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    दम तोड़ रही है क्योटो संधि

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    Updated: Wed, 07 Dec 2011 01:04 AM (IST)

    पर्यावरण के लिए खतरनाक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर अंकुश के लिए एक मात्र अंतरराष्ट्रीय घोषणा पत्र क्योटो प्रोटोकॉल को क्या समय के साथ दफन कर दिया जाना चाहिए?

    डरबन। पर्यावरण के लिए खतरनाक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर अंकुश के लिए एक मात्र अंतरराष्ट्रीय घोषणा पत्र क्योटो प्रोटोकॉल को क्या समय के साथ दफन कर दिया जाना चाहिए? जलवायु परिवर्तन पर आयोजित संयुक्त राष्ट्र के बारह दिवसीय सम्मेलन में कई देशों के सामने इसे लेकर कठिन सवाल खड़े किए जा रहे हैं। इस दक्षिण अफ्रीकी शहर में कुछ देशों का कहना है कि यह समझौता जलवायु परिवर्तन से मुकाबले में मदद से अधिक रोड़ा बन गया है।

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    क्योटो प्रोटोकाल की अवधि अगले साल समाप्त हो रही है। इसके साथ ही उत्सर्जन में कमी लाने की पहले दौर में धनी देशों के वादे की अवधि भी अगले साल खत्म हो रही है। इस अंतरराष्ट्रीय संधि पत्र के मुताबिक विकासशील देश इस वादे से पहले से ही मुक्त हैं। दुनिया में कार्बन डाईआक्साइड के उत्सर्जन में 11 फीसदी का योगदान करने वाले केवल यूरोपीय संघ ने ही क्योटो संधि को आगे बढ़ाने के प्रति उत्साह दिखाया है। इसमें भी एक शर्त यह है कि दुनिया में सबसे अधिक उत्सर्जन करने वाले चीन और अमेरिका को सैद्धांतिक रूप से राजी होना होगा कि वे बाध्यकारी जलवायु समझौते को वर्ष 2015 तक मान लेंगे और उसे वर्ष 2020 तक लागू कर देंगे। अब तक इसकी संभावना बहुत कम नजर आ रही है। चीन ने घोषणा की है कि सन 2020 के बाद के लिए वह बाध्यकारी जलवायु समझौते पर विचार कर सकता है। उसकी इस घोषणा के बाद यह माना जाने लगा कि उभरती अर्थव्यवस्था वाले 'बेसिक' [ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन] देशों की एकता में इस मुद्दे को लेकर दरार पड़ गई है। बाद में चीन के प्रमुख वार्ताकार जी झेनहुआ ने इस आशंका को खारिज करते हुए कहा कि अफवाहें हमेशा टिकी नहीं रहेंगी। उन्होंने कहा कि क्योटो प्रोटोकोल को जारी रहना चाहिए और दूसरी प्रतिबद्धता की अवधि हर हाल में निर्धारित होनी चाहिए।

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