कमजोरियों ने गढ़ी बहुगुणा के रुखसती की इबारत
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के तौर पर 13 मार्च 2012 को शुरू हुई विजय बहुगुणा की सियासी पारी दो साल पूरे होने से पहले ही सिमट गई। विधानसभा नतीजों के बाद बहुगुणा दिग्गज कांग्रसी नेता हरीश रावत पर तो भारी पड़े, मगर विधायकों में कमजोर पैठ, जनता व कार्यकर्ताओं से संवादहीनता और दिल्ली मोह जैसी खामियां उन्हें ले डू
[सुभाष भंट्ट], देहरादून। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के तौर पर 13 मार्च 2012 को शुरू हुई विजय बहुगुणा की सियासी पारी दो साल पूरे होने से पहले ही सिमट गई। विधानसभा नतीजों के बाद बहुगुणा दिग्गज कांग्रसी नेता हरीश रावत पर तो भारी पड़े, मगर विधायकों में कमजोर पैठ, जनता व कार्यकर्ताओं से संवादहीनता और दिल्ली मोह जैसी खामियां उन्हें ले डूबीं। उनकी 'अभिजात्य' राजनीतिक संस्कृति भी आलाकमान को नागवार गुजरी।
बहुगुणा अपने कई फैसलों को लेकर चर्चा में रहे। भाजपा सरकार के अहम फैसलों को ठंडे बस्ते में डालने की बात हो या फिर गैरसैंण में विधान भवन का शिलान्यास कर राजधानी के मुद्दे पर सियासी माईलेज लेने की कोशिश। कई फैसलों पर उन्हें रोलबैक भी करना पड़ा, जिससे उनकी निर्णय क्षमता पर भी सवाल उठते रहे। मुख्यमंत्री विपक्ष ही नहीं, बल्कि खुद अपने ही पार्टी विधायकों के भी निशाने पर रहे। उन्होंने विधायकों की नाराजगी दूर करने की कोशिशें तो की, मगर विरोधी खेमे के बागी सुरों को साधने में कामयाब नहीं हो पाए। यही वजह है कि अक्सर आम जनता के करीब जाने का पाठ पढ़ाने वाले राहुल गांधी बहुगुणा को बदलने का मन काफी पहले ही बना चुके थे।
जून 2013 में उत्तराखंड पर बरसी प्राकृतिक विपदा की घड़ी में कमजोर आपदा प्रबंधन ने भी बहुगुणा को सवालों के घेरे में ला दिया था, तो बेलगाम ब्यूरोक्रेसी भी उनकी पारी में रोड़ा बनती दिखी।
सम्मानजनक शर्त पर माने बहुगुणा
मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की विदाई और हरीश रावत की ताजपोशी के लिए एक चार सूत्रीय फार्मूला तैयार किया गया, जिस पर अमल के आश्वासन के बाद ही इस सियासी ड्रामे का पटाक्षेप हुआ। इसमें केंद्रीय मंत्री हरीश रावत के इस्तीफे से रिक्त पद पर बहुगुणा को वरीयता देने, मुख्यमंत्री के रूप में बहुगुणा द्वारा की गई घोषणाओं पर नई सरकार के अमल करने, नए मंत्रिमंडल में बहुगुणा के चहेतों को भी समायोजित करने के साथ टिहरी संसदीय सीट पर बहुगुणा को वरीयता देना प्रमुख है। टिहरी सीट पर बहुगुणा स्वयं या जिसे भी चाहें, इस सीट से लोकसभा चुनाव लड़वाने के लिए अधिकृत होंगे। निजाम बदलने के बावजूद पारंपरिक लोकसभा सीट पर किसी भी तरह का हस्तक्षेप किसी अन्य का नहीं रहेगा।
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