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    अम्मा मेरी आत्मा

    By Babita kashyapEdited By:
    Updated: Sat, 07 May 2016 04:00 PM (IST)

    नृत्य को संपूर्ण समर्पित मृणालिनी की अंतिम इच्छा थी कि उन्हें नृत्य करते हुए ही विदा किया जाए। ...और पढ़ें

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    नृत्य को पूरा जीवन देने वाली मां की इच्छा थी कि यह मृत्यु के मोड़ तक उनके साथ रहे। अद्भुत मां की अनूठी बेटी के रूप में मल्लिका साराभाई ने निभाया यह कौल और मृणालिनी साराभाई की अंतिम यात्रा से पूर्व उन्हें दी नृत्यांजलि। मां-बेटी के इस रिश्ते की गहराई को उन्होंने साझा किया योगिता यादव से...

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    अभी कुछ ही समय गुजरा है जब मृणालिनी साराभाई इस दुनिया को छोड़कर चली गईं। नृत्य को संपूर्ण समर्पित मृणालिनी की अंतिम इच्छा थी कि उन्हें नृत्य करते हुए ही विदा किया जाए। इसको पूरा किया उनकी नृत्यांगना बेटी मल्लिका साराभाई ने। मां की इच्छा को रीति-रिवाजों और परंपराओं से ऊपर मानना तभी संभव है, जब मां और बेटी रिश्ते के दायरे से बहुत ऊपर उठ चुकी हों। ऐसी ही थी मृणालिनी और मल्लिका साराभाई की जोड़ी। वे जब मंच पर एक साथ प्रस्तुति देतीं तो अक्सर लोग उन्हें बहनें समझते।

    एक प्रख्यात नृत्यांगना की बेटी होने का अनुभव कैसा रहा?

    किसी आम बच्चे से बहुत अलग। मैं नहीं चाहती थी कि वे मुझे अकेली छोड़कर जाएं। अम्मा पूछतीं, 'तुम चाहती हो कि मैं अपना टूर कैंसिल कर दूं?' मैं उनके बिना घर पर अकेली नहीं रहना चाहती थी, पर यह भी नहीं चाहती थी कि वह डांस न करें।

    पांच-सात साल की उम्र में यह मेरे लिए सबसे मुश्किल प्रश्न था। मैं अम्मा से बहुत प्यार करती थी। बच्चे के रूप में मैंने उनकी अनुपस्थिति को बहुत शिद्दत से महसूस किया। मैं उनकी साड़ी का पल्लू पकड़कर छुप जाया करती थी। रिहर्सल पर उनके साथ होना मुझे अच्छा लगता था। गु्रप में ऐसे घुल-मिल कर रहती थी जैसे मैं अन्य नर्तकों और संगीतकारों की ही तरह इस ग्रुप का एक हिस्सा हूं। उनके साथ मैंने रेल की लंबी यात्राएं की, पर मुझे स्कूल मिस करने की ज्यादा अनुमति नहीं थी, इसलिए बहुत बार उनके बिना रहना होता था।

    मां से नृत्य गुरु और फिर डांसिंग पार्टनर बनने तक उनके साथ कैसे अनुभव रहे?

    पापा अम्मा के लिए खास थे। उनके साथ उन्होंने बहुत यादगार समय बिताया था। उनके जाने के बाद वह एकदम से अकेली हो गईं थी। काफी समय तक वे अवसाद में रहीं, पर नृत्यांगना के रूप में अपनी दूसरी पारी उन्होंने मेरे साथ शुरू की। मैं उनकी अच्छी डांसिंग पार्टनर बन गई थी। मैं सचमुच समझ सकती थी कि वह असल में क्या चाह रहीं हैं और कैसे चाह रहीं हैं?

    मुझे उनके लिए मॉडल बनने में बड़ी खुशी होती थी। यह 1976 की बात है। अम्मा कुछ अलग करना चाह रही थीं। कृष्ण हमेशा से उनके प्रिय थे इसलिए उन्होंने मीरा के द्वंद्व को प्रस्तुत करने का फैसला किया। एक मीरा वो जो बाहरी आवरण है और दूसरी वो जो भीतरी सच है। मैंने मीरा के बाहरी आवरण यानी छोटी मीरा का पात्र लिया, क्योंकि मुझमें वह अल्हड़ता और जिज्ञासा थी जो एक नवयुवती में होनी चाहिए। अम्मा ने मीरा की अंतरअनुभूतियों का पात्र लिया। बरसों के अनुभव से वह कृष्ण के प्रति मीरा के अंतद्र्वंद्व को अच्छी तरह महसूस कर चुकी थीं। अंत में दोनों एक हो जाते हैं और मीराबाई एक किंवदंती बन जाती हैं। मेरे लिए यह उत्साहवर्धक अनुभव था। मेरे लिए यह अनूठा अनुभव था जब मैंने और अम्मा ने एक साथ डांस किया।

    मैंने अपने आप को थिएटर के ऊपर घूमते हुए महसूस किया और देखा कि मंच पर दो शरीर, लेकिन एक आत्मा नृत्य कर रहे हैं।

    आप दोनों एक ही फील्ड में रहीं। कभी प्रतिस्पर्धा महसूस नहीं हुई?

    धीरे-धीरे हम दोनों पार्टनर बन गए। एक साथ रचते थे, एक साथ नाचते थे। हमारे बीच यह सवाल कभी खड़ा ही नहीं हुआ कि कौन आगे है या कौन पीछे। कौन बेहतर है या कौन स्टार है। आखिर हम दोनों एक आत्मा

    हैं। कई बार तो लोग हमें साराभाई सिस्टर्स कहकर बुलाते। यह भी अजब अनुभव रहा है।

    मां की विरासत क्या तीसरी पीढ़ी तक स्थानांतरित हुई है?

