क्या होता जब उत्तराखंड में बन जाते 56 पनबिजली घर
उत्तराखंड में कुदरत का कहर बरपा है। कहा जा रहा है कि पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्र को संरक्षित न करने का ये परिणाम है। लेकिन तब पर्यावरण का क ...और पढ़ें

नई दिल्ली, [माला दीक्षित]। उत्तराखंड में कुदरत का कहर बरपा है। कहा जा रहा है कि पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्र को संरक्षित न करने का ये परिणाम है। लेकिन तब पर्यावरण का क्या होता जब ग्लेशियर से लेकर ऋषिकेश तक अलकनंदा और मंदाकिनी पर 56 पनबिजली घर बन जाते और वह भी पर्यावरण का आकलन किए बगैर। निशंक सरकार ने बिना पर्यावरण आकलन के 56 लघु पनबिजली परियोजनाओं को मंजूरी दी थी और जब मामला हाई कोर्ट पहुंचा तो आनन फानन में परियोजनाओं को दी गई मंजूरी निरस्त कर दी। लेकिन कंपनियां अभी भी बहाली के लिए सुप्रीम कोर्ट में लड़ाई लड़ रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिकाएं विचारार्थ मंजूर कर ली हैं और सितंबर में उन पर विस्तृत सुनवाई होगी।
उत्तराखंड हाई कोर्ट ने पर्यावरण प्रभाव का आकलन किए बगैर 56 लघु पनबिजली घरों को बनाने की मंजूरी पर चिंता जताते हुए कहा था कि यह पर्यावरण के लिए बहुत नुकसानदेह है। उत्तराखंड हाई कोर्ट ने परियोजनाएं निरस्त करने के पीछे दी गई राज्य सरकार की उस दलील को फैसले में दर्ज किया, जिसमें कहा गया था कि 56 में 44 परियोजनाओं में नदी के वेग को रोकने से पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव पड़ता। ये दलीलें परियोजनाएं निरस्त करने के बाद की हैं लेकिन पहले देते समय ये नहीं सोचा गया और पर्यावरण आंकलन के बगैर इतनी परियोजनाओं को मंजूरी दी गई। हाई कोर्ट ने 15 जुलाई 2011 को सुनाए गए अपने फैसले में परियोजनाएं निरस्त करने के राज्य सरकार के आदेश में दखल देने से तो मना कर दिया लेकिन भविष्य में पर्यावरण के साथ इस तरह खिलवाड़ न हो, इसके लिए सरकार के हाथ बांध दिए। हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को आदेश दिया कि उत्तराखंड में किसी भी नदी पर किसी भी छोटी या बड़ी पन बिजली परियोजना को पर्यावरण प्रभाव आकलन व वैज्ञानिक अध्ययन के बगैर मंजूरी नहीं दी जाएगी। सरकारी हो या निजी किसी भी परियोजना को मंजूरी देने से पहले नदी तट के बंदोबस्त का विस्तृत अध्ययन होगा।
बात 2010 की है। निशंक सरकार ने फरवरी में 56 लघु पनबिजली परियोजनाओं को मंजूरी दी। जून में हाई कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल हुई, जिसमें पर्यावरण आकलन के बगैर इतनी परियोजनाओं को मंजूरी पर सवाल उठा। निशंक सरकार ने आनन फानन में 15 जुलाई को आवंटन निरस्त कर दिया। आवंटन निरस्त होने पर कंपनियां भी हाई कोर्ट पहुंच गई। चूंकि राज्य सरकार ने परियोजनाएं निरस्त कर दी थीं, इसलिए हाई कोर्ट को उस पर फैसला देने की जरूरत नहीं पड़ी। हाई कोर्ट ने कंपनियों की याचिका खारिज करते हुए बस इतना कहा कि वे परियोजना निरस्त करने के राज्य सरकार के फैसले में दखल नहीं देना चाहते।
अब हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ 13 कंपनियां सुप्रीम कोर्ट पहुंची हैं और उन्होंने आवंटन निरस्त करने के सरकार के फैसले को चुनौती दी है। सुप्रीम कोर्ट में उत्तराखंड सरकार की पैरोकारी कर रहे वकील सौरभ त्रिवेदी कहते हैं कि परियोजनाओं का आवंटन निरस्त करने के कई कारण थे, लेकिन सबसे बड़ा कारण पर्यावरण प्रभाव था। परियोजनाओं का पर्यावरण प्रभाव आकलन नहीं हुआ था इसलिए उन्हें निरस्त कर दिया गया। हाई कोर्ट ने भी इसे सही माना है।
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