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    जब लंदन यूनिवर्सिटी में डॉ. राधाकृष्णन का ज्ञान देख चमत्कृत हो गए थे विदेशी

    By Gunateet OjhaEdited By:
    Updated: Mon, 05 Sep 2016 06:58 AM (IST)

    किस्सा कुछ यूं है कि भारतीय दर्शन पर व्याख्यान के लिए उन्हें अमेरिका, ब्रिटेन आदि देशों में आमंत्रित किया गया।

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    यह किस्सा बहुत प्रचलित है कि स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के शिकागो में ऐसा भाषण दिया था कि दुनियाभर के धर्मगुरु उनका ज्ञान, समझ, विवेक देखकर अवाक् रह गए थे। मगर एक और भारतीय ने विदेशियों को अपने ज्ञान से इस कदर चमत्कृत कर दिया था कि उन्हें मेनचेस्टर और लंदन विश्वविद्यालय में विशिष्ट विद्वान के रूप में अध्यापन के लिए आमंत्रित किया गया था। ये महान शिक्षाविद् थे डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन। जो बाद में भारत के राष्ट्रपति भी बने। उन्हीं के जन्मदिन (5 सितंबर) पर शिक्षक दिवस मनता है।

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    किस्सा कुछ यूं है कि भारतीय दर्शन पर व्याख्यान के लिए उन्हें अमेरिका, ब्रिटेन आदि देशों में आमंत्रित किया गया। उन्होंने इस तरह धर्म की व्याख्या की कि उनके ज्ञान से प्रभावित होकर सन् 1929-30 में उन्हें मेनचेस्टर कॉलेज में प्राचार्य का पद ग्रहण करने बुलाया गया।

    लंदन विवि में धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन पर दिए उनके भाषण सुन प्रसिद्ध दार्शनिक बर्टरेंट रसेल ने कहा था- 'मैंने अपने जीवन में पहले कभी इतने अच्छे भाषण, इतनी गजब की व्याख्या नहीं सुनी। उनके व्याख्यान सुन एक अन्य पश्चिमी विद्वान एचएन स्पालिंग इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने ऑक्सफोर्ड विवि में धर्म और नीतिशास्त्र विषय पर एक चेयर की स्थापना की और उसे सुशोभित करने के लिए डॉ. राधाकृष्णन को आमंत्रित किया।

    सन् 1939 में जब डॉ. राधाकृष्णन ऑक्सफोर्ड विवि से लौटकर कलकत्ता आए तो पंडित मदनमोहन मालवीय ने उनसे बनारस हिंदू विवि के कुलपति बनने का अनुरोध किया। पहले उन्होंने बनारस आ सकने में असमर्थता व्यक्त की लेकिन मालवीयजी जानते थे कि डॉ. राधाकृष्णन जैसा श्रेष्ठ व्यक्ति ही बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति पद को सम्मान दे सकता है। उन्होंने बार-बार आग्रह किया। आखिरकार डॉ. राधाकृष्णन ने हां कर दी और वे भारत के तत्कालीन सर्वश्रेष्ठ अध्ययन संस्थान बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति बने।

    उनका ये कथन पूरे विश्व में बहुत प्रसिद्व हुआ कि 'मात्र जानकारियां देना शिक्षा नहीं है। व्यक्ति के बौद्धिक झुकाव और उसकी लोकतांत्रिक भावना का भी बड़ा महत्व है। ये बातें व्यक्ति को एक उत्तरदायी नागरिक बनाती हैं। शिक्षा का लक्ष्य है ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरंतर सीखते रहने की प्रवृत्ति। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को ज्ञान और कौशल दोनों प्रदान करती है तथा इनका जीवन में उपयोग करने का मार्ग प्रशस्त करती है। करुणा, प्रेम और श्रेष्ठ परंपराओं का विकास भी शिक्षा के ही उद्देश्य हैं।"

    बाद में राष्ट्रपति बनने के बावजूद वे शिक्षक बने रहे और जब भी समय मिलता, साधारण शिक्षक की तरह बच्चों को पढ़ाने जाते रहे।

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