    मां की विरासत हमेशा उनकी रहेगी। पांच साल की उम्र में जब मेरा बेटा रेवांता हमारे पास आया और उसने कहा कि मुझे भी डांस करना है तब अम्मा बहुत खुश हुईं। धीरे से मेरे कानों में फुसफुसाते हुए बोलीं, 'चलो अच्छा है, कम से कम देवदासी परंपरा को तोडऩे वाला तो कोई आया।' जब मेरी बेटी अनाहिता ने भी डांस सीखना और

    छोटे-छोटे रोल करना शुरू कर दिया तब तो अम्मा की खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। हमारे पास रखे वीडियोज

    में सबसे प्यारा वीडियो अम्मा का लूईस बैंक के म्यूजिक में कृष्णा: द म्यूजिकल शो है। जिसमें छह साल

    की अनाहिता कृष्ण की भूमिका में है और यशोदा बनीं अम्मा कृष्ण से मुंह खोलने को कहती हैं और उन्हें वहां सारी सृष्टि के दर्शन होते हैं। बाद में हमने एक ऑटोबायोग्राफिकल प्रस्तुति भी दी जिसका शीर्षक था 'टू लीव्स इन डांस एंड टू मोर' उनका देहावसान आपके लिए सिर्फ एक मां का ही बिछुडऩा नहीं था, बल्कि एक दोस्त, सलाहकार और पथ प्रदर्शक का जाना भी है।

    कैसे संभाला इस क्षति को?

    मां सही मायने में मेरी डायरेक्टर रही हैं। उन्होंने हर कदम पर बताया कि मेरे लिए क्या सही है और क्या गलत। वह हर प्रस्तुति से पहले रिहर्सल को खूब वक्त देतीं थीं। दुनिया से भी वह अचानक नहीं गईं, बल्कि उन्होंने खुद हमें उनके बिना रहने के लिए तैयार किया। धीरे-धीरे वह खुद को पीछे ले जाती गईं और हमें आगे आने के लिए प्रोत्साहित करती रहीं। अपने जाने से पांच महीने पहले से उन्होंने हमें सब बताना शुरू कर दिया था। हर रोज मैं खुद को याद दिलाती थी कि मुझे अम्मा के पास बैठकर आज कुछ और बातें याद करनी हैं, कुछ और चीजें

    समझनी हैं।

    5 साल की उम्र थी तब मेरी और अम्मा को अपने समूह के साथ तीन महीने के लिए बाहर जाना था। पापा ने पहले ही चेता दिया था कि मुझे रोना नहीं है, इससे अम्मा बहुत परेशान थीं। हम उन्हें विदा करने बॉम्बे गए थे। जिस शाम उन्हें निकलना था डॉ. सुनील कोठारी ने धीरज छाबड़ा के साथ मिलकर फेमिना के कवर पेज के

    लिए उनका एक फोटोशूट ऑर्गनाइज किया था। हमारे घर 'कश्मीर हाउस' पर। मैंने खुद को मना लिया था कि अब मुझे रोना नहीं है। मैं रोयी तो नहीं, लेकिन अपना बुखार 105 डिग्री तक बढ़ा लिया। अम्मा लगातार रो रहीं थीं और मुझसे इस तरह खुद को जज्ब करने की बजाय रोने की प्रार्थना कर रहीं थीं। फोटोशूट बहुत अच्छा हुआ, पर अम्मा की आंखें उन सभी फोटो में लाल हैं।

    14 साल की उम्र तक पहुंचकर मैंने यह सीखा कि अब मुझे अम्मा के बिना खुद को कैसे मैनेज करना है। मैं पहली बार अम्मा के साथ टूर पर जा रही थी। यह मैजी डायनेस्टी का सेलिब्रेशन था जापान में। एक नायिका और राजा के प्रति उसके प्रेम पर आधारित एक दुर्लभ भरतनाट्यम प्रस्तुति दी जानी थी। उसमें जिप्सी कथावाचक की एक छोटी सी भूमिका मुझे दी गई थी। टोक्यो में 4000 दर्शकों से भरे हॉल में इसका पहला शो था। जैसे ही मैंने मंच पर कदम रखा, मेरे पैर साड़ी में फंस गए। प्लीट्स खुलकर बिखर गईं, लेकिन मैंने बीट मिस नहीं होने दीं। उसी रिद्म में मैं थोड़ा झुकी, साड़ी की बिखरी प्लीट्स को समेटा और अंदर खोंस लिया। शो खत्म होने के बाद अम्मा ने कहा, ''मैं यह तो नहीं जानती कि तुम नृत्यांगना बनना चाहती हो या नहीं, पर तुम्हारे भीतर एक नृत्यांगना है, यह मैं जानती हूं।''

    26 जून को मैं अपनी मां के अतुलनीय जीवन को एनसीपीए (मुंबई) के मंच पर सेलिब्रेट करने जा रही हूं। मेरी स्मृतियों में उनके साथ बिताई बहुत सी यादगार शामें हैं। एनसीपीए में मैंने अम्मा के साथ और उनके बिना भी कई प्रस्तुतियां दी हैं। मीरा और चंडालिका की प्रस्तुतियां हमने एक साथ यहीं दी थीं। जमशेद भाभा अम्मा के

    बहुत अच्छे दोस्त थे। शुरुआती दिनों में उन्होंने अम्मा से गेस्ट हाउस में रहकर उनका सेंटर डेवलप करने की प्रार्थना की थी।

    योगिता यादव