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बात जो दिल को छूती है असर रखती है: नंदिता दास

'मैं वही करती हूं, जो मुझे सूट करता है।' एक्टर, डायरेक्टर, राइटर और इन सबकेअलावा एक सोशल एक्टिविस्ट। कई मोर्चे पर सक्रिय रहती हैं नंदिता दास।

By Babita kashyapEdited By: Published: Sat, 02 Jul 2016 12:29 PM (IST)Updated: Sat, 02 Jul 2016 12:41 PM (IST)
बात जो दिल को छूती है असर रखती है: नंदिता दास

इन दिनों हिंदी फिल्मों में कम दिखाई दे रही हैं?

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हां, इसकी वजह यह है कि मैं दूसरी भाषाओं की भी फिल्में करके कुछ स्पेशल फील करती हूं। विविधता का आनंद अलग है।

निर्देशन की तरफ झुकाव का कारण?

निर्देशन के प्रति हमेशा से मेरा आकर्षण रहा है। कलाकार बड़े नहीं होते, निर्देशक की परिकल्पना बड़ी होती है। इस परिकल्पना को साकार करना चुनौतीपूर्ण काम है। मैं भी इस चुनौती को जीना चाहती हूं।

सुना है मंटो पर फिल्म बना रही हैं?

मैं जब कॉलेज में थी तभी से उन्हें पढ़ रही हूं। वह मेरे पसंदीदा लेखक हैं। मंटो उसूलों के पक्के थे। अपने उसूलों पर चलना और टिके रहना आसान नहीं।

आप सामाजिक मुद्दों पर भी सक्रिय हैं। 'डार्क इज ब्यूटीफुल कैंपेन' काफी असरदार रहा है।

हमारा समाज काले-गोरे-सांवले के भ्रम में इतना जकड़ा हुआ है कि लोगों को इससे बाहर निकाल पाना बहुत कठिन है। मेरी परवरिश भी ऐसे ही समाज में हुई है, जहां सांवला होना लड़की का व्यक्तिगत दोष समझ लिया जाता है, लेकिन मेरे परिवार ने इन सब बातों से परे मुझे खूबसूरती के वास्तविक मायने बताते हुए बड़ा किया है। मेरे पास ऐसे ईमेल्स आते हैं जिनमें लड़कियां लिखती हैं कि मैं आत्महत्या कर लेना चाहती हूं, क्योंकि मैं गोरी नहीं हूं और मेरी शादी नहीं हो रही है।

क्या आप सौंदर्य प्रसाधनों का इस्तेमाल नहीं करतीं?

नहीं। बस काजल लगाना पसंद है। खूबसूरत दिखना मेरी प्राथमिकता नहीं है। सहज और सादगी से रहना सबसे जरूरी है, यही सीखा है मैंने।

कामर्शियल फिल्मों में सक्रिय नहीं रहने की कोई खास वजह?

मैंने इस बारे में नहीं सोचा है। लोग कहते हैं कि आपको बॉलीवुड में सक्रिय रहना चाहिए। आपको बाद में जरूर मलाल होगा कि आपने कोशिश नहीं की वगैरह-वगैरह, पर मैं इन बातों से परे सोचती हूं। मैं जो कुछ कर रही हूं, जिन कार्यों में अपनी ऊर्जा लगाती हूं वह मुझे खुशी देता है।

फिल्मों में कैसे आईं?

कोई योजना नहीं थी। मैंने कभी नहीं सोचा था किएक्ट्रेस बनूंगी। बस जब जो काम मिलता था उसे खूब मन से करती। एमए पास करने के बाद कुछ दिनों तक एक स्कूल में पढ़ाया। फिर सोचा कि लोगों के बीच काम करना चाहिए। मैंने एमए सोशल वर्क में किया है। एनजीओ में काम कर रही थी। इसी दौरान फिल्मों में काम करने का ऑफर मिला। मैं एक संगठन में औरतों के विषय पर बहुत काम करती थी। मैंने एक छोटी सी फिल्म की थी 'एक थी गुंजा'। वह फिल्म एक आदिवासी औरत की सच्ची कहानी पर आधारित थी। उसकी चर्चा दीपा मेहता तक पहुंची और उन्होंने मुझे 'फायर' में काम करने का प्रस्ताव दिया। इसके बाद धीरे-धीरे फिल्मों से लगाव हुआ और लगने लगा कि अभिनय से भी आप अपनी बात कह सकती हैं, यह एक प्रभावी माध्यम बन सकता है।

व्यक्ति के निर्माण में परवरिश की भूमिका को अहम मानती हैं आप। आपकी परवरिश किस माहौल में हुई?

