुक्ल की कविता में बहुत फर्क है। आप

अलग से पहचान सकते हैं कि यह विष्णु खरे की कविता है और यह विनोद कुमार शुक्ल की।

ऋतुराज और लीलाधर जगूड़ी की कविता बहुत अलग है। हमारी पीढ़ी में अगर जाएं तो राजेश जोशी और ज्ञानेंद्रपति की कविताओं में बहुत फर्क है। एकरूपता अगर लगती है तो इस वजह से कि हम एक ही समय में रह रहे हैं और एक ही समय की घटनाओं पर प्रतिक्रिया कर रहे हैं। तो उस समय को अगर हम दर्ज करते हैं तो मेरे ख्याल से एकरूपता कहीं न कहीं आएगी। कथ्य के स्तर पर आएगी लेकिन असल चीज यह है कि उस विषय, उस अनुभव को देखने का तरीका कवि का अपना है या नहीं। मुझे लगता है कि छायावाद में भी एकरूपता थी। निराला और पंत की बहुत सी कविताओं में लग सकता है कि एकरूपता है क्योंकि उनमें अनुभव समान था।

बातचीत के क्रम को आगे बढ़ते हुए मैं मंगलेश जी से आखिरी प्रश्न पूछता हूं, ‘आप पत्रकारिता से भी जुड़े रहे हैं। पत्रकारिता का आपकी कविता पर क्या प्रभाव पड़ा?’ वे उत्तर देते हैं कि पत्रकारिता ने मेरी राजनैतिक चेतना को विकसित करने में मदद की। मुझे अपने समय से जुड़ना सिखाया। मुझे एक अच्छी भाषा की समझ दी ताकि मैं अच्छी भाषा लिख सकूं, जिसकी कमी आज की पत्रकारिता में बहुत पाई जाती है। अगर मैं पत्रकार न होता तो किसी और तरह की कविता लिखता लेकिन तब मैं वैसी कविता नहीं लिख पाता जैसी पत्रकारिता में रहते हुए लिख पाया।

टी-7, एकता अपार्टमेंट

कुबेर स्कूल के सामने, रुड़की रोड, मेरठ, उत्तर प्रदेश

रोहित कौशिक


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