बिना जांच के भारत ने लगाई थी सैटेनिक वर्सेज पर पाबंदी
नई दिल्ली। अपनी गुमनामी के दिनों की दास्तां लिख रहे भारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक सलमान रुश्दी के मन में अपने विवादित उपन्यास 'द सैटेनिक वर्सेज' पर लगी पाबंदी की टीस उनकी नई किताब 'जोसेफ एंटन' में उभर कर आई है। साप्ताहिक पत्रिका द न्यूयॉर्कर में, 18 सितंबर को प्रकाशित होने वाली 'जोसेफ एंटन' के कुछ अंशों को प्रकाशित किया गया है।

नई दिल्ली। अपनी गुमनामी के दिनों की दास्तां लिख रहे भारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक सलमान रुश्दी के मन में अपने विवादित उपन्यास 'द सैटेनिक वर्सेज' पर लगी पाबंदी की टीस उनकी नई किताब 'जोसेफ एंटन' में उभर कर आई है। साप्ताहिक पत्रिका द न्यूयॉर्कर में, 18 सितंबर को प्रकाशित होने वाली 'जोसेफ एंटन' के कुछ अंशों को प्रकाशित किया गया है। रुश्दी ने आरोप लगाया है कि तत्कालीन भारत सरकार ने बिना उचित तहकीकात या न्यायिक प्रक्रिया के 'द सैटेनिक वर्सेज' पर पाबंदी लगाई थी। भारत सरकार के फैसले के बाद की घटनाओं का सिलसिलेवार जिक्र करते हुए रुश्दी ने यह जताने की कोशिश की है कि पाबंदी के बाद उनकी मुसीबत बढ़ी।
रुश्दी ने लिखा है , 'द सैटेनिक वर्सेज' को एक आम उपन्यास की तरह सम्मान नहीं मिला। यह संकुचित, विवादित और अपमान का प्रतीक बन गई। न केवल मुस्लिमों की नजरों में बल्कि बड़े पैमाने पर जनता की राय में वह अपमान करने वाले बन गए। उन्होंने लिखा है, 1988 के आखिरी हफ्तों में यह किताब महज एक उपन्यास थी। किताब को बुकर पुरस्कार के लिए छांटा गया, फिर अचानक छह अक्टूबर 1988 को ब्रिटेन में भारत के उप उच्चायुक्त पद पर तैनात उनके मित्र सलमान हैदर ने फोन पर उन्हें बताया कि 'द सैटेनिक वर्सेज' पर भारत में पाबंदी लगा दी गई है। अविश्वसनीय तरीके से यह पाबंदी वित्त मंत्रालय ने सीमा शुल्क एक्ट की धारा 11 के तहत लगाई गई। इसके तहत किताब के आयात पर रोक लगी।
ब्रिटिश लेखक ने वित्त मंत्रालय के उस वाक्य का भी उल्लेख किया है, जिसमें भारत ने कहा था कि प्रतिबंध का मतलब, किताब के साहित्यिक एवं कलात्मक विशिष्टता को कमतर आंकना नहीं है। भारत के फैसले के चार दिन बाद 10 अक्टूबर को किताब के प्रकाशक के लंदन स्थित कार्यालय को धमकी मिली। अगले ही दिन कैंब्रिज में उनके कार्यक्रम को भी रद करना पड़ा।
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