बिल्कुल। यह काफी हद तक व्यक्ति को एक आकार देता है। मेरे माता-पिता का मेरी जिंदगी पर बहुत प्रभाव है। पेंटर पिता और लेखिका मां से मैंने जीवन के आधारभूत मूल्यों को समझा है। मेरे घर अक्सर लेखकों, चित्रकारों आदि का आना-जाना लगा रहता था। रोजाना ऐसे लोगों से मिलने-जुलने का प्रभाव पड़ता ही है। रचनाशील लोगों से मिलने-जुलने के कारण मेरी सोच का दायरा विशाल है। कॉलेज के समय तक मुझे अपनी जाति के बारे में पता नहीं था।

सोशल मीडिया पर क्या कहना है?

हम आप जो कुछ कर रहे हैं, याद रहे कि वह बस एक समंदर में बूंद की तरह है। बूंद-बूंद से सागर भरता है। जितना आप बूंद डाल सकते हैं डालें, पर यह न भूलें कि इस फ्रीडम के आधार पर आप कुछ भी कर सकते हैं। सोशल मीडिया एक न्युट्रल प्लेटफॉर्म है। यह आपके ऊपर है कि आप इसका कितना सही उपयोग कर रहे हैं। मेरी समझ से सही उपयोग का अर्थ है कि आप हर किसी के मुद्दे को उछालकर आवाज में आवाज टकराने के बजाय अपना एक स्टैंड रखें। आपके पास भी एक वाजिब मुद्दा हो, जिसे आप समाज हित में जरूरी मानते हैं।

आरक्षण को महिलाओं के विकास से कैसे जोड़ा जा सकता है?

आरक्षण के अलग-अलग पक्ष हैं। यदि गांवों में प्रधान और सरपंच स्तर पर देखें तो बदलाव हुआ है। हालांकि अभी भी कुछ हैं जो बस हस्ताक्षर से काम चला रही हैं। संसद में भी ऐसा हो तो बदलाव नजर आएगा। वुमन में ज्यादा बिजनेस सेंस है। कुछ देशों में यह दिख रहा है। केवल 33 प्रतिशत ही क्यों यह समझ नहीं आता। आरक्षण देना हो तो थोड़ा और दो। वी कैन मेक डिफरेंस। मैं आरक्षण के साथ हूं, पर उस आरक्षण के नहीं जिसमें विदाउट मेरिट किसी को खैरात दे दी जाए। अवसर देना चाहिए। यह आरक्षण के जरिए मिल सकता है। अवसर मिलेगा तो महिलाएं और कमाल कर दिखाएंगी। आरक्षण से अब दलित और पिछड़ेपन का लेबल हटना चाहिए।

फिल्मों में अंगप्रदर्शन को लेकर आपकी राय क्या है। क्या इससे स्त्री की गरिमा पर बुरा प्रभाव पड़ा है?

स्त्री को ऑब्जेक्टीफाई करना यानी उससे किसी वस्तु की तरह व्यवहार करना गलत है। अंग प्रदर्शन के लिए एक सूक्ष्म रेखा है जिसे अब समझना होगा। गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि समाज पर इसका किस तरह का असर पड़ सकता है। उसे दर्शाने का भी एक खास तरीका होना चाहिए जो औरत की गरिमा को बनाए रख सके। रेप सीन को भी जिस तरह से दिखाया जाता है वह भी हिंसा को बढ़ावा देता है इन चीजों को अब बदलना चाहिए। मुझे लगता है इंटेशन यानी नीयत सही होगी तो आइटम नंबर भी गलत नहीं लगेगा। बहुत बारीक समझ और

समझदार नजरिया चािहए।

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सीमा झा


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